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Showing posts from February, 2020

सांख्य दर्शन

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 सांख्य दर्शन भारत का सबसे प्राचीन और व्यापक दर्शन माना जाता है। इस दर्शन के बीज उपनिषदों मेें मिलते हैं। वाल्मीकि, व्यास, कालिदास आदि ने अपनी रचनाओं की आधार भूमि के रूप में इसी को अपनाया है। स्मृति तथा पौराणिक साहित्य इसी को आधार मानकर चलते हैं।    सांख्य-दर्शन के प्रर्वतक कपिल माने जाते हैं। सांख्य-दर्शन का आशय है सम्यक् ज्ञान। यह दर्शन मोक्ष-प्राप्ति के लिए जड़ और चेतन अर्थात् प्रकृति और पुरूष के भेद-ज्ञान पर जोड़ देता है। योग दर्शन इसका सहयोगी है। सांख्य का बल तŸव-ज्ञान पर है। सांख्य शब्द की व्युत्पŸिा संख्या से भी की जाती है। इसका अर्थ है - गणना। सांख्य दर्शन ने सबो पहले पच्चीस (25) तŸव गिनाकर विश्व के स्वरूप का प्रतिपादन किया।    सांख्य दर्शन वैदिक दर्शन है। यह वेद को प्रमाण मानता है। वेद को प्रामाण्य मानने के कारण यह आस्तिक दर्शन है। भारतीय षड् दर्शनों में आस्तिक दर्शन के रूप में सांख्य की गणना होती है जबकि यह दर्शन ईश्वर को नहीं मानता है। समस्त भारतीय दर्शन की भाँति इस दर्शन का लक्ष्य मुख्य रूप से दुःखों से छुटकारा है।    सांख्य दर्शन के प्रामाणिक ग्रन्थ के रूप में ईश्वरक

बौद्ध-दर्शन: एक सामान्य अध्ययन

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       ‘दर्शन’ शब्द की निष्पत्ति ‘दृश्’ धातु से हुई है। ‘दृश’ का अर्थ है देखना। अतः ‘‘दृश्यते अनेन इति दर्शनम्’’ अर्थात् जिसके द्वारा देखा जाए वही दर्शन है। यहाँ दर्शन से अभिप्राय ‘आत्म-दर्शन’ से ही है। दर्शन सम्पूर्ण विश्व और जीवन की व्याख्या तथा मूल्य निर्धारित करने का प्रयास है।       भारतीय दर्शन दुःख की आधारशिला पर प्रतिष्ठित है। समस्त दर्शन दुःख निवृति के उपायों की खोज में लगा हुआ है क्योंकि संसार में प्राणी - दैहिक, दैविक और भौतिक -  त्रिविधात्मक दुःखों से ग्रस्त है। मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृति होती है कि वह सुख की प्राप्ति करे। समस्त दर्शनों का लक्ष्य है कि किसी उपाय से सर्वोच्च सुख की प्राप्ति का उपाय बताये जो इस जगत् के दुःखों का आत्यन्तिक निवारण करने में समर्थ हो।       भारतीय दर्शन के सामान्यतः दो भेद हैं - आस्तिक दर्शन और नास्तिक दर्शन। वेदों की सत्ता को स्वीकार करने वाले तथा ईश्वर को मानने वाले आस्तिक दर्शन की श्रेणी में रखे गये हैं। जैसे - न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त। वेदों को प्रमाण न मानने के कारण, वेद विरोधी होने के कारण तथा ईश्वर को न मानने क

प्रतिभिज्ञा-दर्शन

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            ‘दर्शन’ शब्द की निष्पत्ति ‘दृश्’ धातु से हुई है। दृश् का अर्थ है - देखना। अतः ‘‘दृश्यते अनेन इति दर्शनम्।’’ अर्थात् जिसके द्वारा देखा जाय वही दर्शन है। यहाँ दर्शन से अभिप्राय आत्म-दर्शन से ही है क्योंकि दर्शन सम्पूर्ण विश्व और जीवन की व्याख्या तथा मूल्य निर्धारित करने का प्रयास है।          भारतीय आस्तिक दर्शनों में वैष्णव दर्शन और शैव दर्शन का अपना विशेष महत्त्व है। वैष्णव दर्शन में मुक्त पुरूष को ईश्वर का दास का रूप देते हैं। इसी बात पर शैव दर्शन का मत उनसे भिन्न हो जाता है। उनका कहना है कि मुक्त होने पर भी दासता रह ही गई तो मुक्ति का अर्थ ही क्या रहा? मुक्ति तो वह है जो सर्वोच्च पद पर पहुँचा दे। इसलिए माहेश्वर दर्शन में मुक्त को साक्षात् ईश्वर ही माना जाता है।               महेश्वर सम्प्रदाय में बहुत से आवान्तर भेद हैं। जैसे - पाशुपत, शैव, कालामुख, कापालिक आदि धार्मिक दृष्टिकोण से अलग-अलग हैं। दार्शनिक दृष्टिकोण से भी माहेश्वर सम्प्रदाय चार भेदों में बँटा हुआ है। पाशुपतदर्शन, शैवदर्शन, वीरशैवदर्शन और प्रत्यभिज्ञादर्शन। प्रत्यभिज्ञा दर्शन का प्रचार-प्रसार कश्मीर में

तर्कसंग्रह के नव द्रव्य

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1. पृथिवी:- तर्कसंग्रह के अनुसार  नौ द्रव्यों में प्रथम द्रव्य पृथि 2. जल:- तर्कसंग्रह के अनुसार  नौ द्रव्यों में द्वितीय द्रव्य जल है। यह मूर्त द्रव्य है। इसका लक्षण बताते हुए अन्नं भट्ट कहते हैं - ‘शीतस्पर्शवत्य आपः’। अर्थात् शीत स्पर्श का जो  समवायिकारण है, उसे जल कहते हैं। जिसका स्पर्श शीतल है उसे जल (आप) कहते हैं।  यह जल नित्य और अनित्य के भेद से दो प्रकार का होता है। नित्य जल परमाणुरूप होता है जबकि अनित्य जल कार्यरूप। शरीर, इन्द्रिय और विषय के भेद से अनित्य जल पुनः तीन प्रकार का होता है। जल का शरीर वरूणलोक में रहता है। जल का इन्द्रिय रस को ग्रहण करने वाला रसन है, जो जिह्वा के अग्रभाग में रहता है। जल का विषय नदी, समुद्र आदि होते हैं। 3. तेज:- तर्कसंग्रह के अनुसार  नौ द्रव्यों में तृतीय द्रव्य तेज है। यह मूर्त द्रव्य है। इसका लक्षण बताते हुए अन्नं भट्ट कहते हैं - ‘उष्णस्पर्शवतेजः’। अर्थात् जिस द्रव्य में  उष्ण स्पर्श रहता है, उसे तेज कहते हैं। यह तेज नित्य और अनित्य के भेद से दो प्रकार का होता है। नित्य तेज परमाणुरूप होता है जबकि अनित्य तेज कार्यरूप। शरीर, इन्द्रिय और विषय के

मीमांसा दर्शन

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               भारतीय षड् आस्तिक दर्शनों में महर्षि जैमिनि रचित मीमांसासूत्र  ‘‘मीमांसादर्शन’’  का आधार है। अतः इसे जैमिनी दर्शन भी कहते हैं। मीमांसा अनीश्वरवादी दर्शन है, किन्तु यह वेदों की नित्यता को स्वीकार करता है। यह दर्शन वेद-विश्वासी होने के कारण ही आस्तिक है। वेद और उसके वाक्य की नित्यता प्रतिपादन करना इस दर्शन का प्रमुख उद्देश्य है। इस दर्शन में मन्त्र की सŸाा सर्वोपरि मानी गई है। कर्म और कर्मफल के अतिरिक्त किसी बात को बताने में यह दर्शन एकदम मौन है। मीमांसा दर्शन के अनुसार कर्म और उसके प्रतिपादक वचनों के अतिरिक्त न तो कोई देवता है और न कोई ब्रह्म-सŸाा।            मीमांसक ‘शब्द’ को नित्य मानते हैं। वेदों की प्रामाणिकता पर विश्वास करते हैं। उनकी दृष्टि में वेद कल्पान्त में भी अविनश्वर हैं। मीमांसा दर्शन के सिद्धान्तों की आाधारभूमि श्रुति है। वैदिक साहित्य के कर्मकाण्ड के प्रतिनिधि ग्रन्थों की कर्मभावना को लेकर मीमांसादर्शन की रचना हुई।               मीमांसादर्शन दो भागों में विभक्त है - पूर्वमीमांसा और उŸारमीमांसा। पूर्वमीमांसा को यज्ञप्रधान दर्शन होने के कारण यज्ञविद्या, कर

योग ; सामान्य परिचय

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           भारतीय दर्शन में ‘षड् दर्शन’ की प्रसिद्धि जगत् में विख्यात् है। ‘दर्शन’ शब्द ‘दृश्’ धातु से बना है जिसका अर्थ है - देखना। परन्तु यहाँ दर्शन शब्द का अभिप्राय ‘‘रहस्य का साक्षात्कार’’ अथवा ‘‘निराकार प्रतीति’’ से है। दार्शनिक विचार-धाराओं की चर्चा में दर्शन शब्द ‘‘विश्व के रहस्य का साक्षात्कार’’ से सम्बन्धित है। संक्षेप में हम तŸव ज्ञान के साधन को दर्शन कह सकते हैं। भारतीय दर्शनों का विभाजन श्रुतिसापेक्ष (वैदिक) और श्रुतिनिरपेक्ष (अवैदिक) दर्शनों के रूप में किया जाता है। श्रुतिसापेक्ष या आस्तिक या वैदिक दर्शनों में सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त ये छः प्रमुख हैं। इन छः दर्शनों को युगल रूप में भी प्रस्तुत किया जाता है और उन्हें एक-दूसरे का पूरक बताया जाता है। इस रूप में सांख्य और योग, न्याय और वैशेषिक तथा मीमांसा और वेदान्त का युगल प्रसिद्ध है। सभी भारतीय दर्शन संसार को दुःखमय मानते हैं और उससे आत्यन्तिक निवृŸिा को जीवन का चरम लक्ष्य। इस दृष्टि से भारतीय दर्शन ‘‘मोक्ष-शास्त्र’’ भी हैं।            सांख्य दर्शन के प्रवर्तक आचार्य कपिल, योग के पतंजलि, न्याय क