प्रतिभिज्ञा-दर्शन




            ‘दर्शन’ शब्द की निष्पत्ति ‘दृश्’ धातु से हुई है। दृश् का अर्थ है - देखना। अतः ‘‘दृश्यते अनेन इति दर्शनम्।’’ अर्थात् जिसके द्वारा देखा जाय वही दर्शन है। यहाँ दर्शन से अभिप्राय आत्म-दर्शन से ही है क्योंकि दर्शन सम्पूर्ण विश्व और जीवन की व्याख्या तथा मूल्य निर्धारित करने का प्रयास है।
         भारतीय आस्तिक दर्शनों में वैष्णव दर्शन और शैव दर्शन का अपना विशेष महत्त्व है। वैष्णव दर्शन में मुक्त पुरूष को ईश्वर का दास का रूप देते हैं। इसी बात पर शैव दर्शन का मत उनसे भिन्न हो जाता है। उनका कहना है कि मुक्त होने पर भी दासता रह ही गई तो मुक्ति का अर्थ ही क्या रहा? मुक्ति तो वह है जो सर्वोच्च पद पर पहुँचा दे। इसलिए माहेश्वर दर्शन में मुक्त को साक्षात् ईश्वर ही माना जाता है।
              महेश्वर सम्प्रदाय में बहुत से आवान्तर भेद हैं। जैसे - पाशुपत, शैव, कालामुख, कापालिक आदि धार्मिक दृष्टिकोण से अलग-अलग हैं। दार्शनिक दृष्टिकोण से भी माहेश्वर सम्प्रदाय चार भेदों में बँटा हुआ है। पाशुपतदर्शन, शैवदर्शन, वीरशैवदर्शन और प्रत्यभिज्ञादर्शन। प्रत्यभिज्ञा दर्शन का प्रचार-प्रसार कश्मीर में हुआ इसलिए इसे काश्मीरीशैवसिद्धान्त भी कहते हैं। यही दर्शन त्रिक-दर्शन, स्पन्ददर्शन भी कहलाता है। प्रत्यभिज्ञादर्शन स्वातन्त्र्यवाद, ईश्वराद्वयवाद तथा शिवाद्वैत के नाम से भी विख्यात है।
             प्रत्यभिज्ञादर्शन छत्तीस (36) तत्त्वों को स्वीकारता है, जो शिवतत्त्व, विद्यातत्त्व और आत्मतत्त्व के रूप में विभक्त है। प्रत्यभिज्ञा दर्शन का आधारभूत सिद्धान्त प्रत्यभिज्ञा है। प्रत्यभिज्ञा का अर्थ है - पहचान। अपने विस्मृत स्वरूप को पहचान लेना और प्राप्त कर लेना। प्रत्यभिज्ञा मोक्ष साधन है और स्वयं मोक्ष रूप भी है। प्रत्यभिज्ञा पूर्वसंस्कार और वत्र्तमान इन्द्रिय संवेदन के तादात्म्यीकरण से उत्पन्न ज्ञान है। यह दर्शन ‘‘तत् त्वमसि’’ महावाक्य को प्रत्यभिज्ञा द्वारा प्रकाशित करता है।
            प्रत्यभिज्ञादर्शन का मूल स्रोत शैवागम या तन्त्र है। दार्शनिक दृष्टि से शिवसूत्र इस मत के आधार सूत्र हैं। आचार्य वसुगुप्त की स्पन्दकारिका, सोमानन्द की शिवदृष्टि, उत्पलदेव की प्रत्यभिज्ञाकारिका, अभिनवगुप्त की प्रत्यभिज्ञाविमर्शनी, परमार्थसार और तन्त्रालोक तथा क्षेमराज की शिवसूत्र विमर्शिनी और स्पन्दसन्दोह प्रत्यभिज्ञा दर्शन के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं।
             प्रत्यभिज्ञा दर्शन में शिव ही परमतत्त्व है जो परमात्मा, परमेश्वर, परमशिव, अनुत्तर आदि नामों से जाना जाता है। परमात्म तत्त्व होने के कारण शिव शुद्ध चैतन्य है। चैतन्य स्वरूप परमतत्त्व को शक्तिरूप मानना इस दर्शन की विशेषता है। शिव और शक्ति परस्पर अलग नहीं रह सकते। चन्द्र और चन्द्रिका के समान उनमें कोई अन्तर नहीं। शिव प्रकार रूप है और शक्ति विमर्श रूप।
             प्रत्यभिज्ञादर्शन की मान्यता है कि परमेश्वर की इच्छामात्र से संसार का निर्माण होता है। अपने संवेदन (अनुभव) के द्वारा अनुमान करने से और शैवागमों से सिद्धि होने वाली, प्रत्यक (सबों के ऊपर) आत्मा के साथ तादात्म्य (एकरूपता) होने पर नाना प्रकार के मान (ज्ञान) और मेय (ज्ञेय) आदि के भेदों और अभेदों को धारण करने वाला परमेश्वर हीं है। वह ऐसी स्वतन्त्रता धारण करता है जिसमें किसी दूसरे की मुखापेक्षिता नहीं रहती। वह अपनी आत्मा पर आकाशादि भावों को उसी प्रकार अवभासित (व्यक्त) करता है जिस प्रकार किसी दर्पण पर प्रतिबिम्ब पड़ता है। अर्थात् जिस प्रकार किसी दर्पण पर प्रतिबिम्ब पड़ता है उसी प्रकार परमेश्वर अपने हीं स्वरूप में सृष्टि, स्थिति, संहार आदि संसार की सभी क्रियाओं को व्यक्तकरता है क्योंकि चेतन-अचेतन सभी पदार्थ परमेश्वर के अन्तर्गत हीं हैं, कोई उससे पृथक् नहीं। यही अद्वैत तत्त्व है। इस दर्शन में ‘‘माया’’ को न मानकर सब पदार्थों का ईश्वर में ‘अवभास’ मानते हैं। इसलिए यह दर्शन वस्तुवादी प्रत्ययवाद कहलाता है।
          प्रत्यभिज्ञादर्शन के प्रतिपाद्य विषयों में मुख्यतः तत्त्वविचार - शिवतत्त्व, विमर्शशक्तितत्त्व, सदाशिवतत्त्व, ईश्वरतत्त्व, सद्विद्यातत्त्व, मायातत्त्व, पुरूषतत्त्व, प्रकृतितत्त्व, बुद्धितत्त्व, अहंकारतत्त्व, मनतत्त्व, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच तन्मात्राएँ, पञ्चभूत, व्युत्क्रमसृष्टि, जीवन्मुक्ति, ब्रह्म एवं माया के स्वरूप का विचार आदि किया गया है।
         निश्चितरूप से प्रत्यभिज्ञादर्शन शैवदर्शनों में अपने प्रतिपाद्य विषय की गम्भीरता के कारण महत्त्वपूर्ण एवं लोकप्रिय है।
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