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वैदिकवाङ्मये छन्दशास्त्रम् (वैदिक वाङमय में छन्दशास्त्र)

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                                                                        डाॅ0 धनंजय कुमार मिश्र                                                                                                                                   वैदिक वाङ्मय भारतीय मनीषा का संचित कोष है। इसके विविध विधाओं ने अखिल  विश्व के विद्वानों को अपनी ओर आकृष्ट किया है। इसमें प्रकृति की गोद में बैठे ऋषियों के उद्गार हैं , कर्मकाण्ड की पूर्ण आस्था है, काव्य की मधुर अभिव्यक्ति है , अनन्त में सूक्ष्म के अवधारण की जिज्ञासा है, तार्किक मेधा की गवेषणा है, तो विज्ञान के विविध पक्षों का उन्मीलन भी है। जहाँ वेदत्रयी, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् वैदिक वाङ्मय के बृहद् भण्डागार हैं वहीं वेदांग वेदार्थ को सरलता से समझने समझाने के लिए वेद भगवान् के अंगस्वरूप हैं। कहा भी गया है - ‘‘वेदः अङ्गयन्ते ज्ञायन्ते अमीभिः इति वेदाङ्गानि’’ अर्थात् जिससे वेदों के अर्थों को जाना जाता है, वे वेदांग कहलाते हैं। वेदांग वेदों के भाग नहीं हैं अपितु वे वेदों के स्वरूप के रक्षक हैं जो अर्थों को समझने-समझाने में सहायक होते हें। वेदांगों को जाने बिना व

शक्तिपीठों का रहस्य

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 अखिल विश्व की शक्ति का केंद्र शक्तिपीठ सनातन संस्कृति में सत्यं शिवम् सुन्दरम् का शाश्वत समन्वय है। इसके वैष्णव, शैव और शाक्त सम्प्रदाय अत्यन्त प्राचीन व सर्वथा प्रासंगिक है। तीनों सम्प्रदायों में शाक्त सम्प्रदाय प्रकृति रूपा है। प्रकृति अर्थात् नारी शक्ति। *यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:* जहां नारी शक्ति की पूजा होती है वहां देवत्व का वास होता है। शान्ति व समृद्धि रहती है।   अनेक पौराणिक कथाओं में शक्ति की अराधना का उपदेश किया गया है। श्री राम ने रावण विजय से पूर्व शक्ति की अराधना की थी। पांडवों ने भगवती की अराधना कर कौरवों पर विजय प्राप्ति का वरदान पाया था। प्रजापति दक्ष की कन्या सती और पर्वतराज हिमालय की बेटी पार्वती शक्ति स्वरूपा हैं। दुर्गा साक्षात् शक्ति हैं। नवरात्रि में शक्ति की पूजा होती है। अष्ट मातृकाएं, नव दुर्गा व दश विद्याएं सभी शक्ति स्वरूपा हैं।  पौराणिक कथाओं के अनुसार 51 शक्तिपीठ जागृत शक्तियां हैं। नवरात्रि में इन शक्तिपीठों का दर्शन मात्र मनोवांछित फल प्रदान करता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार 51 शक्ति के रूप में जिनका नाम मिलता है वे हैं - भुवनेशी, उ

भवान्यष्टक का पाठ खोलता है सिद्धि का मार्ग

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 *आदिगुरु शंकराचार्य कृत भवान्यष्टक का पाठ खोलता है सिद्धि का मार्ग* नवरात्रि में आदिगुरु शंकराचार्य कृत भवान्यष्टक माता रानी के सम्मुख विनम्र भाव से स्तुति करने से मां दुर्गा प्रसन्न होकर भक्तों को मनोवांछित फल प्रदान करती हैं। भक्तों को चाहिए कि वह माता के सम्मुख भवान्यष्टक स्तुति रुप में करें। भवान्यष्टक में आठ मंत्र हैं। इसमें कहा गया है कि हे माता! आपके अतिरिक्त मेरा कोई नहीं है। एकमात्र आप ही मेरी गति हैं। हे भवानि! मैं भवसागर में पड़ा हुआ, दु:खों से भयभीत, सांसारिक बंधनों में बंधा हूं, कोई पुण्य संचय नहीं किया है, सदैव कुलाचारहीन तथा कदाचारलीन रहने से अनाथ दरिद्र जरारोगयुक्त हूं। आप मेरी रक्षा करें। मंत्र इस प्रकार है - न तातो न माता न बन्धुर्न दाता  न पुत्रो न पुत्री न भृत्यो न भर्ता । न जाया न विद्या न वृत्तिर्ममैव गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥   भवाब्धावपारे महादुःखभीरुः पपात प्रकामी प्रलोभी प्रमत्तः ।  कुसंसारपाशप्रबद्धः सदाहं ।  गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि।।  न जानामि दानं न च ध्यानयोगं न जानामि तन्त्रं न च स्तोत्रमन्त्रम् ।  न जानामि पूजां न च न्यासयोगं ।  गतिस

दुर्गा सनातनी शक्ति

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  डॉ धनंजय कुमार मिश्र विभागाध्यक्ष संस्कृत एस के एम विश्वविद्यालय दुमका (झारखंड ) दुर्गा या आदिशक्ति भारतीय धर्म और आस्था की प्रमुख देवी हैं, जिन्हें जगदम्बा, नवदुर्गा, देवी, शक्ति, आद्या शक्ति, भगवती, माता रानी, जगज्जननी, परमेश्वरी, सुरेश्वरी, सती, साध्वी, भवानी,  परम सनातनी देवी आदि कई नामों से जाना जाता है। दुर्गा स्वयं प्रकृति है। जीवन का आधार है। भारतीय धर्म एवं दर्शन के तीनों मुख्य सम्प्रदायों के समन्वय की देवी दुर्गा हैं। शैव सम्प्रदाय की शिवा, वैष्णव सम्प्रदाय की वैष्णवी और शाक्त सम्प्रदाय की शक्ति का एकाकार रूप मां दुर्गा हैं।  शास्त्रों में भगवती दुर्गा को आदि शक्ति, परम भगवती, परब्रह्म परमेश्वरी कहा गया है। दुर्गा अंधकार व अज्ञानता रुपी राक्षसों से रक्षा करने वाली, ममतामयी, मोक्षदा   तथा कल्याणकारिणी हैं। शास्त्रीय मान्यता है कि शान्ति, समृद्धि तथा धर्म पर आघात करने वाली राक्षसी शक्तियों का दुर्गा देवी विनाश करतीं हैं। वेदों, उपनिषदों और पुराणों के अनुसार  समग्र ईश्वरीय तत्त्वों की एकात्मकता का अपर नाम आद्या शक्ति है। ब्राह्मी, माहेश्वरी, एन्द्री, वारुणी, वैष्णवी आदि देवी द

महाशक्ति दुर्गा ही परब्रह्म परमात्मा

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  डॉ धनंजय कुमार मिश्र विभागाध्यक्ष संस्कृत एस के एम यू दुमका  महाशक्ति दुर्गा ही परब्रह्म हैं, जो विविध रूपों में विभिन्न लीलाएं करती हैं। इन्हीं की शक्ति से ब्रह्मा विश्व की सृष्टि, विष्णु विश्व का पालन और शिव जगत् का संहार करने में सक्षम हैं। वस्तुत: यही आद्या शक्ति सृजन, पालन और संहार करने वाली हैं। यही परा शक्ति नवदुर्गा व दश महाविद्या हैं। इनके अतिरिक्त दूसरा कोई भी सनातन या अविनाशी तत्त्व नहीं है। भारतीय संस्कृति में सर्वव्यापी चेतनसत्ता अर्थात् अपने उपास्यकी उपासना मातृरूप से, पितृरूपक्षसे अथवा स्वामिरूप से करने की परम्परा है।  उपासना किसी भी रूप से की जा सकती है, किंतु वह होनी चाहिये भावपूर्ण।  इस लोक में सम्पूर्ण जीवों के लिये मातृभाव की महिमा विशेष है। व्यक्ति अपनी सर्वाधिक श्रद्धा स्वभावतः मां के चरणों में अर्पित करता है; क्योंकि माँ की गोद में ही सर्वप्रथम उसे लोक दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होता है। इस प्रकार माता ही सबकी आदिगुरु है और उसी की दया तथा अनुग्रह पर बालकों का ऐहिक एवं पारलौकिक कल्याण निर्भर करता है। इसीलिये 'मातृदेवो भव।' मंत्र से सर्वप्रथम स्थान माता को

त्रिविध कष्टों को दूर करता है माता रानी के प्रति भक्ति और समर्पण की भावना

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सनातन संस्कृति में सत्यं शिवम् सुन्दरम् का शाश्वत समन्वय है। इसके वैष्णव, शैव और शाक्त सम्प्रदाय अत्यन्त प्राचीन व सर्वथा प्रासंगिक है। तीनों सम्प्रदायों में शाक्त सम्प्रदाय प्रकृति रूपा है। प्रकृति अर्थात् नारी शक्ति। *यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:* जहां नारी शक्ति की पूजा होती है वहां देवत्व का वास होता है। शान्ति व समृद्धि रहती है।   अनेक पौराणिक कथाओं में शक्ति की अराधना का उपदेश किया गया है। श्री राम ने रावण विजय से पूर्व शक्ति की अराधना की थी। पांडवों ने भगवती की अराधना कर कौरवों पर विजय प्राप्ति का वरदान पाया था। प्रजापति दक्ष की कन्या सती और पर्वतराज हिमालय की बेटी पार्वती शक्ति स्वरूपा हैं। दुर्गा साक्षात् शक्ति हैं। नवरात्रि में शक्ति की पूजा होती है। अष्ट मातृकाएं, नव दुर्गा व दश विद्याएं सभी शक्ति स्वरूपा हैं।  पौराणिक कथाओं के अनुसार 51 शक्तिपीठ जागृत शक्तियां हैं। नवरात्रि में इन शक्तिपीठों का दर्शन मात्र मनोवांछित फल प्रदान करता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार 51 शक्ति के रूप में जिनका नाम मिलता है वे हैं - भुवनेशी, उमा, महिषमर्दिनी, श्रीसुन्दरी, विशालाक्षी

या देवी सर्वभूतेषु....

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शारदीय नवरात्रि में प्रायः हर मंदिरों, धर्म स्थानों, पांडालों में अत्यंत कर्ण प्रिय मंत्र  सुनाई पड़ता है जो  भक्ति भावना को उत्प्रेरित करता है। इन मंत्रों में एक काफी प्रचलित है - *या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।*  अर्थात् जो देवी समस्त जीवों में शक्ति रुप से स्थित है, उस देवी को नमस्कार है , नमस्कार है, नमस्कार है। यह मंत्र देवी सूक्त का है। मार्कण्डेय पुराण में नारी शक्ति को मानसिक , आत्मिक, यौगिक  आदि विभिन्न शक्ति के रूप में स्वीकार किया गया है। देवी सूक्त के अनुसार मूलतः इक्कीस शक्तियों का निवास संसार के समस्त जीवों में है। इन मंत्रों में इन्हीं नारी शक्तियों को बार-बार नमस्कार कर कृतज्ञता प्रकट किया जाता है। ये शक्तियां हैं - विष्णु माया, चेतना, बुद्धि, निद्रा, क्षुधा, छाया, शक्ति, तृष्णा, क्षान्ति, जाति, लज्जा, शान्ति, श्रद्धा, कान्ति, लक्ष्मी, वृत्ति, स्मृति, दया, तुष्टि, मातृ, भ्रान्ति और व्याप्ति।  भारतीय सनातन धर्म और दर्शन में सृष्टि रचना में माया को विष्णु की ही शक्ति स्वीकार किया गया है। भगवती दुर्गा ही माया शक्ति रूपिणी है

शारदीय नवरात्रि का है विशेष महत्त्व

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देवी भागवत के अनुसार  प्रत्येक वर्ष चार नवरात्रि होती हैं जिसमें भगवती दुर्गा की आराधना का विशेष महत्त्व है।  मुख्य रूप से दो नवरात्रि के बारे में प्रायः सभी जानते हैं वासन्तीय नवरात्रि ( चैत्र मास में ) और शारदीय नवरात्रि जो शरद् ऋतु के आश्विन् मास के शुक्ल पक्ष में होती है। इन दोनों नवरात्रि में माँ दुर्गा के नव रूपों में पूजा की जाती है। इसके अतिरिक्त दो नवरात्रि और होती है, जिन्हें गुप्त नवरात्रि कहा जाता है। वर्षा ऋतु में आषाढ मास के शुक्ल पक्ष मे और  शिशिर ऋतु में माघ मास के शुक्ल पक्ष में होती है।नवरात्रि में मुख्य रूप से दस महाविद्याओं की पूजा होती है। पूजा की विधि सभी नवरात्रि में समान होती है। अश्विन् शुक्ल पक्ष की प्रतिप्रदा से नवमी तक की नवरात्रि का विशेष महत्त्व होता है। इन नौ दिनों में मद्यमान, माँस-भक्षण आदि वर्जित माना गया है। सात्विक भावना से इन नौ दिनों में पवित्रता और शुद्धता का विशेष ध्यान रखा जाता है। पवित्र और उपवास में रहकर इन नौ दिनों में की गई हर तरह की साधनाएँ और मनकामनाएँ पूर्ण होती है। अपवित्रता से रोग और शोक उत्पन्न होते हैं। भारतीय सनातन संस्कृति में प्रत्

राक्षसी शक्तियों का विनाश करती है मां दुर्गा

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दुर्गा या आदिशक्ति भारतीय धर्म और आस्था की प्रमुख देवी हैं, जिन्हें जगदम्बा, नवदुर्गा, देवी, शक्ति, आद्या शक्ति, भगवती, माता रानी, जगज्जननी, परमेश्वरी, सुरेश्वरी, सती, साध्वी, भवानी,  परम सनातनी देवी आदि कई नामों से जाना जाता है। दुर्गा स्वयं प्रकृति है। जीवन का आधार है। भारतीय धर्म एवं दर्शन के तीनों मुख्य सम्प्रदायों के समन्वय की देवी दुर्गा हैं। शैव सम्प्रदाय की शिवा, वैष्णव सम्प्रदाय की वैष्णवी और शाक्त सम्प्रदाय की शक्ति का एकाकार रूप मां दुर्गा हैं।  शास्त्रों में भगवती दुर्गा को आदि शक्ति, परम भगवती, परब्रह्म परमेश्वरी कहा गया है। दुर्गा अंधकार व अज्ञानता रुपी राक्षसों से रक्षा करने वाली, ममतामयी, मोक्षदा   तथा कल्याणकारिणी हैं। शास्त्रीय मान्यता है कि शान्ति, समृद्धि तथा धर्म पर आघात करने वाली राक्षसी शक्तियों का दुर्गा देवी विनाश करतीं हैं। वेदों, उपनिषदों और पुराणों के अनुसार  समग्र ईश्वरीय तत्त्वों की एकात्मकता का अपर नाम आद्या शक्ति है। ब्राह्मी, माहेश्वरी, एन्द्री, वारुणी, वैष्णवी आदि देवी दुर्गा ही हैं।  सृजन, पालन और लय इनके गोद में खेलते हैं। सकारात्मक ऊर्जा की स्रोत स्

नभः स्पृशं दीप्तम्'

 भारतीय वायु सेना का आदर्श वाक्य *'नभः स्पृशं दीप्तम्',*  भारतीय वायुसेना आज 8 अक्टूबर 2023 को अपना 90 वां वायुसेना दिवस  मना रही है। भारतीय वायुसेना आज विश्व की चौथी सबसे बड़ी वायुसेना बन चुकी है। कभी सिर्फ पांच लोगों के साथ शुरू हुआ वायुसेना का सफर आज लाखों ऑफिसर और जवानों तक जा पहुंचा है। भारतीय वायुसेना ने आपदाओं के दौरान उल्लेखनीय कार्य क्षमता दिखाई है। वायुसेना जब से अस्तित्‍व में आई है तब से लेकर आज तक अपने ध्येय वाक्‍य 'नभः स्पृशं दीप्तम्' को सच करती आ रही है। यह आदर्श वाक्‍य को श्रीमद्भगवद्गीता के 11वें अध्याय से लिया गया है।  युद्ध से पहले जिस समय भगवान श्री कृष्‍ण ने अर्जुन को अपना विराट रूप दिखाया था, उस समय अर्जुन परेशान हो जाते हैं। विराट स्वरूप एक पल के लिए अर्जुन के मन में भय पैदा कर देता है। इसी समय बोले गए एक श्‍लोक 'नभ:स्‍पृशं दीप्‍तमनेकवर्ण व्‍यात्ताननं दीप्‍तविशालनेत्रम्, दृष्‍ट्वा हि त्‍वां प्रव्‍यथ‍ितान्‍तरात्‍मा धृतिं न विन्‍दामि शमं च विष्‍णो' से वायुसेना से अपना आदर्श वाक्य लिया हैं। इसका अर्थ है, ‘हे विष्णो, आकाश को स्पर्श करने वाले, द

संज्ञान सूक्त ऋग्वेद (10/191)

  1. संसमिद्युसे  वृषन्नग्ने विश्वान्यर्य आ। इळस्पदे समिध्यसे स नो वसुन्या भर || अनुवाद - कामनाओं की वर्षा करने वाले, हे ज्ञान स्वरूप परमात्मन् । तुम सबके स्वामी हो और प्राणियों को तुम यज्ञ के आपस में मिलाते हो। तुम यज्ञ के स्थान पर प्रकाशित होने दे। "तुम हमें ऐश्वर्यो को प्राप्त कराओ।। (2) संगच्छध्वं सं वदध्वं सं वै मनांसि जानताम् । देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते।। अनुवाद  - हे प्रजाजनो !तुम सब मिलकर चलो। मिलकर प्रेम से परस्पर बोलो। तुम्हारे मन समान ज्ञान वाले है।  जिस प्रकार तुमसे पहले होने वाले देवता अर्थात् विद्वान् पुरुष ज्ञान के युक्त रहते हुए अपने भाग को प्राप्त करते रहे हैं, उसी प्रकार तुम भी प्राप्त करो। (3)  समानो मन्त्र: समिति: समानी  समानं मन: सह चित्तमेषाम्।  समानं मन्त्रमभियन्त्रये वः  समानेन वो हविषा जुहोमि।। अनुवाद -  हम सब प्रजाजनों के विचार एक जैसे हों। शासन प्रजा का प्रतिनिधित्व करने वाली समिति वाली एक हो और इनके मन एक जैसे हों। हे प्रजाजनों ! मैं तुम्हारे विचारों को एक जैसा बनाता हूं और तुम्हारा एक समान हरव अर्थात् अन्न आदि से युक्त करता हूँ । 4. समानी व

अज्ञानता के अन्धकार में डूबती झारखण्ड की युवापीढ़ी

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  ____ भगवान बिरसा के जन्मदिन पर अस्तित्व में आये भारतवर्ष का 28वाँ प्रदेश झारखण्ड  विविधताओं का प्रदेश है। यह विभिन्नताओं का प्रान्त है। हर घड़ी हर पल नवीन जिजीविषा का राज्य है। भारत का शायद ही कोई प्रदेश इतना वैविध्यपूर्ण है जितना झारखण्ड। अपनी अपूर्व प्रतिभा से प्रतिभासित होता झारखण्ड वस्तुतः सर्वविध वैविध्यता का प्रदेश है। भारत का रूर है।       15 नवम्बर 2000 को अस्तित्व में आए इस प्रदेश का इतिहास अत्यन्त प्राचीन,  इसका भूगोल अद्भुत और इसकी संस्कृति अतिसमृद्ध है। महाभारत काल से लेकर आज तक अनेक आरोह-अवरोह का साक्षी रहा है यह। सदियों से इसकी गोद में विभिन्न जाति धर्मों के लोगों ने अपनी जीवनशैली और जीने की कला को विकसित किया है।        सम्प्रति झारखण्ड पाँच प्रमंडलों और चौबीस जिलों में विभक्त है। संताल परगना, कोल्हान, पलामु, उत्तरी छोटानागपुर और दक्षिणी छोटानागपुर इन पाँच प्रमण्डलों में न केवल क्षेत्रीय विविधता है अपितु भाषा, बोली, तीज-त्यौहार, आचार -विचार, रहन-सहन और धार्मिक परम्पराओं में भी व्यापक अन्तर है। यही अन्तर विकास के मापदण्ड पर भी दिखाई देता है। विकास का प्रथम पैमाना शिक्षा

शिक्षकों की सतत साधना का आग्रही शिक्षा नीति 2020

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  डॉ धनंजय कुमार मिश्र एस के एम यू दुमका -------- शिक्षा नीति 2020 अपने प्रारंभिक दौर में है। अनेक राज्यों ने भी अपने विश्वविद्यालयों में शिक्षा नीति को स्वीकार कर कार्य का श्रीगणेश कर दिया है। झारखण्ड सरकार ने भी अपने राज्य में आधी अधूरी तैयारी के साथ ही सही इस नई शिक्षा नीति पर काम करना शुरू कर ही दिया है। नई शिक्षा नीति जहां छात्रों की प्रतिभा को और अधिक निखार कर बेहतर बनाने के उपाय लेकर आई है, वहीं इसमें शिक्षकों के प्रशिक्षण की भी समुचित व्‍यवस्‍था की गई है जिससे शिक्षक  एक आदर्श के रूप में सामने आएं। समाज में पुनः उनकी स्वीकृति  हो और उनके द्वारा पढ़ाए गए छात्रों में भी अच्‍छे सामाजिक संस्‍‍कार देखने को मिले। किसी भी देश की शिक्षा नीति की सफलता अध्‍यापकों की योग्‍यता, कर्मठता और प्रशिक्षण पर निर्भर करती है। नई शिक्षा नीति में अध्‍यापकों के प्रशिक्षण की नई व्‍यवस्‍था करने की बात कही गई है। शिक्षक बनने के लिए बीएड के चार वर्षीय पाठ्यक्रम की संस्‍तुति है। अभी तक यह दो वर्ष का पाठ्यक्रम होता था। अब कक्षा बारहवीं के बाद चार  वर्षीय पाठ्यक्रम होगा। अखिल विश्‍व  में अच्‍छे शिक्षक इसी से

अभिव्यक्ति की आजादी में भाषाई शुचिता आवश्यक

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  डॉ धनंजय कुमार मिश्र विभागाध्यक्ष संस्कृत एस के एम यू दुमका ----- भारत अपनी आजादी के अमृत काल में विश्वपटल पर अमिट छाप छोड़ रहा है। विश्व की महाशक्तियां अपनी अदूरदर्शी भौतिकवादी दृष्टि के कारण आज अनेक समस्याओं से जूझ रही हैं और अपने अस्तित्व को बचाए रखना उनके समक्ष एक चुनौती बनी हुई है वहीं भारत अपनी आध्यात्मिकता, विश्वबन्धुत्व और उदारवादी दृष्टि के कारण कुशल नेतृत्व के साथ अखिल विश्व में उम्मीद की किरणें बिखेर रहा है।  अफगानिस्तान, यूक्रेन तथा सुडान से अपने नागरिकों को स्वदेश लाने में जहां अनेक देशों की कोशिश नाकाम रही वहीं भारत ने बड़ी कुशलता से अपने नागरिकों को स्वदेश वापसी कराया। इसमें भारतीय नेतृत्व की कुशलता के साथ ही अभिव्यक्ति की शुचिता भी महत्त्वपूर्ण रही। कम शब्दों में अपनी बात दुनियां को समझाना भारत के विदेश मंत्री सुब्रमण्यम जयशंकर की अद्भुत विशेषता है। मूलतः पारम्परिक नेता नहीं होने पर भी विदेश मंत्री अपनी शैक्षणिक और प्रशासनिक योग्यता से सफलतम विदेश मंत्री सिद्ध हो रहे हैं। अपने प्रधानमंत्री की इच्छा के अनुरूप भारत के वर्तमान विदेश मंत्री अपनी बात को स्पष्ट रूप से विश्व

महाशिवरात्रि

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  डाॅ.धनंजय कुमार मिश्र  अध्यक्ष, स्नातकोत्तर संस्कृत विभाग  सिदो कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय, दुमका dkmishraspcd@gmail.com ----------- भारतीय पौराणिक मान्यताओं के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और महेश त्रिदेव हैं । ब्रह्मा सृष्टि के उत्पत्तिकर्त्ता, विष्णु जगत् के पालनकर्त्ता और शिवशंकर महेश संसार के संहारकर्त्ता महाकाल हैं । उत्पत्ति, पालन और लय यही संसार की गति है। त्रिदेवों में भगवान शंकर को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। भगवान् ब्रह्मा जहाँ  स्रष्टा हैं , भगवान विष्णु संरक्षक तो भगवान शिव विनाशक की भूमिका निभाते हैं। त्रिदेव मिलकर प्रकृति के नियम का संकेत देते हैं कि जो उत्पन्न हुआ है, उसका विनाश भी होना तय है। कई पुराणों का मानना है कि भगवान् ब्रह्मा और भगवान् विष्णु साक्षात् शिव से उत्पन्न हुए हैं । कभी-कभी  शिवभक्तों के मन में सवाल उठता है कि भगवान् शिव ने कैसे जन्म लिया था? अर्थात् शिव की उत्पत्ति कैसे हुई? इसके उत्तर में शिव पुराण कहता है कि भगवान् शिव स्वयंभू हैं। अर्थात्  वह किसी शरीर से पैदा नहीं हुए हैं। जब कुछ नहीं था तो भगवान् शिव थे और सब कुछ नष्ट हो जाने के बाद भी उनका अस्ति

वायु और प्राण प्राचीन भारतीय दृष्टि एक अध्ययन

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  उत्तर तथा पश्चिम दिशा के मध्य कोण को वायव्य कहते है।इस दिशा का स्वामी या देवता वायुदेव है।वायु पञ्च होते है :- प्राण, अपान, समान, व्यान, और उदान।  हर एक मनुष्य के जीवन के लिए पाँचों वायु परम आवश्यकत होता है। पांचो का शरीर में रहने का स्थान अलग-अलग जगह पर होता है। हमारा शरीर जिस तत्व के कारण जीवित है, उसका नाम ‘प्राण’ है। शरीर में हाथ-पाँव आदि कर्मेन्द्रियां, नेत्र-श्रोत्र आदि ज्ञानेंद्रियाँ तथा अन्य सब अवयव-अंग इस प्राण से ही शक्ति पाकर समस्त कार्यों को करते है।  प्राण से ही भोजन का पाचन, रस, रक्त, माँस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य, रज, ओज आदि सभी धातुओं का निर्माण होता है तथा व्यर्थ पदार्थों का शरीर से बाहर निकलना, उठना, बैठना, चलना, बोलना, चिंतन-मनन-स्मरण-ध्यान आदि समस्त स्थूल व सूक्ष्म क्रियाएँ होती है।   प्राण की न्यूनता-निर्बलता होने पर शरीर के अवयव शिथिल व मृतप्राय हो जाते है। प्राण के बलवान होने पर समस्त शरीर के अवयवों में बल, पराक्रम आते है और पुरुषार्थ, साहस, उत्साह, धैर्य, आशा, प्रसन्नता, तप, क्षमा, आदि की प्रवृत्ति होती है।शरीर के बलवान व निरोग होने पर ही भौतिक व आध्यात्मिक ल