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Showing posts from 2021

ऋषि पंचमी भारत की अद्भुत परम्परा

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 भाद्रपद (भादो) शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को  ऋषि पंचमी के व्रत का विधान भारतीय प्राचीन ग्रंथों व पुराणों  में बताया गया है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है इस दिन ऋषियों का पूजन, वन्दन व स्मरण किया जाता है। ऋषि पंचमी कोई उत्सव नहीं है और न ही इस दिन किसी आराध्य देव की पूजा की जाती है, बल्कि इस दिन सप्त ऋषियों का स्मरण कर श्रद्धा के साथ उनका पूजन किया जाता है। हमारे शास्त्रों में कश्यप, अत्रि, भरद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वसिष्ठ ये सात ऋषि बताए गए हैं। इन सप्त ऋषियों के निमित्त उनका स्मरण करते हुए महिलाओं के द्वारा व्रत का विधान हमारे शास्त्रों में बताया गया है। ऐसा माना जाता है कि इस व्रत के रखने से महिलाएँ रजस्वला दोष से मुक्त हो जाती हैं। व्रत के साथ यदि व्रतधारी महिलाएं इस दिन गंगा स्नान भी कर लें तो उन्हें व्रत का फल कई गुणा ज्यादा मिल जाता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस व्रत को रखने से महिलाओं के आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक दु:खों का विनाश हो जाता है। इस व्रत को करने से उपासक द्वारा जाने अनजाने में किए गए सभी दोषों से उसको मुक्ति मिल जाती है।

गणेश चतुर्थी के दिन चन्द्रदर्शन वर्जित

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  भाद्रपद (भादो) शुक्ल पक्ष चतुर्थी अर्थात्  गणेश चतुर्थी । आज के दिन भगवान गणेश की विधि- विधान से पूजा- अर्चना की जाती है। गणेश चतुर्थी से अनंत चतुर्दशी तक दश दिनों के गणेश महोत्सव की शुरुआत  आज से ही की जाती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भगवान गणेश की कृपा से व्यक्ति की सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं। भगवान गणेश प्रथम पूजनीय देव हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार गणेश चतुर्थी पर रात्रि में चंद्र देव के दर्शन नहीं करने चाहिए। ऐसा माना जाता है कि इस दिन चंद्रमा का दर्शन करने से झूठा कलंक अथवा आक्षेप लगने की संभावना होती है। गणेश चतुर्थी के दिन चंद्रमा के दर्शन करना अपशगुन माना जाता है।  गलती से अगर चंद्रमा के दर्शन हो जाएँ तो उन्हें प्रणाम कर लें और घर आकर के मिष्ठान अथवा फल फूल उनके निमित्त उनको समक्ष दिखा कर दान कर देना चाहिये । गणेश जी के किसी मंत्र का जाप करना  या गणेश स्तोत्र  का पाठ करना चाहिए । पौराणिक मान्यताओं के अनुसार  भगवान श्रीगणेश ने चंद्रमा को शाप दे दिया था। चन्द्रमा ने परिहास में उपहास  कर दिया था लम्बोदर गणेश जी का । पौराणिक कथा के अनुसार एक बार अपने जन्म तिथि पर गणे

प्रकृति की पूजा है चौरचन पर्व

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भादो महीना के शुक्ल पक्ष चतुर्थी  को जहाँ गणेश चतुर्थी का पर्व धूम धाम से मनाया जाता है वहीं मिथिलांचल में आज की तिथि को चौरचन पर्व के रूप में मनाने की काफी पुरानी परंपरा है। मिथिला में चौरचन का त्योहार पूरे धूमधाम से मनाया जाता है। चौरचन को चौठचंद्र भी बोलते हैं। अपभ्रंश भाषा में चोरचण्डा  इसे ही कहते हैं ।मिथिला में मनाया जाने वाला चौठचंद्र ऐसा त्योहार जिसमें चांद की पूजा बड़े धूमधाम से की जाती है। मिथिला के अधिकांश त्योहारों का नाता प्रकृति से जुड़ा होता है। ये व्रत पुत्र की दीर्घायु के लिए किया जाता है। झारखण्ड के  गोड्डा, दुमका, देवघर सहित न केवल संताल परगना में अपितु राँची, बोकारो, धनबाद, जमशेदपुर  आदि शहरों में भी बड़ी संख्या में मिथिलावासी रहते हैं। ऐसे में ये पर्व यहां भी बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। प्रायः यह व्रत महिलाएं ही करती हैं ।  चौरचन के दिन मिथिला की महिलाएं पूरे दिन उपवास करती हैं। इसके साथ ही शाम को भगवान गणेश की पूजा के साथ चांद की विधि विधान से पूजा कर अपना व्रत तोड़ती हैं। पूजा स्थल पर पिठार (पीसे चावल से) से अरिपन बनाया जाता है। फिर उसी अरिपन पर बांस से बने डा

 भारत जनगणना 2021 विशेष

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डॉ धनञ्जय कुमार मिश्र  दुमका (झारखण्ड) dkmishraspcd@gmail.com ----- हाल ही में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री ने जनगणना 2021 का शुभंकर जारी किया है। ज्ञातव्य है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 24 दिसंबर, 2019 को भारत की जनगणना 2021 की प्रक्रिया शुरू करने एवं राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (National Population Register- NPR) को अपडेट करने की मंज़ूरी दे दी थी। इसके तहत पूरे देश में जनगणना का कार्य दो चरणों में संपन्न किया जाएगा। सरकारी अनुमान के अनुसार, जनगणना 2021 की प्रक्रिया पूरी करने में 8,754 करोड़ 23 लाख रूपए का खर्च आएगा। इस प्रक्रिया में देश के विभिन्न राज्यों के अलग-अलग विभागों के 30 लाख कर्मचारी भाग लेंगे, जबकि NPR के लिये 3941 करोड़ 35 लाख रूपए का खर्च आएगा। ज्ञातव्य है कि वर्ष 2011 की जनगणना में देश भर से लगभग 27 लाख कर्मचारियों ने अपना योगदान दिया था। किसी भी देश के विकास एवं उसके भविष्य की नीतियों के निर्धारण के लिये देश के नागरिकों की सही संख्या का पता होना बहुत ज़रूरी होता है। नागरिकों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति के प्रमाणिक आँकड़े सरकार की मदद करते हैं, अत: भारत में प्रत्येक 10 साल पर जनगणन

आनन्दवर्धन और उनका ध्वन्यालोक

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 आनन्दवर्धन, काव्यशास्त्र में ध्वनि सम्प्रदाय के प्रवर्तक के रूप में प्रसिद्ध हैं। काव्यशास्त्र के ऐतिहासिक पटल पर आचार्य रुद्रट के बाद आचार्य आनन्दवर्धन आते हैं और इनका ग्रंथ ‘ध्वन्यालोक’ काव्य शास्त्र के इतिहास में मील का पत्थर है। आचार्य आनन्दवर्धन कश्मीर के निवासी थे और ये तत्कालीन कश्मीर नरेश अवन्तिवर्मन के समकालीन थे। इस सम्बंध में महाकवि कल्हण ‘राजतरंगिणी’ में लिखते हैं: कश्मीर नरेश अवन्तिवर्मन का राज्यकाल 855 से 884 ई. है। अतएव आचार्य आनन्दवर्धन का काल भी नौवीं शताब्दी मानना चाहिए। इन्होंने पाँच ग्रंथों की रचना की है- विषमबाणलीला, अर्जुनचरित, देवीशतक, तत्वालोक और ध्वन्यालोक।  ध्वनि सिद्धान्त, भारतीय काव्यशास्त्र का एक सम्प्रदाय है। भारतीय काव्यशास्त्र के विभिन्न सिद्धान्तों में यह सबसे प्रबल एवं महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। ध्वनि सिद्धान्त का आधार 'अर्थ ध्वनि' को माना गया है। इस सिद्धान्त की स्थापना का श्रेय 'आनंदवर्धन' को है किन्तु अन्य सम्प्रदायों की तरह ध्वनि सिद्धान्त का जन्म आनंदवर्धन से पूर्व हो चुका था। स्वयं आनन्दवर्धन ने अपने पूर्ववर्ती विद्वानों का मतोल्

एकता, राष्ट्र प्रेम और स्वाधीनता

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ईमानदारी

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                             डॉ धनंजय कुमार मिश्र  ईमानदारी शब्द अत्यंत व्यापक है । इसके मूल में सत्य समाहित है। शब्द कोश में इसके लिए कई शब्द  देखने को मिलते हैं । जैसे- नेकनीयती, खरापन, सत्यपरायण, सत्यनिष्ठ, सत्य शील, निश्छलता आदि - आदि।  मेरी समझ से छल-प्रपंच से दूर, लोभ-लालच से विरक्त,  कर्त्तव्य की भावना से भरपूर मानव हृदय को ही ईमानदार की श्रेणी में रखा जा सकता है ।  संस्कृत में एक सुन्दर उक्ति है- *त्यागेन, शीलेन, गुणेन कर्मणा* अर्थात् मनुष्य की पहचान त्याग से, स्वभाव से, गुण तथा कर्म से होती है।  यह समस्त भाव ईमानदारी के अन्तर्गत आते हैं । सच कहा जाए तो ईमानदारी एक ऐसी अनोखी  बहुमूल्य  माला है जिसमें अनेक मानवीय मूल्य मोती की तरह पिरोए हुए हैं ।  यह ऐसा गुण है जो  अमीरी-गरीबी से परे है। यह एक दैवीय ज्योति के समान है जिसका प्रकाश मानव को महामानव की श्रेणी में ला खड़ा करता है।  ईमानदारी के किस्से हमारे ग्रन्थों में भरे पड़े हैं । बस ,हमें उसे अंगीकार करना है, अपने व्यवहार में लाना है। आज कल कुछ भौतिकवादी लोग ईमानदारी को नादानी समझ उपहास भी करते है पर इस शाश्वत मूल्य को हमें बरकरा

स्वयम्भू हैं आदिदेव महादेव

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  भारतीय पौराणिक मान्यताओं के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और महेश त्रिदेव हैं । ब्रह्मा सृष्टि के उत्पत्तिकर्त्ता, विष्णु जगत् के पालनकर्त्ता और शिवशंकर महेश संसार के संहारकर्त्ता महाकाल हैं । उत्पत्ति, पालन और लय यही संसार की गति है। त्रिदेवों में भगवान शंकर को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। भगवान् ब्रह्मा जहाँ  स्रष्टा हैं , भगवान विष्णु संरक्षक तो भगवान शिव विनाशक की भूमिका निभाते हैं। त्रिदेव मिलकर प्रकृति के नियम का संकेत देते हैं कि जो उत्पन्न हुआ है, उसका विनाश भी होना तय है। कई पुराणों का मानना है कि भगवान् ब्रह्मा और भगवान् विष्णु साक्षात् शिव से उत्पन्न हुए हैं । कभी-कभी  शिवभक्तों के मन में सवाल उठता है कि भगवान् शिव ने कैसे जन्म लिया था? अर्थात् शिव की उत्पत्ति कैसे हुई? इसके उत्तर में शिव पुराण कहता है कि भगवान् शिव स्वयंभू हैं। अर्थात्    वह किसी शरीर से पैदा नहीं हुए हैं। जब कुछ नहीं था तो भगवान् शिव थे और सब कुछ नष्ट हो जाने के बाद भी उनका अस्तित्व रहेगा। भगवान शिव को आदिदेव भी कहा जाता है जिसका अर्थ  सर्वप्रथम देव  है। शिव देवों में प्रथम हैं। संहारक कहे जाने वाले भगवान् शि

बाबा भोलेशिव को प्रिय है बेलपत्र

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  ------ भारतीय धार्मिक  मान्यता के अनुसार श्रावण मास देवों के देव महादेव भगवान् भोलेनाथ  का परम प्रिय  मास माना जाता है। पौराणिक गाथा के अनुसार  भगवान शिव ने स्वयं  ब्रह्मा के पुत्र सनतकुमार आदि को बताया कि  उन्हें श्रावण मास अति प्रिय है क्योंकि भगवती पार्वती ने इसी माह कठिन तपस्या करके उन्हें पति रूप में प्राप्त किया था। कथा के अनुसार  देवी सती ने अपने पिता दक्ष के घर में योगशक्ति से शरीर त्याग किया था, उससे पहले देवी सती ने महादेव को हर जन्म में पति के रूप में पाने का प्रण किया था। अपने दूसरे जन्म में देवी सती ने पार्वती के नाम से पर्वत राज हिमालय और रानी मैना के घर में पुत्री के रूप में जन्म लिया। पार्वती ने शिव प्राप्ति  के लिए  सावन महीने में  ही निराहार रह कर कठोर व्रत किया और उन्हें प्रसन्न कर विवाह किया। स्कन्द पुराण के अनुसार, एक बार माता पार्वती के पसीने की बूंद मंदराचल पर्वत पर गिर गई और उससे बेल का पेड़ निकल आया।  माता पार्वती का श्वेद ही बिल्ववृक्ष के उद्भव का कारण हुआ  है। अत: इसमें माता पार्वती के सभी रूप बसते हैं। वे पेड़ की जड़ में गिरिजा के स्वरूप में, इसके तनों में मा

सावन में सोमवार शिव व्रत का महत्त्व

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  भारतीय प्राचीन ज्योतिष विज्ञान के अनुसार सोमवार का दिन चन्द्रमा  का दिन होता है। चन्द्रमा का ही दूसरा नाम सोम है। चन्द्रमा के नियंत्रक भगवान शिव हैं। इस दिन पूजा करने से न केवल चन्द्रमा बल्कि भगवान शिव की कृपा भी मिल जाती है। कोई भी व्यक्ति जिसको स्वास्थ्य की समस्या हो, विवाह में  विलम्ब या बाधा हो,  दरिद्रता  हो उसे नियम पूर्वक  सावन माह के प्रत्येक सोमवार को आशुतोष  शिव की आराधना करनी चाहिए । भोलेनाथ की भक्ति  सभी समस्याओं से मुक्ति दिलाती है।   पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सोमवार और शिव जी के सम्बन्ध के कारण ही भगवती पार्वती ने सोलह सोमवार का व्रत व उपवास रखा था। सावन का सोमवार अत्यधिक पवित्र तथा मनोकामना पूर्ण करने वाला होता है ।  सावन सोमवार को प्रातः काल या प्रदोष काल में स्नान करने के बाद शिव मंदिर जाना चाहिए ।  नंगे पाँव शिवालय जाकर शुद्ध मन से शिवलिंग का जलाभिषेक करना चाहिए । भगवान शिव  की स्तुति व  साष्टांग  नमन भावपूर्ण होना चाहिए । मंदिर प्रांगण में , शिव सानिध्य में  शिव मंत्र  " ऊँ नमः  शिवाय" का कम से कम 108 बार जप करने से मनोवान्छित फल अवश्य मिलता है। व्रती क

विश्व पर्यावरण दिवस

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 संताल परगना महाविद्यालय दुमका में किया गया पौधारोपण । राष्ट्रीय सेवा योजना की इकाई तीन के कार्यक्रम पदाधिकारी डॉ धनञ्जय कुमार मिश्र ने महाविद्यालय प्रांगण में पौधारोपण करते हुए कहा कि हर साल 5 जून के दिन दुनियाभर में विश्व पर्यावरण दिवस का आयोजन किया जाता है। इस दिन का मुख्य उद्देश्य लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरुक करना है। आधुनिकता की दौड़ में भाग रहे प्रत्येक देश के बीच धरती पर हर दिन प्रदूषण काफी तेजी से बढ़ता जा रहा है। जिसके दुष्परिणाम समय-समय पर हमें देखने को मिलते हैं। पर्यावरण में अ चानक प्रदूषण का स्तर बढ़ने से तापमान में भी तेजी देखी जा रही है तो कहीं कहीं पर प्रदूषण के बढ़े हुए स्तर के कारण लंबे समय से बारिश भी नहीं हो पाती. ऐसे में लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरुक करने के लिए हर साल विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। कोरोना वैश्विक महामारी के कारण महाविद्यालय में  लाॅकडाउन है। सोशल डिस्टेन्सिंग आवश्यक है। सिर्फ कार्यालय खुला हुआ है । छात्र छात्राओं को अनिवार्य रूप महाविद्यालय आने से रोका गया है, इसलिए सिर्फ प्रतीकात्मक रूप से कार्यक्रम पदाधिकारी ने स्वयं ही दो पौधे लगाक

गंगा

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 पारुल प्यारी अन्धी गुड़िया  चोगा चोली चंगा। पापहारिणी प्राणदायिनी है जी हमारी गंगा।। विपदा के इस कठिन काल में  कठपुतली  बना जो बंदा। देख रहे उसके कर्मों को तारे सूरज चन्दा।। क्या चाहे तू राष्ट्र पुरुष से हमको भी बतला जा। सूर्पनखा सी भोली मत बन जाने सब रघुलाला।। सैंतालिस भूली चौरासी भूली भूली खून की होली। भूल गयी रे हाय वावरी गोधरा की गलियारी।। माना  नाच रहा है काल पर कैसी यह अभिव्यक्ति । सत्तालोलुप बहुरूपिये से मत कर इतनी प्रीति।। साहेब तुझको जाने प्यारी, जाने ट्वीटबाजों से यारी, तेरे मर्ज की दवा भी जाने, गद्दारों की जाने गद्दारी।।  कुमति छोड़ विकराल काल  मत कर जननी को नंगा पापहारिणी प्राणदायिनी है जी हमारी गंगा ।।

https://youtu.be/AoGPJ7o0cik

 https://youtu.be/AoGPJ7o0cik

श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितम् भवान्यष्टकम्

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न तातो न माता  न बन्धुर्न दाता न पुत्रो न पुत्री न भृत्यो न भर्ता। न जाया न विद्या   न वृŸिार्ममैव गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि।। 1।। भवाब्धावपारे         महादुःखभीरूः पपात प्रकामी        प्रलोभी प्रमŸाः। कुसंसारपाशप्रबद्धः         सदाहं गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि।। 2।। न जानामि दानं       न च ध्यानयोगं न जानामि तन्त्रं    न च स्तोत्रमन्त्रम्। न जानामि पूजां    न च न्यासयोगम् गतिस्त्वं  गतिस्त्वं  त्वमेका भवानि।। 3।। न जानामि पुण्यं    न जानामि तीर्थं न जानामि मुक्तिं   लयं वा कदाचित् न जानामि भक्तिं    व्रतं वापि मात र्गतिस्त्वं  गतिस्त्वं  त्वमेका भवानि।। 4।। कुकमी   कुसङ्गी  कुबुद्धिः  कुदासः कुलाचारहीनः         कदाचारलीनः कुदृष्टिः  कुवाक्यप्रबन्धः   सदाहम्। गतिस्त्वं गतिस्त्वं   त्वमेका भवानि।। 5।। प्रजेशं  रमेशं       महेशं   सुरेशं दिनेशं  निशीथेश्वरं  वा कदाचित् न जानामि चान्यत् सदाहं शरण्ये। गतिस्त्वं गतिस्त्वं   त्वमेका भवानि।। 6।। विवादे    विषादे    प्रमादे  प्रवासे जले   चानले    पर्वते  शत्रुमध्ये। अरण्ये शरण्ये     सदा मां प्रपाहि। गतिस्त्वं गतिस्त्वं   त्वमे

मधुमास

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 पाटल पंकज जूही महुआ औ’ अमराई   फूले पलाश हैं जो वाे प्रीत की गहराई।।   मादकता मधुवन की चितवन है अलसाई  चकवे की चाहत में चकवी है बौराई।।  गंगा तट पर कितनी ये वात सुहानी है   मधुपति के स्वागत में मदहोस जवानी है।।   मधुमास के स्वागत में कलिका जो दीवानी है   फागुन का ये मौसम मदहोश जवानी है।।   कोई जाकर पूछो क्या हुक पुरानी है   उपवन में कोयल की जो कूक सुहानी है ।।  विरह विभावरी की ये बात बेमानी है  ऊषा और रजनी की ये प्रेम कहानी है।।   दरिया और सागर की क्या प्रीत पुरानी है   प्रियतम के नयनों में मौजों की रवानी है।।   फागुन का ये मौसम मदहोश जवानी है   फागुन का ये मौसम मदहोश जवानी है।। डॉ धनंजय कुमार मिश्र, दुमका   

बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व होली

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  जब  कोयल की कूक सुनाई देने लगे, गौरैया चहकने लगें, पेड़ों की शाखाओं पर बौर खिलने लगे, तापमान न ज्यादा ठंडा और न ज्यादा गर्म होने लगे, गुनगुनी धूप, स्नेहिल हवा चलने लगे, प्रकृति हरियाली चादर ओढ़ती दिखे, सुबह नशीली और रूमानी होने लगे, सरसों के पीले पीले फूल खिलने लगें, पाटल सुर्ख लाल हो जाए, पलाश अपनी पूरी जवानी पर हो.. तो यूं समझिए ऋतुराज वसंत का आगमन हो चुका है।  फाल्गुन मास में वसंत के आगमन के साथ होता है होली का आगाज। होली रंगों, प्रेम, मस्ती, सद्भावना और आपसी मेलजोल का उत्सव है। यह त्यौहार जाति, भाषा और धर्म की सभी बाधाओं को तोड़ता है। यह त्यौहार वसंत ऋतु का स्वागत करता है और सर्दियों को अलविदा कहता है. इसलिए इस पर्व को वसंतोत्सव और मदनोत्सव भी कहा जाता है। यह त्यौहार अच्छी फसलों का भी प्रतीक है क्योंकि इस वक्त किसानों की फसलें पूरी तरह से तैयार होकर खेतों में लहलहा रही होती हैं। फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला उत्सव होली आनंद व उल्लास  से भरा रंगों का पर्व  है । यह भारत भूमि पर प्राचीन समय से मनाया जाता है। त्यौहारों की ख़ास बात यह है की इसके मस्ती में लोग आपसी बैर तक भूल

प्रकृति और सृष्टि संतुलन का पर्व महाशिवरात्रि

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  डाॅ0 धनंजय कुमार मिश्र, अध्यक्ष स्नातकोत्तर संस्कृत विभाग  एस पी कालेज परिसर, दुमका  _____            भारतवर्ष विविधताओं और विभिन्नताओं का देश है। विविध परम्परा और सुसंस्कृत संस्कृति भारतवर्ष की पहचान है। प्राचीन आर्ष ग्रन्थ वर्तमान का मार्गदर्शन और भविष्य का निर्धारण करने में महती भूमिका का निर्वहण करते हैं। इन आर्ष ग्रन्थों में वेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत और पुराण अतीत से आज तक हमारे जीवन पथ को आलोकित कर रहे हैं। इन ग्रन्थ-रत्नों में कर्मों की प्रधानता के द्वारा जीवन जीने की प्रेरणा दी गई है। हमारे कर्म सात्विक, शुद्ध और सुन्दर हों जिससे समाज का  कल्याण और मानवता का उत्थान होता रहे। प्रकृति और पर्यावरण के बिना मानव समाज का अस्तित्व ही नहीं अतएव उनके संरक्षण का सूक्ष्म संदेश भी आर्षग्रन्थों में निहित है। किसी ने ठीक ही कहा है ‘‘समाजस्य हितम् शास्त्रेषु निहितम्’’- अर्थात् समाज का हित शास्त्रों में निहित है। शास्त्र हमारे ज्ञानचक्षु का उन्मीलन कर गुरू की भाँति  हितैषी हैं। फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि को आदिदेव भगवान शिव ,करोड़ों सूर्यों के समान प्रभाव वाले ज्योतिर्लिंग के रूप मे