चार्वाक दर्शन


             धनंजय कुमार मिश्र *                                                                                                           



                           चार्वाक शब्द की व्युत्पत्ति ‘चर्व्’ नामक धातु से की गयी है, जिसका अर्थ है खाना या चबाना। इस प्रकार खाने-पीने और भोग विलास के देहवादी दृष्टिकोण को मानने वाले व्यक्तियों के लिए चार्वाक शब्द का प्रयोग हुआ है।
कुछ लोग ‘चारूवाक्’ के रूप में चार्वाक शब्द की व्युत्पत्ति मानते हैं। इनके अनुसार इस दर्शन की बातें अधिक लोकप्रिय थीं, क्योंकि ‘श्रेयस्’ की अपेक्षा ‘प्रेयस्’ अधिकांश लोगों के लिए अनुकूल होता है। अतः चार्वाक मत की बातें लोगों को चारू अर्थात् सुहावनी प्रतीत होती थी क्योंकि इसमें प्रेयस् को हीं श्रेयस् स्वीकार किया है और इस आधार पर इसका नामकरण किया गया।
 चार्वाक दर्शन को मानने वाले असुर लोग थे, इसलिए इसे आसुरी दर्शन भी कहते हैं। राक्षसी जातियों में असुर बालकों को इसका उपदेश दिया जाता था।
         जगत्कत्र्ता ईश्वर को न मानने के कारण चार्वाक दर्शन को नास्तिक दर्शन भी कहते हैं। इस दर्शन में परलोक और पुनर्जन्म को मान्य नहीं किया गया है।
         नास्तिक दर्शन के रूप में प्रसिद्ध चार्वाक दर्शन का एक नाम लोकायत भी है। लोक में अर्थात् संसार में स्वाभाविक रूप से फैले होने के कारण इसे लोकायत कहा गया है - ‘‘लोके आयतं विस्तृतं इति लोकायतम्।’’ आचार्य कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में इस दर्शन को लोकायत हीं कहा है - ‘‘सांख्य योगोलोकायतं चेति आन्वीक्षिकी।’’
           वृहस्पति द्वारा प्रणीत होने के कारण इस दर्शन को वार्हस्पत्य दर्शन भी कहते हैं। इस प्रकार चार्वाक दर्शन एक नास्तिक दर्शन है  जिसे लोकायत या वार्हस्पत्य दर्शन भी कहते हैं।
              चार्वाक दर्शन भारतवर्ष के प्राचीन दर्शनों में से एक है। ऋग्वेद, कठोपनिषद्, वाल्मीकि रामायण, महाभारत के मोक्षपर्व, प्रबोध-चन्द्रोदय, सर्वदर्शन संग्रह, नैषधीयचरितम् आदि ग्रन्थों में इसका संक्षिप्त परिचय प्राप्त होता है।
चार्वाक दर्शन की विशेषताएँ - चार्वाक दर्शन की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं -
1.    चार्वाक दर्शन ने स्थापित मूल्यों पर प्रहार के साथ अपौरूषेय धर्मग्रन्थ वेदों के ऊपर भी सीधा प्रहार किया है। वैदिक क्रियाओं, आचार-विचार, यज्ञ-यागादि, श्राद्ध, दानादि का खण्डन किया है। चार्वाक के अनुसार-
              अग्निहोत्रं त्रयो वेदाः त्रिदण्डम् भस्मगुण्ठणम्।
              बुद्धि-पौरूष-हीनानां जीविका धातृनिर्मिता।।


2.    चार्वाक दर्शन परमेश्वर की सत्ता को विदीर्ण करता हुआ अपने मत के संस्थापक वृहस्पति मुनि का स्मरण करता है जिसके लिए केवल प्रत्यक्ष हीं प्रमाण है जो अनुमान, अनुमिति, उपमिति, शब्दादि प्रमाणों का खण्डन कर इन्द्रिय सन्निकर्ष जन्य ज्ञान को हीं ज्ञान मानता है। वेद-स्मृति, पुराणों की निन्दा कर सुख की अनुभूति करता है। इस दर्शन का सार है कि जब तक जीवन है सुख से जीओ। मृत्यु से बचना असम्भव है। जलने पर राख बनी देह का पुनरागमन कदापि संभव नहीं है -
यावज्जीवें सुखं जीवेत् नास्तिमृत्युरगोचरः।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।


3.    चार्वाक के मतानुसार चार महाभूतों के परस्पर सहयोग से शरीर का आकार और चैतन्य उत्पन्न होता है। इनके अनुसार आकाश की गणना महाभूतों में नहीं होती है क्योंकि उसका प्रत्यक्ष नहीं होता है। इन्द्रिय सन्निकर्ष जन्य प्रत्यक्ष ही प्रमाण होता है। जब ये चार महाभूत परिणत होते हैं तो शरीर का आकार और चैतन्य उत्पन्न हो जाता है। विज्ञानघन चैतन्य इन्हीं भूतों से बाहर निकलकर शरीरों में दिखलाई पड़ता है। मृत्यु के समय वह चैतन्य उनमें ही विलीन हो जाता है। अतः चैतन्य से युक्त शरीर ही आत्मा है। देह के अलावा और कोई आत्मा नहीं है। प्रत्यक्ष प्रमाण के अभाव होने के कारण ऐसा सिद्ध है। प्रत्यक्ष प्रमाण के अलावा अनुमानादि प्रमाणों की कोई सत्ता ही नहीं है क्योंकि उनका इन्द्रियजन्यसन्निकर्ष नहीं होता। शरीर के अतिरिक्त कोई आत्मा नहीं है। इस बात की पुष्टि कर चार्वाक ने आत्मा और परमात्मा का खण्डन कर दिया है।

4.    चार्वाक के मतानुसार स्त्री आदि के आलिंगन आदि से समुत्पन्न सुख हीं पुरूषार्थ है। इसमें धर्मादि नियम स्वीकार्य नहीं है। संभोगादि से रोगादि का भय व्याप्त है, अतः उसे पुरूषार्थ कैसे माना जाय तो अनिवार्य रूप से मिले हुए सुख-दुःख से दुःख को अलग कर सुख का उपभोग हीं ग्राह्य है। जैसे मछली खाने वाला मछली से उसकी कठिन त्वचा और कण्टकों को निकाल, उपयोगी भाग का ग्रहण करता है। जैसे किसान समग्र धान्य को लाकर उससे भूसा निकालकर धान्य ग्रहण करता है। दुःख के भय से अनुकूल सुख का परित्याग उचित नहीं है। कोई भी व्यक्ति कांटों के भय से गुलाब, बेरफल, विल्वफलों का परित्याग नहीं करता। सभी सुख दुःखों से मिश्रित होते हैं। जो मौजूद सुख को अदृष्ट, जो किसी ने देखा ही नही है उस नरकादि के भय से छोड़ता है, वह पशुवत् मूर्ख है। अपने-पराये का विचार न कर अपने उपयोग की वस्तु को ग्रहण कर लेना चाहिए -  
 ‘‘त्याज्यं सुखं विषयसंगमजन्य पुंसाम्
                         दुःखोपसृष्टामिति मूर्ख विचारणैषा।
            ब्रीही´्जिहासति सितोत्तमतण्डुलाद्यान्
                      को नाम भोस्तुषकणोपहितान्हितार्थी।।’’


5.    चार्वाक मत में स्त्री के आलिंगन से प्राप्त सुख ही पुरूषार्थ है। कांटों से मिलने वाला दुःख हीं नरक है। लोक में प्रसिद्ध राजा ही परमेश्वर है और कोई परमेश्वर नहीं है। देह के नाश को हीं मुक्ति कहा जाता है। ज्ञान से मुक्ति नहीं होती है। भूमि, जल, अग्नि और वायु ये चार महाभूत हीं सृष्टि के कारण हैं।
            ‘‘अझ््गनालिझ््गनाजन्य सुखमेव पुमर्थता।
             कण्टकादि व्यथाजन्यं दुःखं निरय उच्यते।।’’


6.    चार्वाक मतानुसार न तो स्वर्ग है और न अपवर्ग है और न कोई पारलौकिक आत्मा हीं है। वर्ण और आश्रम की क्रियाएँ भी कोई फल देने वाली नहीं है। यदि ज्योतिष्टोम यज्ञ में बलि देने से बकरा आदि जीव स्वर्ग जाते हैं तो यजमान अपने पिता की बलि क्यों नहीं देता, जिससे उसे भी स्वर्ग की प्राप्ति हो जाए। मरे हुए व्यक्तियों को यदि श्राद्ध से तृप्ति मिल जाती है ,यदि यह कथन सत्य है तो तेल से बुझे हुए दीपक की लौ भी बढ़ जानी चाहिए। अतः ये सभी बातें कपोल-कल्पित हैं इनमें कुछ भी सत्य नहीं है। दूर-दराज जाने वाले लोगों को नाश्ता बाँधना व्यर्थ है, घर पर ही उनका श्राद्ध कर दिया जाए तो रास्ते की भूख स्वतः हीं मिट जाएगी। स्वर्ग में स्थित यदि पितर दान देने से वहाँ तृप्त हो जाते हैं तो घर के छत पर बैठे लोग उस प्रकार के दान से तृप्त क्यों नहीं हो जाते हैं। अतएव जब तक जीओ सुख से जीओ, कर्ज लेकर धृतपान करो, मरने के बाद यह देह फिर कर्ज उतारने के लिए नहीं आने वाली है -
             ‘‘ यावज्जीवेत्सुखंजीवेत् ़ऋणं कृत्वा धृतं पिबेत्।
               भस्मीभूतस्यदेहस्य        पुनरागमनं कुतः।।’’


7.     यदि आत्मा शरीर से निकलकर परलोक जा सकती है तो भाई-बन्धुओं के दुःखी होने पर स्नेह से व्याकुल होकर पुनः शरीर में क्यों नहीं लौट आती ? अतः आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक की बातें पाखण्डियों ने अपनी जीविका चलाने के लिए बनाई है। मृत व्यक्तियों का प्रेत-कार्य कराना ब्राह्मणों ने अपनी रोजी-रोटी के लिए चलाया है। तीनों वेदों को बनाने वाले भाँड-धूत्र्त और निशाचर हैं।

                           चार्वाक मतानुसार चार्वाक का मत ही मानने योग्य और रमणीय है। अतः बहुत से प्राणियों के कल्याण के लिए चार्वाक का मत ही मानने योग्य और रमणीय है।

__________________________________

*अध्यक्ष संस्कृत विभाग, 
संताल परगना महाविद्यालय, 
सिदो-कान्हु मुर्मू विश्वविद्यालय,
 दुमका (झारखण्ड) 814101



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