डाॅ धनंजय कुमार मिश्र, एस के एम विश्वविद्यालय दुमका झारखंड 1. अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः। ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्माऽपि नरं न रञ्जयति।। भाषानुवाद:- अज्ञानी व्यक्ति को सरलता से प्रसन्न हो जाता है, विद्वान् व्यक्ति और भी सरलता से प्रसन्न हो जाता है, किन्तु अल्प ज्ञान से उन्मत बने हुए व्यक्ति को ब्रह्मा भी प्रसन्न नहीं कर सकते। 2. साहित्यसंगीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः। तृणं न खादन्नपि जीवमान स्तद्भागधेयं परमं पशूनाम्।। भाषानुवाद:- साहित्य, संगीत और कला से विहीन मनुष्य साक्षात् पूँछ और सींगों से हीन पशु के जैसा ही है। घास न खाता हुआ भी वह जीवित है, यह पशुओं का परम सौभाग्य है। 3. येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः। ते मत्र्यलोके भुवि भारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।। भाषानुवाद:- जिस व्यक्...
डॉ धनंजय कुमार मिश्र एस के एम विश्वविद्यालय दुमका, झारखंड 1. संसमिद्युसे वृषन्नग्ने विश्वान्यर्य आ। इळस्पदे समिध्यसे स नो वसुन्या भर || अनुवाद - कामनाओं की वर्षा करने वाले, हे ज्ञान स्वरूप परमात्मन् । तुम सबके स्वामी हो और प्राणियों को तुम यज्ञ के आपस में मिलाते हो। तुम यज्ञ के स्थान पर प्रकाशित होने दे। "तुम हमें ऐश्वर्यो को प्राप्त कराओ।। (2) संगच्छध्वं सं वदध्वं सं वै मनांसि जानताम् । देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते।। अनुवाद - हे प्रजाजनो !तुम सब मिलकर चलो। मिलकर प्रेम से परस्पर बोलो। तुम्हारे मन समान ज्ञान वाले है। जिस प्रकार तुमसे पहले होने वाले देवता अर्थात् विद्वान् पुरुष ज्ञान के युक्त रहते हुए अपने भाग को प्राप्त करते रहे हैं, उसी प्रकार तुम भी प्राप्त करो। (3) समानो मन्त्र: समिति: समानी समानं मन: सह चित्तमेषाम्। समानं मन्त्रमभियन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि।। अनुवाद - हम सब प्रजाजनों के विचार एक जैसे हों। शासन प्रजा का प्रतिनिधित्व करने वाली समिति वाली एक हो और इनके मन एक जैसे हों। हे प्रजाजनों ! मैं त...
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