‘ज्ञानवृद्ध महर्षि अष्टावक्र’






 


                                        डॉ.धनंजय कुमार मिश्र




                   संस्कृृत वाङ्मय किसी एक पुरातन भाषा का इतिहास हीं नहीं अपितु भारतीय मनीषा का संचित कोष है। यह केवल काव्य - सुधा के निस्यंद से हीे सिंचित नहीं रहा, इसकी विविध विधाओं ने सैदव विश्व के विद्यानुरागियों को आकृष्ट  किया है। कहीं ऋषियों के उद्गार हैं तो कहीं यज्ञीय पूर्ण आस्था , कहीं काव्य की मधुर अभिव्यक्ति है तो कहीं अनन्त के सूक्ष्म के अवधारण की जिज्ञासा, कहीं प्राचीन आचार्यों की तार्किक मेधा की अन्वेषणा है तो कहीं विज्ञान के विविध पक्षों  का उन्मीलन।
        संस्कृत  भाषा में ऋषियों का योगदान अन्यतम है। मन्त्रद्रष्टा ऋषियों ने कायिक, वाचिक और मानसिक शुद्धि के साथ तपोबल से समाधिस्थ होकर वेदों का साक्षात्कार किया है। भारतवर्ष की पुण्यमयी वसुधा पर हीं वेद, ब्राह्मण,आरण्यक, उपनिषद् , वेदांग, षड्दर्शन, स्मृति, धर्मशास्त्र, पुराण, रामायण, महाभारत, आयुर्वेद, नीतिशास्त्र, आचारशास्त्र, कामशास्त्र तथा काव्यादि समस्त ग्रन्थ प्रारम्भ में संस्कृत भाषा में हीं लिखे गए। जो पूर्णता संस्कृत भाषा में वह अन्यत्र नहीं। यह उक्ति संस्कृत वाङ्मय के  लिए सर्वथा उपयुक्त है कि-
       ‘‘यदिहास्ति तदन्यत्र, यन्नेहास्ति न तत् क्वचित् ।’’
          आत्मज्ञान पर जितने भी ग्रन्थों की रचना हुई है, उनमें से ‘अष्टावक्र गीता ’ को सर्वश्रेष्ठ कहा जा सकता है। विज्ञजनों द्वारा इसे केवल गीता हीं नहीं महागीता की संज्ञा दी जाती है। अल्प आयु, आठ स्थानों से विकृत शरीर वाले अष्टावक्र के द्वारा जनक जैसे ज्ञानी को शास्त्रार्थ में पराजित करना और जनक का शिष्यत्व ग्रहण करके परम श्रद्धा से उपदेश सुनना एक आश्चर्यचकित एवं अनूठी घटना है। विद्वान् शिरोमणि महर्षि याज्ञवल्क्य के शिष्य और व्यास पुत्र शुक्रदेवं मुनि के उपदेष्टा जनक को ज्ञान का उपदेश देने वाला कोई अधिकारी तत्त्ववेत्ता ही हो सकता है। यह साधारण उपदेश नहीं हो सकता । यह उपदेश ज्ञानियों का वेद, उपनिषद् गीता कुछ भी कहा जा सकता है। वास्तव में ‘अष्टावक्र गीता ’ संस्कृत साहित्य का अमूल्य धरोहर है। यह ग्रन्थ प्रकाश नहीं प्रकाश पुंज है जिसके साथ हजारों रश्मियाॅं सम्बद्ध है । इसकी एक रश्मि भी जीवात्मा के शक्ति प्रदान करने के लिए पर्याप्त है। तत्त्व ज्ञान  के इस महोदधि की एक बूँद से भी जिस मनुष्य का अभिसिंचन हो गया, वह त्रिविध तापो से मुक्त हो जाता है। ‘अष्टावक्र गीता ’ को अज्ञानान्धकार में भटकते प्राणियों के लिए प्रकाश स्तम्भ की भांति कहा जाता है।
             
             अष्टावक्र-गीता के रचयिता ज्ञानवृद्ध     तत्त्ववेत्ता महर्षि अष्टावक्र है। महर्षि अष्टावक्र ने जो जनक को उपदेश दिया है वही संग्रह अष्टावक्र गीता के रूप में विख्यात हैं। महर्षि अष्टावक्र की जीवनी भी अत्यन्त रोमांचक है। इनकी कथा महाभारत के वनपर्व में भी उपलब्ध होती है। वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रा पर्व में अष्टावक्र के जन्म का वृतांत , उनका राजा के दरबार में जाना, द्वारपाल तथा राजा जनक से वार्तालाप, अष्टावक्र से शास्त्रार्थ, वन्दी की पराजय तथा समंगा में स्नान से अष्टावक्र के अंगो का सीधा होना वर्णित है।
       महर्षि अष्टावक्र अस्थि विकलांग थे। महाभारत के अनुसार  इनकी माता ‘सुजाता’ तथा इनके पिता ‘कहोड’ मुनि थे । उद्दालकनन्दन श्वेतकतु अष्टावक्र के मामा एवं समवयस्क थै। महर्षि अष्टावक्र जात्या ब्राह्मण थे। अष्टावक्र वाद-विवाद में निपुण थे। बाल्यावस्था में ही अष्टावक्र ऋषि ने अद्वैत-ब्रह्म के विषय में शास्त्रार्थ किया था।
राजा जनक ने स्पष्ट कहा है, हे ब्राह्मण! आपकी शक्ति तो देवताओं के समान है, मैं आपको मनुष्य नहीं मानता, आप बालक भी नहीं हैं। मैं तो आपको वृद्ध हीं समझता हूॅं । वाद-विवाद करने में आपके सामान दूसरा कोई नहीं है।

      न त्वां मन्ये मानुषं देवसत्त्वं
          न त्वं बालः स्थविरः सम्मतो मे।
      न ते तुल्यो विद्यते वाक्प्रलापे    ( महाभारत वनपर्व 133/30)


                                  महर्षि अष्टावक्र बाल्यकाल से हीं अप्रतिम प्रतिभा सम्पन्न थे । महाभारत वनपर्व के 134वे अध्याय में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में अष्टावक्रीयोपाख्यान के अन्तर्गत इनकें शास्त्रार्थ की मनोरम झाॅंकी देखने को मिलती है।
       
            सम्प्रति ‘अष्टावक्र-गीता’ महर्षि अष्टावक्र की कृति के  रूप में प्रसिद्ध है। इस ग्रन्थ में बीस प्रकरण हैं। यह प्रथमतः एवं अन्ततः दार्शनिक ग्रन्थ है। भारतीय दर्शन सम्पूर्ण जगत् में समादृत है। हमारा दर्शन हमारी सांस्कृतिक उपलब्धि है। भारतीय विचारधारा सम्पूर्ण विश्व को समग्रता में देखती है। अष्टावक्र गीता भी इसी विचारधारा को पुष्ट करती है। उपनिषद् की नीव पर हीं अष्टावक्र गीता का प्रासाद निर्मित है। अष्टावक्र-गीता के प्रकरणो के अवलोकन से यह बात स्वतः सिद्ध हो जाती है।
          
                            जिस प्रकार उपनिषदों को सरस एवं रुचिकर बनाने के लिए संवाद और प्रश्नोत्तर शैली अपनायी गयी है, उसी शैली को अष्टावक्र गीता में भी अपनायी गयी है। इसमें  संवाद शैली के माध्यम से आध्यात्मिक प्रश्नों एवं अन्यान्य दार्शनिक विषयों का सरल विवेचन किया गया है। जनक और अष्टावक्र की वार्ता के रुप में सम्पूर्ण ग्रन्थ निबद्ध है, जहाॅ पाठक ज्ञान की अविरल धारा से स्वयं को सिक्त करता है। प्रथम प्रकरण के प्रारम्भ में हीं जनक स्पष्ट शब्दों में अष्टावक्र से पूछते हैं-
 
       कथं ज्ञानमवाप्नोति कथं मुक्तिर्भविष्यति।                  
       वैराग्यं च कथं प्राप्तमेतद् ब्रूहि मम प्रभो।। अष्टा0गीता (1/1)

        अर्थात् हे प्रभो! ज्ञान की प्राप्ति कैसे होती है, मुक्ति कैसे होती है, वैराग्य कैसे  प्राप्त होता है, इसे मेरे प्रति कहिए। इसके उत्तर में अष्टावक्र ने जो कहा वह कितना मार्मिक एवं तात्विक है-
    
मुक्तिमिच्छासि चेत्तात विषयान् विषवत्त्यज।
क्षमार्जवदयातोष   सत्यं   पीयूषवद्  भज।।
                                         अष्टा0गीता (1/2)

न पृथिवी न जलं नाग्निनवायुद्यौर्न वा भवान्।
एषां साक्षिणमात्मान चिद्रूप विद्धि मुक्तये।।
                                         अष्टा0गीता (1/3)

यदि देहं पृथक्कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि।
अधुनैव सुखी शान्तः बन्धमुक्तो भविष्यति।।
                                         अष्टा0गीता (1/4)
              न त्वं विप्रादिको वर्णो नाश्रमो नाक्षगोचरः।
          असंगो हि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव।।
                                        अष्टा0गीता (1/5)


                          अर्थात् - हे तात् ! यदि मुक्ति की इच्छा हो तो विषयों का विष के समान त्याग करो और क्षमा, आर्जव, दया , संतोष तथा सत्य का अमृत के समान सेवन करो। तुम न पृथिवी हो ,न जल हो , न अग्नि हो ,न वायु हो, न आकाश हो किन्तु स्वयं की मुक्ति के लिए इन सब को साक्षी एवं चैतन्य रुप जानो। यदि तुम शरीर को पृथक् करके तथा चैतन्य आत्मा में विश्वासपूर्वक स्थित हो तो तुम अभी हीं सुखी, शान्त तथा बन्धन-मुक्त हो जाओगे। तुम ब्राह्मण आदि वर्ण नहीं हो, न आश्रमी हो, न इन्द्रियों के विषय हो वरन् तुम तो संग रहित, आकार रहित और विश्वसाक्षी हो- ऐसा मान कर सुखी बनो।
    इसी प्रकार वार्तालाप  एवं संवाद के माध्यम से अष्टावक्र गीता के बीस प्रकरणों में बड़ी हीं गंभीर एवं दार्शनिक तत्त्वों  को बताया गया है। प्रथम प्रकरण में कहा गया है कि विषयो का त्याग हीं मोक्ष प्राप्ति का मार्ग है। सारा विश्व एक सŸाा है यह द्वितीय प्रकरण में वर्णित है। तृतीय प्रकरण में यह कहा गया है कि आत्मा के अज्ञान से विषय-भ्रम की प्राप्ति होती है। योगी को पाप पुण्य कुछ भी स्पर्श नहीं करते यह चतुर्थ प्रकरण में विवेचित है। पाॅंचवे प्रकरण में पुनः स्पष्ट कहा गया है कि देहाभिमान के त्याग से मोक्ष की प्राप्ति होती है।आत्मा का त्याग , ग्रहण और लय कुछ भी नहीं है। आत्मा अनन्त महासागर के समान सनातन है। आठवें प्रकरण में बन्धन और मोक्ष को परिभाषित करते हुए कहा है-
    तदा बन्धो यदा चित्रं किंचिद् वाञ्छति शोचति।
    किंचन मुञ्चति गृहणाति किंचद् धृस्यति कुस्यति ।। (8/1)

                  अर्थात जब चित्त वान्छा करता है, कुछ सोच करता है, कुछ छोड देता है , कुछ ग्रहण करता है, हर्षित होता है या दुःखित होता है तभी बन्धन है।
    तदा मुक्तियर्दा चित्तं  न वांछति न शोचति ।
    न  मुञ्चति न गृहणाति न हृस्यति न कुप्यति ।। (8/2) 

अर्थात् जब चित्त नहीं चाहता, सोच नहीं करता छोडता नहीं ग्रहण भी न करता, प्रसन्न नहीं होता और न दुःखित हीं होता है, तभी मोक्ष है।
आगे अष्टावक्र ने स्पष्ट कहा है-
           ‘यदा नाहं तदा मोक्षो यदाहं बन्धनं तदा’   (8/3) 
अर्थात जब ‘‘मैं’’ नहीं तब मोक्ष है, जब ‘‘मैं’’ हूँ तभी बन्धन है।
नवें प्रकरण में कहा गया है कि वासना हीं संसार है। दशवे प्रकरण में बताया गया कि तृष्णा का त्याग हीं मोक्ष है। ग्यारहवे प्रकरण में कैवल्य प्राप्ति के उपाय वर्णित हैं । बारहवे प्रकरण में ‘‘मैं’’ हीं सर्वत्र स्थित हूॅं ऐसा कहा गया । हानि-लाभ का त्याग हीं सुख है। साक्षी भाव से परमात्मा का दर्शन , आसक्ति हीं बन्धन , शास्त्रों के मत वैभिन्न कोे भूले बिना शान्ति नहीं , सदा तृप्त व्यक्ति हीं ज्ञान का अधिकारी, तŸवज्ञानी के लिए न द्वैत है और न अद्वैत, व्यामोह की निवृति से निज स्वरुप की प्राप्ति एवं संकल्प-विकल्प से मुक्त आत्मा का ज्ञान हीं ज्ञान है आदि विस्तार से वर्णित है।

               महर्षि अष्टावक्र कृत अष्टावक्र गीता न केवल जनक-अष्टावक्र वार्ता है अपितु भारतीय विचारधारा का अत्यन्त लोकप्रिय दार्शनिक एवं नैतिक काव्य है। सच पूछा जाए तो मात्र तीन सौ श्लोकों में निबद्ध यह सार ग्रन्थ मानव मात्र के लिए उपादेय है। अष्टावक्र गीता मनुष्य के नैतिक समस्या पर विचार करती है। सत्रहवें प्रकरण में स्पष्ट कहा गया है-
   बुभुक्षेरिह  संसारे मुमुक्षुरपि दृश्यते ।
   भोगमोक्ष निराकांक्षी विरलो हि महाशयः।।      (17/5)

इतना हीं नहीं  अष्टावक्र कहते है कि ज्ञान पुरुष को विदेह के समान सुशोभित करता है।
      यदि यह कहा जाए कि अष्टावक्र गीता की आधार शिला पर हीं परवर्ती अनेक  दार्शनिक ग्रन्थों का आविर्भाव हुआ है तथा प्रसिद्ध ग्रन्थ श्रीमद्भगवद्गीता भी अनेकशः अष्टावक्र गीता से प्रभावित नजर आती है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । भगवद्गीता  का आत्मतत्त्व  वर्णन, कर्म-सिद्धान्त, योग मार्ग, आदि का सूक्ष्म निरुपण अष्टावक्र गीता में पूर्णतः किया गया है।
       अन्ततः कहा जा सकता है कि महर्षि अष्टावक्र का संस्कृत साहित्य में अतुलनीय योगदान रहा है। साथ हीं यह भी स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारतीय इतिहास  के पन्नों में ऐसे कई महापुरुष हमें दिखाई देते हैं जिनकीं शारीरिक विकलांगता ने कभी भी उनके ज्ञान के राह को अवरुद्ध नहीं किया। निःसंदेह महर्षि अष्टावक्र भारतवर्ष के अमूल्य निधि हैं।
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अध्यक्ष-संस्कृत विभाग,
संताल परगना महाविद्यालय, दुमका (झारखण्ड)  814101

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