संताल हूल (1855-56)

संताल हूल

सन् अठ्ठारह सौ पचपन
खत्म हुआ अभी ही बचपन।
चारों ओर काले बादल
चीर तिमिर दिनकर गगन।।

चारों भाई दोनों बहन
स्वतंत्रता की तीव्र लगन।
मन में थी एक नई उमंग।।
खून में उठते ज्वाल तरंग।।

भोगनाडीह  शेरों की माँद,
सिदो-कान्हू भैरव-चाँद।
फूलो-झानों  छह ही जान,
थामा  जब तीर-कमान।।

बोंगा ने दिया पैगाम,
नहीं रहोगे अब गुलाम,
यह आदेश सुनाया सबको,
जमा हुए फिर उसी ग्राम।।

शत सहस्र संताल वीर,
लिए कर नुकीले तीर, 
सूरज निकला तम को चीर,
निकल पड़े फिर चारों वीर।।

चतुर्दिक कोहराम मचाया, 
सत्ता की बुनियाद हिलाया।
आजादी का पाठ पढ़ाया, 
भारत माँ का लाल कहाया।। 

बालक-वृद्ध  नारी-नर 
कदम बढ़े   फिर एक डगर,
आजादी   की  पूर्ण   समर, 
दुश्मन   पर  टूटा  कहर।। 
                                    
अंग्रेजों का दमन-चक्र,
पन्द्रह हजार स्वतंत्रता वीर,
भीषण युद्ध भयभीत  नीड़,
खून से लथपत हुआ शरीर।।

साँस  टूटती  ही थी जाती,
पर  आस में कमी न आती, 
सिदो  को जब लगी गोली,
आह थी भारत की निकली।। 

धरती माँ की गोद में जाकर,
चिरनिद्रा में आँख मूँद ली।।

जय-जय संताल की धरती, जय हो वीर प्रसूता जननी।
तुम्हें नमन हैं बारम्बार,   कृतज्ञ राष्ट्र की यही पुकार।।

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डॉ धनंजय कुमार मिश्र 
अध्यक्ष संस्कृत विभाग सह अभिषद् सदस्य 
सिदो कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय दुमका 
(झारखण्ड)
814101

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