वैदिकवाङ्मये छन्दशास्त्रम् (वैदिक वाङमय में छन्दशास्त्र)


 

 


                                                                    डाॅ0 धनंजय कुमार मिश्र
                                                                                                                                 

वैदिक वाङ्मय भारतीय मनीषा का संचित कोष है। इसके विविध विधाओं ने अखिल  विश्व के विद्वानों को अपनी ओर आकृष्ट किया है। इसमें प्रकृति की गोद में बैठे ऋषियों के उद्गार हैं , कर्मकाण्ड की पूर्ण आस्था है, काव्य की मधुर अभिव्यक्ति है , अनन्त में सूक्ष्म के अवधारण की जिज्ञासा है, तार्किक मेधा की गवेषणा है, तो विज्ञान के विविध पक्षों का उन्मीलन भी है। जहाँ वेदत्रयी, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् वैदिक वाङ्मय के बृहद् भण्डागार हैं वहीं वेदांग वेदार्थ को सरलता से समझने समझाने के लिए वेद भगवान् के अंगस्वरूप हैं। कहा भी गया है - ‘‘वेदः अङ्गयन्ते ज्ञायन्ते अमीभिः इति वेदाङ्गानि’’ अर्थात् जिससे वेदों के अर्थों को जाना जाता है, वे वेदांग कहलाते हैं। वेदांग वेदों के भाग नहीं हैं अपितु वे वेदों के स्वरूप के रक्षक हैं जो अर्थों को समझने-समझाने में सहायक होते हें। वेदांगों को जाने बिना वेदों का अध्ययन अधूरा ही रहता है। शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छन्द और ज्योतिष् ये छः वेदांग कहे गए हैं -
‘‘शिक्षा कल्पोऽथ व्याकरणं निरूक्तं छन्दसा च यः।
ज्योतिषामयनं चैव वेदाङ्गानि षडैव तु।।’’
 आचार्य पाणिनी ने पाणिनीय शिक्षा में वेदों की पुरूष रूप में तथा वेदांगों को उसके विभिन्न अंगों के रूप में सुन्दर कल्पना की है -
‘‘छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते।
ज्योतिषामयनं चक्षुः निरूक्तं श्रोत्रमुच्यते।।
शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणंस्मृतम्
तस्मात्साङ्गमधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते।।

अर्थात्- वेद के पैर छन्द हैं, हाथ कल्प हैं, नेत्र ज्योतिष् है, कान निरूक्त है, नासिका शिक्षा है और मुख व्याकरण है। अंगों सहित वेदों का अध्ययन करके ही व्यक्ति ब्रह्म लोक में महिमा को प्राप्त होता है।
      चारों वेदों के मन्त्र प्रायः अनेक प्रकार के छन्दों में निबद्ध हैं तो उन छन्दों को पैर की उपमा क्यों दी गई है? यह जिज्ञासा स्वाभाविक है। इसका समाधान यह है कि जिस प्रकार मनुष्य आदि प्राणियों के शरीर में पैर जहां सारे शरीर के भार को थामे हुए रहते हैं और उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाने का कार्य करते हैं, उसी प्रकार अक्षरपरिणामात्मक अथवा मात्राक्षर-नियतात्मक वेदवाणी के आधारभूत गायत्री आदि छन्द भी प्रयोगकाल में वक्ताओं की वाणियों में व्यक्त होते रहते हैं। यही स्वर छन्दोयुक्त मन्त्रों का चलना और छन्द पर टिकना है। इसी कारण छन्दों को पादस्थानी उपमित किया गया है।
        प्रस्तुत पत्र में वेद पुरुष के पादस्वरूप पंचम अंग छन्द और वैदिक वाङ्मय में छन्दशास्त्र के विविध पक्षों पर विचार किया गया है, साथ ही वेदमन्त्रों के शुद्ध पाठ के लिए एवं अर्थावबोध के लिए छन्द की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है। प्रमुख वैदिक छन्दों गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप्, जगती आदि पर विस्तार से चर्चा की गई है।
       विदित है कि वैदिक वाङ्मय में छन्दः शास्त्र का विशिष्ट व महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह वेद का साक्षात् उपकारक है। षडंगों में अन्यतम है। वेदार्थ प्रासाद इसी पर प्रतिष्ठित हैं। यह स्वतन्त्र विद्या स्थान भी है। काव्य का तो यह प्राण स्वरूप ही है। छन्द ज्ञान के बिना नवीन काव्य-सर्जन असम्भव है तथा काव्यों में अप्रतिहत गति भी अशक्य है। युधिष्ठिर मीमांसक की यह उक्ति कि  ‘छन्दशास्त्र के सम्यक् ज्ञान के बिना वेद के सूक्ष्म अर्थ की प्रतीति असम्भव है’ युक्तियुक्त है।
           छन्दशास्त्र का प्राचीन नाम छन्दोविचिति है। इस नाम का अभिप्राय है कि वह ग्रन्थ जिसमें छन्दों का विशेष रूप से चयन (चिति, संग्रह) किया गया हो। इस शब्द का उल्लेख पाणिनि के गणपाठ 4/3/43 तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मिलता है - ‘‘शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरूक्तिश्छन्दोविचितिज्र्योतिषमिति चाङ्गानि।’’ (1/3) छन्दशास्त्र के लिए इसके अतिरिक्त कई और नाम का उल्लेख युधिष्ठिर मीमांसक अपने कालजयी ग्रन्थ वैदिक-छन्दोमीमांसा में भी करते हैं। यथा - छन्दोऽनुशासन, छन्दोविवृति, छन्दोमान, छन्दोभाषा, छन्दोविजिनी तथा छन्दोव्याख्यान आदि। आचार्य पिंगल के द्वारा निर्मित यह शास्त्र इतना प्रसिद्ध है कि सम्पूर्ण छन्दशास्त्र ही पिंगल के नाम से रूढ़ हो गया है। छन्दशास्त्र को विद्यास्थान कहते हुए वायुपुराण कहा गया है -
अंगानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा न्यायविस्तरः।
धर्मशास्त्रं पुराणं च विद्याश्चतुर्दश।। (61/78)
याज्ञवल्क्य स्मृति भी कहती है -
पुराणन्यायमीमांसाधर्मशास्त्राङ्गमिश्रिताः।
वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश।। (1/3)

छन्द शब्द का अर्थ:- संस्कृत वाङ्मय में छन्दः पद विविध अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। यथा - सूर्य, सूर्यरश्मि, सप्तधाम, अग्निप्रियातनू, वेदविशेष, गायत्री आदि पद्य, संहिता, वेद, इच्छा, अभिलाषा, आर्षग्रन्थ, अनियन्त्रित आचार ( स्वैर ) आदि। कोशग्रन्थों में छन्दः पद का अर्थ पद्य बताया गया है। लोक में भी यह प्रायः पद्य अर्थ में ही प्रसिद्ध है। परन्तु प्राचीन आर्षपरम्परा में गद्य भी छन्दोयुक्त माने जाते हैं। भरतमुनि अपने नाट्यशास्त्र में कहते हैं - छन्दोहीनो न शब्दोऽस्ति न छन्दः शब्दवर्जितम्। (14/45) इसी प्रकार निरूक्त के टीकाकार आचार्य दुर्ग निरूक्त की वृत्ति में कहते हैं - नाच्छन्दसि वागुच्चरति। (7/2) कात्यायनमुनि का कहना है कि ज्ञानी पुरूष के लिए सारा वाङ्मय छन्दोरूप है क्योंकि छन्द और पृच्छा के  बिना कोई शब्द प्रवृत्त नहीं होता - ‘‘छन्दोभूतमिदंसर्वंवाङ्मयंस्याद्विजानतः। नाच्छन्दसि न चापृष्टे शब्दश्चरति कश्चन।।’’ इस आलेख में छन्द से हमारा ध्येय वैदिक ग्रन्थों में प्रयुक्त पद्य अथवा गद्य के रचना विशेष के नियमों के विषय में है।
छन्द शब्द की व्युत्पत्ति:- आह्लादार्थक चैरादिक ‘चदि’ धातु से ‘चन्देरादेश्च छः’ (3/4/668) सूत्र से ‘असुन्’ प्रत्यय करके तथा चकार को छकारादेश करके छन्दः शब्द बनता है। अर्थ है- ‘छन्दयति  आह्लादयति चन्द्यतेऽनेन वा छन्दः’, अर्थात् जो मनुष्यों को प्रसन्न करे, उसका नाम छन्द है। अथवा छादनार्थक चैरादिक ‘छद्’ धातु से ‘असुन्’ प्रत्यय करके ‘पृषोदरादित्वात्’ नुमागम करके छन्दः पद बनता है। ‘‘छादयति मन्त्रप्रतिपाद्ययज्ञादीनीतिच्छन्दः ।’’ जो यज्ञादि की असुरादिकों के उपद्रवसे रक्षा करे, उसे छन्द कहते हैं। निरुक्तकार यास्क ने भी छन्द शब्द का ऐसा ही अर्थ बतलाया है- ‘मन्त्रा मननात्। छन्दांसि छादनात् (स्तोमः स्तवनात्) । यजुर्यजतेरित्यादि।’ (निरुक्त 7/3/12)  ‘मनन करने से त्राण करने वाले शब्दसमूह को मन्त्र कहते हैं। जिससे यज्ञादि छादित हों (रक्षित हों), उसे छन्द कहते हैं, (जिससे देवता की स्तुति की जाय, उसे स्तोम  कहते हैं)। जिससे यज्ञ किया जाय, उसे यजुः कहते हैं।’’ इस प्रकार व्युत्पत्ति की दृष्टि से इसके दो अर्थ हैं - एक तो आच्छादन और दूसरा आह्लादन।  ‘छदि संवरणे’ और ‘चदि आह्लादने’  धातु से इसकी उत्पत्ति  मानी जाती है। आच्छादन से आशय यह है कि छन्द के द्वारा रस, भाव तथा वण्र्यविषय को आच्छादित किया जाता है। जो विद्वान् छन्द की व्युत्पत्ति ‘चदि आह्लादने’ से मानते हैं, उनके अनुसार आह्लादन का अर्थ मनोरञ्जन होता है अर्थात् छन्द मानव-मन का मनोरञ्जन करते हैं। अतः छन्द वेदों के आवरण और मानव-मन के आह्लादन के साधन हैं।
छन्द का लक्षण:-  कात्यायन ने सर्वानुक्रमणी (12/6) में छन्द का लक्षण दिया है - ‘‘यदक्षरपरिमाणं तच्छन्दः’’ अर्थात्  जिसमें वर्णों या अक्षरों की संख्या निर्धारित होती है, उसे छन्द कहते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि वैदिक छन्दों का आधार अक्षर या वर्णों की संख्या है। अक्षरों की संख्या के आधार पर ही छन्दों के नाम रखे गए हैं। श्रुति में भी छन्द का यही अर्थ प्रतिपादित है।
                           ‘‘छन्दांसि गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्बृहतीपंक्तिस्त्रिष्टुब्जगत्यतिजगती शक्वर्यतिशक्वर्यष्ट्यत्यष्टिधृत्यतिधृतयः कृतिप्रकृत्याकृतिविकृति संकृत्यभित्युत्कृतयश्चतुर्विंशत्यक्षरादीनि चतुरुत्तराण्यूनाधिकेनैकेन निचृद्भूरिजौ द्वाभ्यां विराट् स्वराजावित्यादि।’’ (अनुक्रमणी अ०1/1)
‘‘ 24 अक्षरों का गायत्री, 28 का उष्णिक्,  32 का अनुष्टुप्,  36 का बृहती, 40 का पंक्ति, 44 का त्रिष्टुप्,  48 का जगती, 52 का अतिजगती, 56 का शक्वरी, 60 का अतिशक्वरी, 64 का अष्टि, 68 का अत्यष्टि, 72 का धृति, 76 का अतिधृति, 80 का कृति, 84 का प्रकृति, 88 का आकृति, 92 का विकृति, 96 का संकृति, 100 का अभिकृति और 104 अक्षरों का उत्कृति छन्द होता है। इस प्रकार 24 अक्षर से लेकर 104 अक्षर तक गायत्री आदि 21 छन्द होते हैं। इनमें प्रत्येक में एक अक्षर कम होने से ‘निचृत्’ विशेषण लगता है और एक अक्षर अधिक  होने से ‘भूरिज्’ विशेषण लगता है। दो अक्षर कम होने से  ‘विराट्’ विशेषण लगता है और दो अक्षर अधिक होने से ‘स्वराट्’ विशेषण लगता है। इस प्रकार उन पूर्वोक्त  छन्दों के अनेक भेद सर्वानुक्रमसूत्र, पिङ्गलसूत्रादि में वर्णित हैं।
छन्दशास्त्र की परम्परा:- ब्राह्मणग्रन्थों में छन्दों के उल्लेख के बाद शांखायन श्रौतसूत्र में सर्वप्रथम छन्दः शास्त्रीय चर्चा प्राप्त होती है। इस ग्रन्थ में गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्,  बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप् और जगती नाम से सात छन्दों का उल्लेख मिलता है। छन्दों के नाम से पूर्व त्रिपदा, पुरः, ककुभ्, विराट्, सतः, निचृत् और भुरिक् इत्यादि उपनामों के साथ किन्हीं छन्दों के पादों और वर्णों की गणना भी मिलती है। इसके बाद पातंजल निदानसूत्र, शौनकीय ऋक्प्रातिशाख्य तथा कात्यायनीय ऋक्सर्वानुक्रमणी में भी उक्त सातों छन्दों पर विचार किया गया है। कुछ छन्दः प्रवक्ताओं- ताण्डी, क्रौष्टुकि, यास्क, सैतव, काश्यप, शाकल्य, रात तथा माण्डव्य का नामोल्लेख पिङ्गलीय छन्दःसूत्र में मिलता है, किंतु उनके छन्दः शास्त्रीय ग्रन्थों का विवरण प्राप्त नहीं होता। विदित है कि छन्द वेदपुरुष के पैर  हैं। जिस प्रकार पाद (पैर)-से हीन मनुष्य लँगड़ा कहा जाता है, उसी प्रकार छन्दों से हीन वेदपुरुष लँगड़ा होता है। अतः वेद-मन्त्रों के उच्चारण के लिये छन्दों का ज्ञान आवश्यक है। छन्दों के ज्ञान के अभाव में मन्त्रों का उच्चारण और पाठ समुचितरूप से नहीं हो पाता। प्रत्येक सूक्त में देवता, ऋषि और छन्द का ज्ञान आवश्यक होता है। महर्षि कात्यायन का यह सुस्पष्ट मत है कि जो वेदपाठी अथवा याजक (यज्ञ करने वाला) छन्द, ऋषि और देवता के ज्ञान से हीन होकर मन्त्र का अध्ययन, अध्यापन या यजन करता है, उसका वह प्रत्येक कार्य निष्फल ही होता है। जैसा कि सर्वानुक्रमणी (1/1) में कहा गया है- ‘‘यो ह वा अविदितार्षेयच्छन्दोदैवतब्राह्मणेन मन्त्रेण याजयति वा अध्यापयति वा स्थाणुं वच्र्छति गर्ते वा पात्यते वा पापीयान् भवति।’’ वेदाङ्ग में उपयुक्त मुख्य छन्दों के नाम संहिता और ब्राह्मणग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। जिससे प्रतीत होता है कि इस अङ्ग की उत्पत्ति वैदिक युग में ही हुई। इस पाँचवें वेदाङ्ग का आधार-ग्रन्थ है पिङ्गलाचार्यकृत ‘‘छन्दःसूत्रम्’’ । इस महनीय ग्रन्थ ‘‘छन्दःसूत्रम्’’ के रचयिता आचार्य पिङ्गल हैं। यह ग्रन्थ सूत्ररूप में है और आठ अध्यायों में विभक्त है। प्रारम्भ से चैथे अध्याय के सातवें सूत्र तक वैदिक छन्दोंके लक्षण हैं। तदनन्तर लौकिक छन्दों का वर्णन है।
छन्दशास्त्र के प्राचीन विद्वान -  पिङ्गल ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ छन्दः सूत्र में अनेक छन्दः प्रवक्ताओं का उल्लेख किया है। निदानसूत्र तथा उपनिदानसूत्र में सात और चार छान्दस-आचार्यों के मतों का उल्लेख है। पिङ्गल से पूर्व छन्दः-शास्त्र विषयक कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ तो प्राप्त नहीं होता, किंतु पिङ्गल से पूर्व जिन चार आचार्यों ने अपने-अपने ग्रन्थ में छन्दों पर विचार किया है, उनके नाम हैं - भरत, पतञ्जलि, शौनक और कात्यायन। पिङ्गल ने अपने ग्रन्थ में जिन आठ छान्दस-आचार्यों का उल्लेख किया है, उनके छन्दोग्रन्थ तो प्राप्त नहीं होते, किंतु उनके नाम से एक-एक छन्द अवश्य मिलता हैं। जिनका विवरण अधोलिखित है -
1.    क्रौष्टुकिकृत छन्द-स्कन्धोग्रीवी ( छन्दःसूत्र 3/29)
2.    यास्ककृत छन्द-उरोबृहती (न्यङ्गुसारिणी) ( छन्दःसूत्र 3/30)
3.    ताण्डिकृत छन्द-सतोबृहती (महाबृहती)( छन्दःसूत्र 3/36)
4.    सैतवकृत छन्द-विपुलानुष्टुप् और उद्धर्षिणी( छन्दःसूत्र 5/18, 7/10)
5.    काश्यपकृत छन्द-सिंहोन्नता (वसन्ततिलका)( छन्दःसूत्र 7/9)
6.    शाकल्यकृत छन्द- मधुमाधवी (वसन्ततिलका)( छन्दःसूत्र 7/11)
7.    माण्डव्यकृत छन्द- चण्डवृष्टिप्रपात (दण्डक) ( छन्दःसूत्र 7/35)
8.    रातकृत छन्द-चण्डवृष्टिप्रपात (दण्डक) ( छन्दःसूत्र 7/36)
इनमें से यास्क, काश्यप, ताण्डी और माण्डव्य मूलछन्दः प्रवक्ता हैं और शेष हैं नामान्तरकर्ता। यास्क के छन्द उरोबृहती को क्रौष्टुकि स्कन्धोग्रीवी नाम देते हैं और पिङ्गल उसे न्यङ्कुसारिणी कहते हैं। ताण्डी के छन्द सतोबृहती को पिङ्गल ने महाबृहती नाम दिया है। काश्यप के छन्द सिंहोन्नता को शाकल्य ने मधुमाधवी नाम दिया है और पिङ्गलने उसे वसन्ततिलका कहा है। माण्डव्य रात से प्राचीन हैं। अतः चण्डवृष्टिप्रपात (दण्डक) माण्डव्य का है, रात का नहीं। छन्दः प्रवक्ता ऋषि नामान्तरकर्ता ऋषियों से प्राचीन हैं।
छन्दशास्त्रीय ग्रन्थ:- छन्दशास्त्र का प्रतिनिधि ग्रन्थ आचार्य पिंगल कृत छन्दः सूत्र है। वैसे वैदिक छन्दों से संबद्ध सामग्री प्राप्त होने वाले ग्रन्थ है - ऋप्रातिशाख्य (पटल 16 से 18), शांखायन श्रौतसूत्र (केवल 7/27 में),  सामवेद का निदानसूत्र, पिंगल-प्रणीत छन्दः सूत्र और कात्यायन-कृत दो छन्दोऽनुक्रमणियाँ। वैदिक छन्द वृत्तात्मक (वर्णवृत्त) हैं। वेदों में मात्रिक छन्दों का अभाव है । वैदिक छन्दों के प्रत्येक पाद में वर्णों की संख्या निर्धारित है। ऋक् प्रातिशाख्य के तीन पटलों (अध्यायों) में ऋग्वेद में प्रयुक्त छन्दों का विस्तृत विवेचन है। निदानसूत्र में छन्दों के नाम और लक्षण दिए हैं। इसमें छन्दों के अतिरिक्त सामवेद के अंग उक्थ, स्तोम, गान आदि का भी विवेचन है। कुछ प्राचीन लेखक इसे पतंजलि की रचना मानते हैं। पिंगल के छन्दःसूत्र के पूर्वभाग में वैदिक छन्दों का विवेचन है। उत्तरभाग में लौकिक छन्दों का विश्लेषण है। कात्यायन-कृत छन्दोऽनुक्रमणी में ऋग्वेद में प्रयुक्त छन्दों की नामावली है। उसकी ही कृति सर्वानुक्रमणी के प्रारम्भ के नौ अध्यायों में वैदिक छन्दों का विवेचन है।
     वैदिक छन्दों का विवरण तीन प्रकार के छन्दोग्रन्थों में प्राप्त होता है, उनमें से एक तो वे ग्रन्थ हैं, जो अन्य विषयों के साथ छन्दों के विषयों पर भी विवेचन प्रस्तुत करते हैं। ऐसे ग्रन्थों में निदानसूत्र, ऋक्प्रातिशाख्य और अग्निपुराण मुख्य हैं। दूसरे प्रकार के वे ग्रन्थ हैं, जो अनुक्रमणी-साहित्य के अन्तर्गत आते हैं, जिनमें शौनककृत छन्दोऽनुक्रमणी, कात्यायनकृत ऋक्सर्वानुक्रमणी, शुक्लयजुः- सर्वाऽनुक्रमसूत्र, बृहत्सर्वानुक्रमणी, माधवभट्टकृत ऋग्वेदानुक्रमणी और वेंकटमाधवकृत छन्दोऽनुक्रमी प्रमुख हैं, किंतु इनमें से केवल दो ग्रन्थों- कात्यायनी ऋक्सर्वानुक्रमणी और वेंकटमाधव की छन्दोऽनुक्रमणी में ही छन्दों के लक्षण मिलते हैं। तीसरे प्रकार के वे ग्रन्थ हैं, जो छन्दों के विषय पर स्वतन्त्र रूप से लिखे गये हैं, जिनमें छन्दःसूत्र, उपनिदानसूत्र, जयदेवछन्दः और श्रीकृष्णभट्टकृत वृत्तमुक्तावलि मुख्य हैं। अतः इनका सामान्य परिचय यहाँ प्रस्तुत है-
1.    निदानसूत्र:-  निदानसूत्रके रचयिता महर्षि पतञ्जलि हैं। इस ग्रन्थमें 10 प्रपाठक हैं और प्रत्येक प्रपाठक में 13, 13 खण्ड हैं। इसके प्रथम प्रपाठकके प्रथम सात खण्डों मे छन्दों का वर्णन प्राप्त होता है। प्रथम छः खण्डों में मूल 26 छन्दों के 143 भेद-प्रभेदों के लक्षण मिलते हैं और सप्तम खण्ड में यति-विषयक वर्णन है।
2.    ऋक्प्रातिशाख्य:-  ऋक्प्रातिशाख्य के रचयिता आचार्य शौनक है। इसमें 18 पटल हैं, जिनमें अन्तिम तीन 16 से 18 तक के पटलों में मूल 26 छन्दों के 188 भेद-प्रभेदोंक लक्षण प्राप्त होते हैं, जिनमें आचार्य शौनक के 64 स्वतन्त्र लक्षित छन्द हैं, शेष 124 छन्द निदानसूत्रमें लक्षित हो चुके हैं।
3.    ऋक्सर्वानुक्रमणी:- ऋक्सर्वानुक्रमणीके रचयिता आचार्य कात्यायन हैं। यह सूत्ररूप में निबद्ध है। इसमें 68 छन्दोभेदों के लक्षण मिलते हैं, जिनमें 9 छन्द कात्यायन के स्वतन्त्ररूप से लक्षित हैं, शेष 59 छन्द पूर्व रचनाओं में लक्षित हो चुके हैं।
4.    छन्दःसूत्र:-  छन्दः सूत्रके रचयिता महर्षि पिङ्गल हैं। यह सूत्रों में उपनिबद्ध है। इसमें 8 अध्याय हैं, जिनमें 329 सूत्र हैं। यह ग्रन्थ वैदिक तथा लौकिक छन्दों का विवेचन करता है। इसमें प्रथम से चतुर्थ अध्याय के सातवें सूत्र तक 119 वैदिक छन्दों के लक्षण मिलते हैं, जिनमें महर्षि पिङ्गल के स्वतन्त्ररूप से लक्षित 11 छन्द हैं। शेष 108 छन्द पूर्व-रचनाओं में लक्षित हो चुके हैं।
5.    उपनिदानसूत्र:- उपनिदानसूत्रके रचयिता अज्ञात हैं। ग्रन्थ के अन्तिम पद्यचतुष्टय के प्रथम पद्य में पिङ्गल के उल्लेख से इस रचना को छन्दः सूत्र से परवर्ती माना जाता है। इसमें 66 वैदिक छन्दोभेदों के लक्षण मिलते हैं, जिनमें उपनिदानकार के स्वतन्त्ररूप से लक्षित 2 छन्द हैं। शेष 64 छन्द पूर्वरचनाओं में लक्षित हो चुके हैं।
6.    अग्निपुराण:-  अग्निपुराण में 383 अध्याय हैं। इसमें पिङ्गल के उल्लेख से इस रचना को छन्दः सूत्र से परवर्ती माना जाता है। इसके 328वें अध्यायसे 335वें अध्याय तक 8 अध्यायों में छन्दोविवरण प्राप्त होता है, जिनमें से प्रथम तीन (328-330) अध्यायों में वैदिक छन्दोंका विवरण है, जिसमें अग्निपुराणकार के स्वतन्त्ररूप से लक्षित ४ छन्द हैं। शेष छन्द पूर्ववर्ती रचनाओं में लक्षित हो चुके हैं।
7.    जयदेवछन्दः:- जयदेवछन्दः के रचयिता जयदेव हैं। इसमें 8 अध्याय हैं, जिनमेंसे द्वितीय और तृतीय अध्याय में वैदिक छन्दोंका विवेचन है, जिसमें जयदेवके 13 स्वतन्त्र लक्षित छन्द हैं। शेष छन्द पूर्ववर्ती छन्दोग्रन्थों में लक्षित हो चुके हैं।
8.    छन्दोऽनुक्रमणी:-  छन्दोऽनुक्रमणी के रचयिता वेंकटमाधव हैं। इन्होंने ऋग्वेद संहिता पर भाष्य लिखा है। इस भाष्य में वैदिक छन्दों का जो उल्लेख किया है, उसे ही ‘‘छन्दोऽनुक्रमणी’’ कहते हैं। इसमें 58 छन्दो भेदों के लक्षण मिलते हैं, जिनमें इनका कोई भी स्वतन्त्रलक्षित छन्द नहीं है। समस्त छन्द पूर्व-रचनाओं में लक्षित हो चुके हैं।
9.    वृत्तमुक्तावलि:- वृत्तमुक्तावलि के रचयिता श्रीकृष्णभट्ट हैं। इस रचना में तीन गुम्फ हैं। प्रथम गुम्फ में 205 वैदिक छन्दोभेदों का विवेचन है, जिसमें इनके स्वतन्वरूप से लक्षित चार छन्द हैं। शेष छन्द पूर्ववर्ती रचनाओं में लक्षित हो चुके हैं।
      इस प्रकार महर्षि पतञ्जलि की छन्दोरचना निदानसूत्र से लेकर श्रीकृष्णभट्ट की छन्दोरचना वृत्तमुक्तावलि तक नौ छन्दोऽनुशासन-ग्रन्थों में ऋग्वेदके 13, यजुर्वेद के 8 और अथर्ववेद के 5 - इस प्रकार कुल 26 वैदिक मूलछन्दों के लक्षणों के साथ, उनके 224 भेद-प्रभेदों का लक्षण सहित विवेचन प्राप्त होता है।
वैदिक छन्दों की संख्या:- वेदों में 26 छन्द प्राप्त होते हैं, जिनमें ऋग्वेद के 13 छन्द, यजुर्वेद के 8 और अथर्ववेद में 5 छन्द हैं। इसके अतिरक्त सामवेद और अथर्ववेद में ऋग्वेद ओर यजुर्वेद में ही प्रयुक्त छन्द मिलते हैं। वैसे भेदोपभेद से कुल 261 छन्द वेदों में प्राप्त होते हैं।
वैदिक छन्दों के मुख्य भेद - वैदिक छन्दों के मुख्य भेदों के विषय में ऐकमत्य नहीं है, परंतु समस्त वैदिक छन्दों की संख्या 26 है। इनमें प्राथमिक 5 छन्द वेद में अप्रयुक्त हैं तथापि अथर्व वेद में मिलते हैं। उनको छोड़कर अवशिष्ट छन्दों को हम तीन सप्तकों में  बाँट सकते हैं। प्रयुक्त छन्दों में गायत्री प्रथम छन्द है, जिसमें 24 अक्षर होते हैं। अतः प्रथम सप्तक गायत्री से प्रारम्भ होता है।  इसके पूर्व के पाँच छन्द गायत्री पूर्वपंचक के नामसे विख्यात हैं। उनके नाम हैं- (1) मा (अक्षर सं० 4), (2) प्रमा (अ० सं० 8), (3) प्रतिमा (अ० 12), (4) उपमा (अ० सं० 16) (5) समा (अ० सं0 20)- ये नाम ऋक् प्रातिशाख्यके अनुसार हैं। अन्य ग्रन्थोंमें इनसे भिन्न नाम हैं, जैसे- भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में उनके क्रमानुसार नाम ये हैं-उक्ता, अत्युक्ता, मध्या, प्रतिष्ठा और सुप्रतिष्ठा।
1.     प्रथम सप्तक के सात छन्दों के नाम हैं-गायत्री (24 अक्षर), उष्णिक् (28 अक्षर), अनुष्टुप् (32 अक्षर), बृहती (36 अक्षर), पंक्ति (40 अक्षर), त्रिष्टुप् (44 अक्षर) और जगती (48 अक्षर)। इस प्रकार संक्षेपमें वैदिक छन्दोंका विवरण उपस्थित किया गया है।
2.    द्वितीय सप्तक के सात छन्दों के नाम हैं- अतिजगती (52 अक्षर), शक्वरी ( 56 अक्षर), अतिशक्वरी (60 अक्षर), अष्टि (64 अक्षर), अत्यष्टि (68 अक्षर), धृति (70 वर्ण व्यूह से 72 अक्षर) और अतिधृति (76 अक्षर)।
3.    तृतीय सप्तक के सात छन्दों के नाम हैं- कृति (80 अक्षर), प्रकृति ( 84 अक्षर), आकृति (88 अक्षर), विकृति (92 अक्षर), संकृति (96 अक्षर), अभिकृति (100 अक्षर) और उत्कृति ( 104अक्षर)।
ऋग्वेद में छन्दोविधान:-  यद्यपि संख्यात्मक रूप से देखा जाय तो ऋग्वेद में 20 छन्दों का प्रयोग हुआ है परन्तु इनमें से केवल 7 छन्द ही मुख्यरूप से प्रयुक्त हैं। ऋग्वेद में कुल मंत्र 10472 हैं, जिनमें से उक्त सात छन्दों में 10171 मंत्र हैं। शेष 13 छन्दों में कुल 301 मंत्र हैं। मुख्य सात छन्दों में भी केवल चार छन्द ही प्रमुख हैं - त्रिष्टुप्, गायत्री, जगती और अनुष्टुप् । इनमें ही ऋग्वेद के लगभग 90 प्रतिशत मंत्र हैं।  मंत्रसंख्या की दृष्टि से इनका क्रम इस प्रकार यह है -
1.    त्रिष्टुप् ( 4251 मंत्र),
2.    गायत्री ( 2449 मंत्र)
3.    जगती (1346 मंत्र),
4.    अनुष्टुप् (858 मंत्र),
5.    पंक्ति ( 498 मंत्र),
6.    उष्णिक् (398 मंत्र),
7.    बृहती (371 मंत्र) ।
ऋग्वेद के छन्द:- आचार्य शौनक के मतानुसार ऋग्वेद में गायत्री से अतिधृति तक 14 छन्दों का प्रयोग मिलता है, किन्तु ऋग्वेद में किये गये अन्वेषण से ज्ञात हुआ है कि उसमें गायत्री से धृति तक 13 छन्दों का ही प्रयोग है। अतिधृति छन्द की अक्षर-गणना तो ऋग्वेद के किसी भी मन्त्र में प्राप्त नहीं होती। समस्त ऋग्वेदमें केवल एक मन्त्र में ही अतिधृति छन्द माना जाता है और वह है ऋग्वेद के प्रथम मण्डल का सूक्त 127 वें का छठा मन्त्र। इसी मन्त्र में शौनक, कात्यायन और वेंकटमाधव ने अतिधृति छन्द माना है, किंतु इसमें अतिधृति छन्द की वर्ण-संख्या 76 प्राप्त नहीं होती, अपितु 68 वर्ण मिलते हैं, जो व्यूहद्वारा भी 76 रूप में संगत नहीं होते। एक या दो अक्षरों से न्यून छन्द को वर्णपूर्ति तो व्यूहद्वारा संगत मानी जाती है, किंतु छह वर्णां की कमी को व्यूहद्वारा पूरा करना सर्वथा असंगत ही है। अतः ऋग्वेद में निम्नलिखित 13 छन्द प्राप्त होते हैं-
1.    गायत्री 24 वर्ण, (ऋग्वेद 1/1/1)
2.    उष्णिक् 28 वर्ण, (ऋग्वेद 1/92/16)
3.    अनुष्टुप् 32 वर्ण, (ऋग्वेद 1/10/7)
4.    बृहती 36 वर्ण, (ऋग्वेद 1/36/7)
5.    पंक्ति 40वर्ण, (ऋग्वेद 9/113/4)
6.    त्रिष्टुप् 44वर्ण, (ऋग्वेद 1/24/1)
7.    जगती 48 वर्ण, (ऋग्वेद 9/84/4)
8.    अतिजगती 52 वर्ण, (ऋग्वेद 4/1/2)
9.    शक्वरी 56वर्ण, (ऋग्वेद 8/36/1)
10.    अतिशक्वरी 60वर्ण, (ऋग्वेद 1/137/1 )
11.    अष्टि 64 वर्ण, (ऋग्वेद 1/127/1)
12.    अत्यष्टि 68 वर्ण, (ऋग्वेद 1/127/6)
13.    धृति 70 वर्ण, व्यूह से 72, (ऋग्वेद 1/133/6)
यजुर्वेद के 8 छन्द:- पद्य के अतिरिक्त गद्य भी प्राचीन आर्ष परम्परा के अनुसार छन्दोबद्ध माने जाते हैं, क्योंकि बिना छन्दके वाणी उच्चरित नहीं होती। छन्द से रहित कोई शब्द भी नहीं होता और शब्द से रहित कोई छन्द भी नहीं होता - ‘‘छन्दोहीनो न शब्दोऽस्ति न छन्दः शब्दवर्जितम्’’  (नाट्यशास्त्रम् 15/40)। सम्पूर्ण वाङ्मय छन्दोयुक्त है और छन्द के बिना कुछ भी नहीं है, जिससे स्पष्ट होता है कि गद्य भी छन्दोबद्ध होते हैं। अतः याजुषगद्य के मन्त्र भी छन्दोबद्ध हैं। यही कारण है कि पतञ्जलि, शौनक और कात्यायन आदि आचार्योंने एक अक्षर से 104 अक्षर तक के छन्दों के विधान अपने अपने ग्रन्थों में किया है, जिनमें से गायत्री से धृति तक 13 छन्द ऋग्वेद में प्राप्त हैं और अतिधृति से उत्कृति पर्यन्त 8 छन्दों के उदाहरण यजुर्वेद में मिलते हैं, जिनका विवरण निम्नाङ्कित है -
1.    अतिधृति 76 वर्ण, (यजु० 22/5)
2.    कृति 80 वर्ण, (यजु० 9/32)
3.    प्रकृति 84 वर्ण, (यजु० 15/16)
4.    आकृति 88 वर्ण, (यजु० 15/64)
5.    विकृति 92 वर्ण, (यजु० 15/15)
6.    संकृति 96 वर्ण, (यजु० 24/1-2)
7.    अभिकृति 100 वर्ण, (यजु० 26/1)
8.    उत्कृति 104 वर्ण, (यजु० 15/58)
अथर्ववेद के 5 छन्द:-
1.    उक्ता 4 वर्ण, (अथर्व० 2/129/8)
2.    अत्युक्ता 8 वर्ण, (अथर्व० 2/129/1)
3.    मध्या 12 वर्ण, (अथर्व० 20/129/13)
4.    प्रतिष्ठा 16 वर्ण, (अथर्व० 20/131/5)
5.    सुप्रतिष्ठा 20 वर्ण, (अथर्व० 20/134/2)
इनके अतिरिक्त सामवेद और अथर्ववेद में ऋग्वेद और यजुर्वेद में प्रयुक्त छन्दों का ही प्रयोग मिलता है, जिनके 261 भेद-प्रभेद हैं।
छन्दों का महत्त्व:- छन्दों के महत्त्व के कई कारण हैं।  छन्द हृदय के कोमल भावों की अभिव्यक्ति का मनोरम साधन है। यह विस्तृत भावों एवं विचारों को संक्षेप में सुसंबद्ध रूप से कथन की एक सुन्दर विधा है । शब्दावली में माधुर्य आता है, साथ ही संगीतात्मक होने से हृदयाह्लादक होता है। छन्द विचारों को क्रमबद्धता देता है जिससे सरलता से स्मरणीय होता है । छन्दों में नैसर्गिक सुषमा है, अतः देवाराधन के लिए छन्दोमयी वाणी प्रस्तुत की गई है। वैदिक वाणी छन्दोमय है, अतः छन्दज्ञान के लिए शिक्षाग्रन्थों आदि में बहुत बल दिया है। इसीलिए कहा गया है कि देवता-छन्द आदि के ज्ञान के बिना न अध्यापन करना चाहिए और न जप करना चाहिए ।
                 अविदित्वा ऋषिं छन्दो      दैवतं योगमेव च ।
योऽध्यापयेद् जपेद् वापि पापीयान् जायते तु सः ।।

    यही भाव कात्यायन की सर्वानुक्रमणी (1/1) में भी प्रकट किया गया है। पाणिनीय शिक्षा (श्लोक 41) में कहा गया है कि छन्द वेदपुरुष के पैर हैं, ‘‘छन्दः पादौ तु वेदस्य’’। जिस प्रकार पैर शरीर को स्थिरता प्रदान करते हैं, उसी प्रकार छन्द साहित्य को स्थिरता प्रदान करते हैं।
छन्दोविषयक ज्ञातव्य बातें
1.    वैदिक छन्दों में प्रत्येक पाद में वर्णों की संख्या गिनी जाती है। इसी के आधार पर छन्दों में भेद किया जाता है।
2.    एक चरण को:पाद’ कहते हैं। एक पाद में कम से कम 5 वर्ण होते हैं, प्रचलित गायत्री आदि छन्दों में प्रत्येक पाद में 8, 11 या 12 वर्ण होते हैं।
3.    प्रत्येक छन्द में गति (या लय) होती है।
4.    वेद के छन्दों में प्रायः प्रत्येक पद के अन्तिम 4 या 5 वर्णों में नियमित क्रम पाया जाता है। अन्य वर्णों में निश्चित क्रम नहीं पाया जाता है।
5.     11और 12 वर्णों वाले त्रिष्टुप् और जगती छन्दों में 4 या 5 वर्णों के बाद यति (स्वल्पविराम) होती है। 5 या 8 वर्णों वाले छन्दों में इस प्रकार की यति नहीं होती है।
6.    ऋग्वेद में अधिकांश 20 अक्षरों (5 х 4 = 20) वाले छन्दों से लेकर 48 अक्षरों (12 х 4 = 48) वाले छन्द हें।  कुछ छन्द 68, 72 और 76 अक्षरों वाले भी है, परन्तु इसकी संख्या बहुत कम है।
छन्दोविषयक कुछ सामान्य नियम
1.    पद के अन्त के साथ शब्द का भी अन्त होता है।
2.    हªस्व (लघु) स्वर के बाद संयुक्त वर्ण होंगे तो पूर्ववर्ती लघु स्वर को गुरु (दीर्घ, द्विमात्रिक) माना जाता है। च्छ् और ल्ह् को संयुक्त वर्ण माना जाता है ।
3.    बाद में कोई स्वर हो तो पूर्ववर्ती दीर्घ स्वर को हªस्व कर दिया जाता है। बाद में आ होने पर पूर्वर्ती ए ओ को हªस्व ए ओ पढ़ा जाता है। प्रगृह्य ई ऊ ए दीर्घ ही रहते है। तस्मै अदात् = तस्मा अदात् में मा का आ दीर्घ ही रहता है।
4.    शब्द के अन्तर्गत और संधि-स्थानों में प्राप्त य् व् को आवश्यकतानुसार क्रमशः इ उ पढ़ा जाता है। जैसे, स्वर को सुअर्, व्युषाः को वि उषाः ।
5.     एकादेश (दीर्घ या गुणसंधि) हुए स्वरों (विशेष रूप से ई और ऊ) को उच्चारण के समय आवश्यकतानुसार एकादेश से पूर्व की स्थिति में पढ़ा जाता है। जैसे - चाग्नये को च अग्नये, वीन्द्रः को वि इन्द्रः, एन्द्र को आ इन्द्र ।
6.    ए और ओ के बाद पूर्वरूप हुए अ (अवग्रह चिह्न ऽ) को आवश्कतानुसार फिर अ पढ़ा जाता है। जैसे - नोऽव को नो अव ।
कतिपय मुख्य छन्द
1.     गायत्री (24 वर्ण 8, 8। 8।) -  इसमें आठ वर्णों वाले तीन पाद होते हैं । दो पाद के बाद विराम होता है, 8, 8। 8।  गायत्री में 24 वर्ण होते हैं। इसमें सामान्यतया आठ वर्णों में से पंचम और सप्तम वर्ण लघु (। ) होते हैं। षष्ठ गुरु तथा अष्टम लघु या गुरु (ऽ) । लघु गुरु के लिए क्रमशः ये संकेत हैं  - ।,ऽ
यथा - ‘‘अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्।
        होतारं रत्नधातमम्।। (ऋ0 1/1/1)
2.    उष्णिक् (उष्णिह्) (28 वर्ण, 8,8 । 12) इसमें 28 अक्षर होते हैं। इसमें तीन पाद होते हैं। दो पादों  में आठ आठ वर्ण जबकि एक में बारह वर्ण होते हैं। दो पाद के बाद विराम होता है। बढ़े हुए अक्षर के अनुसार इसके कई भेद हैं। जैसे -
(क) उष्णिक् - 8, 8 । 12 जैसे ऋ0 1/79/ 4-6
(ख) पुर उष्णिक् 12, 8 । 8 जैसे ऋ0 7/66/16
(ग) ककुभ् उष्णिक् 8, 12। 8 जैसे ऋ0 5/53/5
3.    अनुष्टुप् (अनुष्टुभ्) (32 अक्षर, 8,8 । 8,8) - इसमें 8 अक्षर वाले 4 पाद होते हैं। दो पाद से पूर्वार्ध होता है और अन्तिम दो पाद से उत्तरार्ध । सामान्यतया प्रथम और तृतीय पाद में 2,4,6 और 7 वर्ण गुरु होते हैं, शेष लघु या गुरु। द्वितीय और चतुर्थ पाद में 2,4,6 गुरु, 5,7 लघु, शेष लघु या गुरु।
यथा - ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
       ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।। (ऋ0 10/90/12)
4.    बृहती (36 अक्षर, 8,8 । 12,.8) इसमें चार पादों में कुल 36 अक्षर होते हैं, किसी पाद में 8 और किसी में 12 । किस पाद में 12 अक्षर होंगे, इस आधार पर इसके कई भेद हैं। जैसे- (क) पुरस्ताद बृहती - 12, 8,   8, 8. यथा - (ऋ० 10/93/15) (ख) पथ्या बृहती - 8, 8,   12, 8 यथा - (ऋ0 8/8/1) (ग) उपरिष्टाद् बृहती - 8, 8,   8, 12 यथा - ऋ0 1/91/17
5.    पंक्ति (40 अक्षर, 8, 8,। 8, 8, 8) - इसमें चार या पाँच पाद होते हैं। कुल चालीस अक्षर होते हैं। दो पाद के बाद विराम होता है। विभिन्न पादों में अक्षरों की संख्या के भेद से इसके कई भेद हैं। जैसे-
(क) पंक्ति (पथ्या पंक्ति) 8,8 । 8,8,8, (ऋ01/81/1-9)
(ख) विराट् पंक्ति 10, 10 । 10, 10 (ऋ0 8/96/4)
(ग) सतोबृहती पंक्ति 12, 8 । 12, 8 (ऋ0 1/36/18)
(घ) विपरीता पंक्ति 8, 12 ।  8, 12 (ऋ0 8/46/12)
(ङ) प्रस्तार पंक्ति 12, 12 । 8, 8. (ऋ० 10/93/6-8)  
(च) विष्ठार पंक्ति 8, 12 । 12, 8 (ऋ0 10/140/1-2)
6.    त्रिष्टुप् (त्रिष्टुभ्) (44 अक्षर, 11, 11, । 11, 11)  इसमें 44 अक्षर होते हैं और 11 अक्षर वाले 4 पाद होते हैं। 4 या 5 अक्षर के बाद यति होती है। दो पाद के बाद पूर्वार्ध और शेष दो पाद के बाद उत्तरार्ध पूर्ण होता है। ऋग्वेद में यह सबसे अधिक मंत्रों (4251) में प्रयुक्त हुआ है। इसमें प्रथम विराम 4 या 5 पर, दूसरा सात पर और तीसरा 11वें अक्षर पर ।
यथा - समानो मन्त्रः समितिः समानी
            समानं मनः सह चित्तमेषाम्।
       समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः
            समानेन वो हिवषा जुहोमि।। (ऋ0 10/191/3)
7.    जगती (48 अक्षर, 12, 12 । 12, 12) इसमें 48 अक्षर होते हैं और 12 अक्षर वाले 4 पाद होते हैं। 2 पाद के बाद पूर्वार्ध और पाद 4 के बाद उत्तरार्ध पूर्ण होता है। ऋग्वेद में प्रचलन को दृष्टि से यह तीसरे नम्बर पर है। ऋग्वेद में 1346 मंत्रों में जगती छन्द का प्रयोग है। त्रिष्टुप् में ही एक अक्षर और जोड़ देने से 11 के स्थान पर 12 अक्षर का वह छन्द हो गया है। इसमें भी 4 या 5 पर प्रथम यति (विराम), 7 पर द्वितीय और 12 पर तृतीय विराम होता है। यथा -
     अहं सोममाहनसं विभम्र्यहं
                       त्वष्टारमुत पूषणं भगम्।
     अहं दधामि द्रविणं हविष्मते
                       सुप्राप्ये यजमानाय सुन्वते।। (ऋ0 10/125/2)
जगती से अधिक अक्षर वाले अन्य 7 छन्द ऋग्वेद में प्राप्य हैं। इनका प्रयोग बहुत कम है।  इनका विवरण इस प्रकार है -
1.    अति जगती:-  52 अक्षर, 5 पाद (13, 13, 10, 8, 8) (ऋ०8/97/13)
2.    शक्वरी:- 56 अक्षर, 7 पाद (8 अक्षर वाले 7 पाद) (ऋ० 10/133/1)
3.    अतिशक्वरी:- 60 अक्षर, 5 पाद (16, 16, 12, 8, 8) (ऋ0 2/22/2-3)
4.    अष्टि:- 64 अक्षर, 5 पाद (16, 16, 16, 8, 8) (ऋ० 2/22/1 और 4)
5.    अत्यष्टि:- 68 अक्षर, 7 पाद (12 अक्षर वाले 3 और 8 अक्षर  वाले 4 पाद) (ऋ० 1/136/1-6)
6.    धृति:- 72 अक्षर, 7 पाद (12 वाले 2, 16 वाला 1, 8 वाले 4) (ऋ० 4/1/3)
7.    अतिधृति:-  76 अक्षर, 7 पाद (ऋ० 1/127/6)
इनसे से बड़े भी सात छन्द हैं, परन्तु ऋग्वेद में प्रयोग नहीं हैं। प्रत्येक में चार अक्षर बढ़ते गए हैं। इनके नाम और अक्षरसंख्या इस प्रकार  है-
1.    कृति (80 अक्षर)
2.    प्रकृति (84 अक्षर)
3.    आकृति (88 अक्षर)
4.    विकृति (92 अक्षर)
5.    संस्कृति (96 अक्षर)
6.    अभिकृति (100 अक्षर)
7.     उत्कृति (104 अक्षर)
छन्द में अक्षर कम या अधिक होना:-  इसके लिए वे पारिभाषिक शब्द हैं - ( 1 अक्षर कम निवृत्,  1 अक्षर अधिक भुरिक, 2 अक्षर कम विराट्,  2 अक्षर अधिक स्वराट्) जैसे गायत्री के 3 पाद में 24 अक्षर होते हैं। 23 अक्षर होने पर निवृत गायत्री, 25 अक्षर होने पर - भुरिक् गायत्री, 22 अक्षर होने पर - विराट् गायत्री और 26 अक्षर होने पर स्वराट् गायत्री कहलाता है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि वैदिक वाङ्मय में छन्दशास्त्र का महत्त्व किसी भी दृष्टि से कम नहीं है। इसकी परम्परा काफी प्राचीन है।
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विभागाध्यक्ष, संस्कृत विभाग
सिदो कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय,
दुमका (झारखण्ड) 814110

dkmishraspcd@gmail.com 

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