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Showing posts from November, 2019

नीतिशतकम्

1. अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः।   ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्माऽपि नरं न रञ्जयति।।                            भाषानुवाद:- अज्ञानी व्यक्ति को सरलता से प्रसन्न हो जाता है, विद्वान् व्यक्ति और भी सरलता से प्रसन्न हो जाता है, किन्तु अल्प ज्ञान से उन्मत बने हुए व्यक्ति को ब्रह्मा भी प्रसन्न नहीं कर सकते। 2. साहित्यसंगीतकलाविहीनः  साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः।   तृणं न खादन्नपि जीवमान स्तद्भागधेयं परमं पशूनाम्।। भाषानुवाद:- साहित्य, संगीत और कला से विहीन मनुष्य साक्षात् पूँछ और सींगों से हीन पशु के जैसा ही है। घास न खाता हुआ भी वह जीवित है, यह पशुओं का परम सौभाग्य है। 3. येषां न विद्या न तपो न दानं  ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।   ते मत्र्यलोके भुवि भारभूता        मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।। भाषानुवाद:- जिस व्यक्ति में न विद्या है, न दान देने की प्रवृत्ति है, न ज्ञान है, न उत्तम स्वभाव है, न उत्तम गुण है और न धर्म में विश्वास है ; वे मनुष्य इस मत्र्यलोक में भूमि पर भार स्वरूप हैं और मानो मनुष्यरूप में जानवर विचरण करते हैं। 4. जाड्यं धियो हरति सिंचति वा

हितोपदेशे (मित्रलाभः)

1. विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्।   पात्रत्वाद्धनमाप्नोति    धनाद्धर्मं ततः सुखम्।। भाषानुवाद:- विद्या मनुष्य को विनम्रता देती है। वह विनम्रता से योग्यता, योग्यता से धन, धनसे धर्म और धर्म से सुख प्राप्त करता है। 2. विद्या शस्त्र´्च शस्त्रा´्च  द्वे विद्ये प्रतिपत्तये।    आद्या हास्याय वृद्धत्वे द्वितीयाऽऽद्रियते सदा।। भाषानुवाद:- संसार में दो प्रकार की विद्याएँ प्रसिद्ध हैं - शस्त्रविद्या और शास्त्रविद्या। प्रथम शस्त्र विद्या बुढ़ापे में (सामथ्र्यहीन होने पर) हँसी कराती है जबकि दूसरी शास्त्र विद्या हमेशा आदर दिलाती है। 3. अजरामरवत्प्राज्ञो विद्यामर्थं च चिन्तयेजत्।    गृहीत इव केशेषु   मृत्युना धर्ममाचरेत्।। भाषानुवाद:- विद्वानों को चाहिए कि वह अपने अजर अमर जानकर विद्या और धन की चिन्ता करे एवं मौत ने बाल पकड़ लिया है ऐसा मानते हुए धर्म का आचरण करे। भाव है कि विद्या और धन संचय में यदि विलम्ब होता है तो हो परन्तु धर्माचरण में विलम्ब नहीं करना चाहिए। 4. अनेकसंशयोच्छेदि       परोक्षार्थस्य दर्शकम्।    सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्त्यन्ध एव सः।। भाषानुवाद:- अनेक सन्देहों को दू

‘‘पावन कर्मों का महापर्व माघीपूर्णिमा’’

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                                                          डाॅ0 धनंजय कुमार मिश्र,            भारतवर्ष विविधताओं और विभिन्नताओं का देश है। विविध परम्परा और सुसंस्कृत संस्कृति भारतवर्ष की पहचान है। प्राचीन आर्ष ग्रन्थ वर्तमान का मार्गदर्शन और भविष्य का निर्धारण करने में महती भूमिका का निर्वहण करते हैं। इन आर्ष ग्रन्थों में वेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत और पुराण अतीत से आज तक हमारे जीवन पथ को आलोकित कर रहे हैं। इन ग्रन्थ-रत्नों में कर्मों की प्रधानता के द्वारा जीवन जीने की प्रेरणा दी गई है। हमारे कर्म सात्विक, शुद्ध और सुन्दर हों जिससे समाज का  कल्याण और मानवता का उत्थान होता रहे। प्रकृति और पर्यावरण के बिना मानव समाज का अस्तित्व ही नहीं अतएव उनके संरक्षण का सूक्ष्म संदेश भी आर्षग्रन्थों में निहित है। किसी ने ठीक ही कहा है ‘‘समाजस्य हितम् शास्त्रेषु निहितम्’’- अर्थात् समाज का हित शास्त्रों में निहित है। शास्त्र हमारे ज्ञानचक्षु का उन्मीलन कर गुरू की भाँति  हितैषी हैं।         भारतीय शास्त्रों में  माघ मास को विशेष रूप सें रेखांकित किया गया है। भारतीय संवत्सर का ग्यारहवाँ चन्द्रमास और

कालिदास की उदात्त ‘अलका’

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डाॅ0 धनंजय कुमार मिश्र अध्यक्ष संस्कृत विभाग संताल परगना महाविद्यालय सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय, दुमका (झारखण्ड)             महाकवि कालिदास की गणना न केवल भारत के अपितु विश्व के श्रेष्ठ महाकवियों में की जाती है। इनकी रचनाओं में मेघदूतम् को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। संस्कृत के गीतिकाव्यों में इस रमणीय कृति को जो सम्मान मिला है, वह किसी अन्य को नहीं।        मेघदूतम् कालिदास की एक सशक्त रचना है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि यदि कालिदास की अन्य रचनाएँ न भी होती, केवल अकेला मेघदूतम् हीं होता तो भी उनकी कीत्र्ति में कोई अन्तर न पड़ता। संस्कृत साहित्य के गीतिकाव्यों में सर्वप्रथम इसकी ही गणना होती है। कालिदास की कल्पना की ऊँची उड़ान और परिपक्व कला का यह ऐसा नमूना है जिसकी टक्कर का विश्व में दूसरा नहीं। कल्पना की कमनीयता, भावों की स्पष्टता, व्यंजना की विदग्धता, छन्द की उपयुक्तता, अलंकारों की विविधता, रस की ग्राह्यता, प्रकृति-चित्रण की चारुता, भाषा की प्रांजलता आदि गुणों के कारण ‘‘मेघदूतम्’’ उत्कृष्टतम काव्य बन गया है।        121 श्लोकों में निबद्ध यह लघुकाय ग्रन्थ मन्दाक्र