रूपक और इसके भेद
डॉ धनंजय कुमार मिश्र, विभागाध्यक्ष संस्कृत, एस के एम विश्वविद्यालय दुमका, झारखंड |
संस्कृत साहित्य में दृश्यकाव्य के अन्तर्गत अभिनय का नट आदि में रामादि के स्वरूप का आरोप होने से दृश्यकाव्य को ही रूपक कहा जाता है। रूपक अभिनय के योग्य होता है। कहा भी गया है - ‘‘रूपारोपात्तुरूपकम्’
आचार्य धनंजय ने रूपक का विवेचन इस प्रकार किया है -
‘‘अवस्थानुकृतिर्नाट्यम् । रूपं दृश्यतोच्यते। रूपकं तत्समारोपात्।’’
अर्थात् अवस्था-अनुकरण नाट्य है। दृश्य काव्य के अन्तर्गत नाट्य आता है। अतः पात्रों को विभिन्न रंग-रूपों, भाव-भङ्गिमाओं आदि में देखा जाता है। चक्षुग्राह्य होने के कारण नाट्य ‘रूप’ नाम से भी जाना जाता है। मंचन के क्रम में पात्रों के विभिन्न भाव-भङ्गिमाओं, उनकी वेश-भूषादि का आरोप नट-नटी आदि में किया जाता है। अतएव नाट्य को ‘रूपक’ कहते हैं। तात्पर्य है - रूपक उसे कहते हैं जहाँ किसी चीज का आरोप किया जाय। नाट्य, रूप, रूपक - सभी एक ही अर्थ का द्योतन करते हैं। रूपक के मुख्यतः दस भेद हैं। कहा भी गया है -
‘‘नाटकं सप्रकरणं भाणः प्रहसनं डिमः।
व्यायोगसमवकारौ वीथ्यङ्केहामृगा इति।।’’
अर्थात् नाटक, प्रकरण, भाण, प्रहसन, डिम, व्यायोग, समवकार, वीथी, अंक एवं ईहामृग - रूपक के दस भेद होते हैं।
1. नाटक :- रूपक का पहला और प्रसिद्ध भेद नाटे होता है। नाटक का इतिवृत इतिहास प्रसिद्ध होना चाहिए। इसमें पञ्च सन्धि तथा अनेक विभूतियाँ होती हैं। अंकों की संख्या न्यूनतम पाँच एवं अधिकतम दस होनी चाहिए। श्रृंगार, वीर आदि एक मुख्य रस होता है। निर्वहण सन्धि में अद्भुद् रस की योजना होनी चाहिए। कहा भी गया है -
‘‘ नाटकं ख्यातवृतं स्यात्पञ्चसन्धि समन्वितम्।।’’
संस्कृत साहित्य में अनेक प्रसिद्ध नाटक रचित हैं। जैसे - कालिदासकृत अभिज्ञानशाकुन्तलम्, भवभूतिकृत उत्तररामचरितम्, विशाखदत्तकृत मुद्राराक्षसनाटकम्, भट्टनारायणकृत वेणीसंहारनाटकम् आदि। आजकल कुछ प्रतीकात्मक नाटक भी मिलते हैं। जैसे - श्रीकृष्णमिश्रकृत प्रबोधचन्द्रोदयम्।
2. प्रकरण:- नाटक के बाद रूपक के दूसरे भेद के रूप में प्रकरण का नाम लिया जाता है। इसमें कथावस्तु लौकिक एवं कविकल्पित होती है। इसमें प्रधान रस श्रृंगार होता है। इसका नायक ब्राह्मण, मंत्री या वैश्य होता है। नायक भेद के अनुसार वह धीर प्रशान्त होता है जो धर्म-अर्थ-काम में तत्पर रहता है। प्रकरण का प्रसिद्ध उदाहरण शूद्रक विरचित मृच्छकटिकम् कहा जा सकता है।
3. भाण:- रूपक का तीसरा भेद भाण है। इसमें धूर्तों के चरित्र से युक्त अनेक अवस्थाएँ होती हैं। इसमें एक अंक होता है। कथावस्तु कविकल्पित होती है। वृति भारती होती है। अकेला विट ही निपुण और पण्डित होता है। भाण का प्रसिद्ध उदाहरण है - लीलामधुरम्।
4. प्रहसन :- रूपक का चौथा भेद प्रहसन होता है। शुद्ध, संकीर्ण तथा विकृत भेद से यह तीन प्रकार का होता है। निन्दनीय पुरूषों का कवि कल्पित वृतांत प्रहसन कहलाता है। हास्य रस की प्रधानता होती है। निन्दनीय पुरूष इसका नायक होता है। भाण से इसकी समानता होती है। संस्कृत साहित्य में इसके अनेक उदाहरण हैं। जैसे - कन्दर्पकेलिः, धूर्तचरितम् आदि। इसमें अंकों की संख्या एक होती है।
5. डिम :- रूपक का पाँचवाँ भेद डिम होता है। इसमें अंकों की संख्या चार होती है। सोलह विविध नायक होते हैं। मुख्यतः रौद्र रस होता है। माया, इन्द्रजाल आदि से यह युक्त होता है। डिम का प्रसिद्ध उदाहरण है -त्रिपुरदाह।
6. व्यायोग :- रूपक का छठा भेद व्यायोग है। इसकी कथावस्तु इतिहास प्रसिद्ध होती है। स्त्री पात्र काफी कम होते हैं। पुरूष पात्र अधिक होते हैं। गर्भ और विमर्श सन्धि का अभाव होता है। नायक धीरोद्धत राजर्षि या दिव्य पुरूष होता है। हास्य, श्रृंगार तथा शान्त के अतिरिक्त कोई भी रस प्रधान होता है। जैसे - सौगन्धिकाहरण।
7. समवकार :- रूपक का सातवाँ भेद समवकार है। इसमें इतिहास, पुराण आदि प्रसिद्ध देवासुर विषयक कथा होती है। विमर्श सन्धि का अभाव होता है। अंकों की संख्या तीन होती है। नायकों की संख्या बारह तक होती है जो देवता तथा मनुष्य होते हैं। मुख्य रस वीर होता है। इसमें अनेक छन्द होते हैं। जैसे - समुद्रमन्थनम्।
8. वीथी :- रूपक का आठवाँ भेद वीथी है। इसमें एक ही अंक होता है तथा एक पुरूष को नायक के रूप में कल्पित कर लिया जाता है। नायक साधारण होता है। कथावस्तु कवि कल्पित होती है। श्रृंगार रस की अधिकता होती है। इसके तेरह अंग बताए गए हैं। कैशिकी वृति होती है। मुख और निर्वहण सन्धि होती है। जैसे:- मालविका।
9. अङ्क:- रूपक का नवम भेद अङ्क नाम से जाना जाता है। इसमें एक ही अंक होता है। नायक साधारण तथा इतिहास प्रसिद्ध होती है। मुख्य रस करूण होता है। इसमें स्त्री विलाप का आधिक्य होता है। जैसे - शर्मिष्ठाययातिः।
10. ईहामृग:- रूपक का दसवाँ एवं अन्तिम भेद ईहामृग है। इसमें अंकों की संख्या एक से चार तक होती है। कथा ऐतिहासिक या कविकल्पित हो सकती है। नायक भी एक से छः तक होते हैं। मुख्य रस श्रृंगार होता है। दिव्य नायिका हेतु कलह होती है। इसका प्रसिद्ध उदाहरण है - कुसुमशेखरविजयादि।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि रूपक के दस भेदों के अतिरिक्त नाटिका, त्रोटक, गोष्टी, सट्टक, नाट्यरासक, प्रस्थान, उल्लाप्य, काव्य, प्रेखण, रासक, सन्लापक,श्रीगदित, शिल्पक, विलासिका दुर्मल्लिका, प्रकरणीय, हल्लीश तथा भाणिका अठारह उपरूपक भी होते हैं। साहित्य शास्त्र में इनकी चर्चा मिलती है। अन्ततः कहा जा सकता है रूपक के दस भेद अपने-अनपे ढ़ंग से निराले एवं सुन्दर होते हैं तथापि नाटक एवं प्रकरण ही काफी प्रचलित भेद हैं। संस्कृत साहित्य में रूपक के अनेक रूप सहृदय सामाजिकों को आकृष्ट करते हैं।
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