प्रस्तुति: डाॅ0 धनंजय कुमार मिश्र विभागाध्यक्ष, संस्कृत विभाग सिदो कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय, दुमका (झारखण्ड) ----------
वैदिक साहित्य की परम्परा में संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना के बाद आरण्यकों की रचना हुई। ब्राह्मण साहित्य की रचना के बाद ये आरण्यक उनके पूरक के रूप में प्रस्तुत हुए। आरण्यकों के मुख्य प्रतिपाद्य विषय भी ब्राह्मणों की तरह यज्ञीय कर्मकाण्ड ही है। वर्तमान समय में उपलब्ध सात आरण्यकों में तैत्तिरीय आरण्यक एक महत्त्वपूर्ण आरण्यक है, जो कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा से सम्बन्धित है। इसके दश प्रपाठकों में दूसरा प्रपाठक सहवै प्रपाठक है, जिसमें पंच महायज्ञों का वर्णन है। यज्ञ शब्द यज् धातु से निष्पन्न हुआ है, जो देव पूजा, संगतिकरण एवं दानार्थक है। देवों के प्रति श्रद्धा एवं पूजनीय भावना , यज्ञ काल में उनके निकटता का अनुभव तथा उनके लिए द्रव्य, मन एवं प्राण को समर्पित कर देना यज्ञ कहलाता है। भारतीय संस्कृति यज्ञ प्रधान थी। ऋग्वेद में भी कहा गया है - ‘‘यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवा तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।’’ अर्थात् यज्ञ से ही विश्व की उत्पत्ति हुई है, यही जगत् का प्रथम धर्म था। भारतीय संस्कृति में चार प्रकार के आश्रम की बात कही गई है, जिसमें गृहस्थ आश्रम का अपना विशिष्ट महत्त्व है। इसी आश्रम में रहकर मनुष्य अपने विविध कर्मो को सम्पादित करता है और इसी क्रम में उससे अनेक प्रकार की गलतियाँ भी हो जाती है। इस गलतियों के निवारण के लिए ही पंच महायज्ञ का विधान हुआ है - ‘‘ऋषियज्ञं देवयज्ञं भूतयज्ञं च सर्वदा। नृयज्ञं पितृयज्ञं च यथाशक्ति न हापयेत्।।’’ (म0स्मृ0 4/21) अर्थात् ऋषियज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, नृयज्ञ और पितृयज्ञ ये पाँच महायज्ञ हैं, जिसका परित्याग नहीं करना चाहिए। मनुस्मृति कहती है कि - अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम्। होमो दैवो बलिर्भूतो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम्।। (म0स्मृ0 3/70)
पंच महायज्ञ इस प्रकार हैं - 1. ऋषि यज्ञ (ब्रह्म यज्ञ) 2. देव यज्ञ (अग्निहोत्री यज्ञ) 3. भूत यज्ञ (बलिवैश्वदेव यज्ञ) 4. नृ यज्ञ (अतिथि यज्ञ) 5. पितृ यज्ञ (श्राद्ध और तर्पण)
यथाशक्ति पंचमहायज्ञों को करने वाला व्यक्ति पंचदोषों से मुक्त होता है - ‘‘पंचैतान्यो महायज्ञान्न हापयति शक्तिनः। न गृहेऽपि वसन्नित्यं सूनादोषैर्न लिप्यते।।(म0स्मृ0 3/71)
1. ऋषि यज्ञ:- इस यज्ञ का दूसरा नाम ब्रह्म यज्ञ भी है। इसके अन्तर्गत वेदों का अध्ययन, निःशुल्क अध्यापन, स्वाध्याय और सन्ध्योपासना आदि कर्म प्रमुख हैं। दिन के द्वितीय भाग में इसे सम्पादित किया जाता है। यह ब्राह्मणों के लिए परम तप है। अध्ययन-अध्यापन से ज्ञान में वृद्धि आती है, जिससे मनुष्य अनेक प्रकार के कल्याणपरक कार्यों को सम्पादित करने में सक्षम होता है। स्वाध्याय के द्वारा वह अपना आत्म-विश्लेषण करता है। जिससे सद्गुणों एवं अवगुणों का पता चलता है, और फिर उसमें सुधार का प्रयास किया जाता है। सन्ध्याोपासना भी ऋषि यज्ञ का प्रमुख कर्म माना गया है। प्रातः कालीन सन्घ्या से रात्रि के और सायंकालीन सन्घ्या से दिन के दोषों का शमन होता है। मनु का भी कथन है - ‘‘पूर्वां सन्ध्याम् जपस्तिष्ठेन्सावित्रीमर्क दर्शनात्। पश्चिमां तु समासीनः सम्यगृक्ष विभावनात्।।’’ अर्थात् प्रातःकाल आकाश में नक्षत्र शेष रहने पर, उस समय से लेकर सूर्य के दिखाई देने तक अर्थ सहित गायत्री मन्त्र का जप करते हुए अपने आसन को लगायें। इसी तरह सायं काल में सूर्यास्त होने के समय से लेकर जब तक पर्याप्त नक्षत्र उदित न हो जाए तब तक सन्घ्योपना करते रहना चाहिए। ब्रह्मचर्य समाप्ति के बाद ज्ञानोपार्जन कार्य भी समाप्त हो जाता है - ऐसी अविवेकपूर्ण विचारधारा को नष्ट करने के लिए ही इस यज्ञ को गृहस्थों के लिए अनिवार्य बताया गया है। इस यज्ञ का फल स्वर्गप्राप्ति को माना जाता है। शतपथ ब्राह्मण तथा तैत्तिरीय आरण्यक में इसे सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण यज्ञ माना गया है।
2. देवयज्ञ:- इस यज्ञ को अग्निहोत्र के नाम से भी जाना जाता है। यह प्रातः काल एवं सायं काल में किया जाना चाहिए। स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुसार देव यज्ञ सूर्योदय के पश्चात् तथा सूर्यास्त से पूर्व किया जाता है। इस यज्ञ में अग्नि प्रज्ज्वलित करके उसमें अन्न, घृत, धान्यादि की आहूति देकर होम किया जाता है। प्राचीन ग्रन्थों में इस यज्ञ की अत्यधिक प्रशंसा की गई है। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को अग्निहोत्र करना चाहिए। ‘‘अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः।’’ अग्नि के द्वारा पवित्रीकरण का कार्य होता है। ऋषियों ने वायु शुद्धि के लिए एक अत्यन्त सरल एवं उपयोगी ढ़ंग अग्निहोत्र पर बल दिया है। घृत, चन्दन, कर्पूर आदि सुगन्धित पदार्थों की आहूतियाँ दिये जाने से उत्पन्न धुआँ वातावरण को पूर्णतया शुद्ध करता है। जल और वायु में विद्यमान दोषों को नष्ट करता है और मानव की प्राण शक्ति में वृद्धि होती है। स्पष्टतः स्वास्थ्य के लिए यह यज्ञ काफी महत्त्वूर्ण है। वायु में मेघों को धारण करने वाली शक्ति के विकास में अग्निहोत्र अत्यन्त सहायक है। इस प्रकार यह यज्ञ वर्षा में सहायक होता है। वर्षा से फसल प्रभावित होता है। फसल अच्छी होने से समाज की आर्थिक उन्नति होती है। इस प्रकार देवयज्ञ करने से मानव समाज का विविध रूप से कल्याण होता है। मनुस्मृति में इस यज्ञ के बारे में चर्चा हुई है। महर्षि मनु कहते हैं - ‘‘अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते। आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः।। 3/76 अर्थात् विधिपूर्वक अग्नि में छोड़ी हुई आहुति ‘सूर्य’ को प्राप्त होती है। सूर्य से वृष्टि तथा वृष्टि से अन्न एवं अन्न से प्रजाएँ उत्पन्न होती हैं और जीवन धारण करती है। अतः देवयज्ञ ही सृष्टिका मूल है। इस प्रकार देवनिमित्तक किया गया हवनादि कृत्य ही देवयज्ञ है। इस देवकर्म को करता हुआ द्विज इस चराचर जगत् को धारण और पोषण करता है।
3.भूतयज्ञ:- पंचमहायज्ञों में गणित भूतयज्ञ का सम्बन्ध जीवों के कल्याण से है। स्मृतिग्रन्थों में इस यज्ञ को ‘बलिवैश्वदेवयज्ञ’ की संज्ञा दी गई है। इस यज्ञ का सम्पादन भोजन करने से पूर्व किया जाता है। जीवों के लिए बलि इस यज्ञ के द्वारा दी जाती है। इस यज्ञ के फलस्वरूप देव, पितर, वनस्पति तथा पशु-पक्षी आदि तृप्ति को प्राप्त करते हैं। मनुस्मृति में कहा गया है - ‘‘वैश्वदेवस्य सिद्धस्य गृहेऽग्नौ विधिपूर्वकम्। आभ्यः कुर्याद्देवताभ्योब्राह्मणीहोममन्वहम्।। 3/84 इस यज्ञ का प्रमुख प्रयोजन प्राणिमात्र के प्रति कर्तव्य का बोधन है। जो असहाय है, अपनी सेवा या आवश्यकता की पूर्ति करने में अक्षमह ै, उसनकी विविध प्रकार से सहायता की जाय, यही इस यज्ञ का लक्ष्य है। मनुस्मृति में स्पष्ट कहा गया है - शुनां च पतितां च श्वपचां पापरोगिणाम्। वयसानां कृमीणां च शनकर्निवपेद भुवि।। 3/92 अर्थात् कुत्ते, पतित, श्वचप, पापी, रोगी, कौआ, कृमि आदि को अन्न देकर इस यज्ञ का सम्पादन करें। विभिन्न प्राणियों की संतुष्टि के लिए किया जाने वाला यज्ञ व्यक्ति को प्रकाशमय सर्वोत्तम स्थान मोक्ष को प्राप्त कराता है।
4. नृयज्ञ:- नृ यज्ञ का तात्पर्य ब्राह्मणों, अतिथियों तथा भिक्षुओं का भोजनादि द्वारा सत्कार करने से है। इसे ‘अतिथि यज्ञ’ के नाम से भी जाना जाता है। भारतीय संस्कृति में अतिथि को देवता के समान माना गया है। कहा भी गया है - ‘‘अतिथि देवो भव।’’ अतिथियों के प्रति गृहस्थों के हृदय में सेवा की भावना उत्पन्न करना इस यज्ञ का प्रमुख प्रयोजन है। कहा गया है कि ‘ पूर्ण विद्वान्, जितेन्द्रिय, धार्मिक, सत्यवादी, छल‘कपट रहित तथा प्रतिदिन भ्रमण करने वाला व्यक्ति ‘अतिथि’ कहलाता है। अतिथि सेवा का अपना विशेष महत्त्व है। अन्नादि के अभाव में तृण, भूमि, जल एवं मधुर वचनों से ही अतिथि का सत्कार करना चाहिए। नृयज्ञ का वत्र्तमान युग में भी महत्त्व कम नहीं है। व्यक्ति-व्यक्ति के प्रति सम्मान एवं प्रेम की भावना प्रदर्शित करना हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है। अतिथि के रूप में आए हुए व्यक्ति का अपमान कदापि नहीं करना चाहिए। अतिथि के लिए आसन, विश्रामस्थल, शय्या, अनुगमन और सेवा का अवसर पुण्यात्मा को ही मिलता है। अतः अतिथि सत्कार में कमी नहीं करना चाहिए।
5. पितृयज्ञ:- यद्यपि पितृयज्ञ के द्वारा माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनों की सेवा-शुश्रुषा का विधान किया गया है तथापि सामान्यतया इस यज्ञ से मृत पितरों से सम्बन्धित तर्पण आदि भाव को ग्रहण किया जाता है। अन्न की बलि के द्वारा इसमें पितरों को तृप्त किया जाता है। पितृ यज्ञ मुख्यतः दो प्रकार के कहे गए हैं - (क) श्राद्ध (ख) तर्पण। (क) श्राद्ध:- ‘‘श्रत्सत्यम् दधाति यया क्रियया सा श्रद्धा यत् क्रियते तच्छ्राद्धम्।’’ अर्थात् जिस क्रिया के द्वारा सत्य का ग्रहण हो, उसे श्रद्धा कहते हैं और श्रद्धा से सम्पादित कर्म को श्राद्ध कहा जाता है। (ख) तर्पण:- जिस जिस कर्म से तृप्त अर्थात् विद्यमान माता-पिता प्रसन्न हं वही तर्पण है। ‘‘तृप्यन्ति तर्पयन्ति येन पितृन् तत् तर्पणम्।’’ प्रायः देखा जाता है कि वयक्ति अपने वृद्ध माता-पिता-गुरुजनों की सेवा शुश्रुषा नहीं कर पाता है। अतएव माता-पिता असंतुष्ट रहा करते हैं। इसलिए वैदिक ऋषियों ने ऐसी परिस्थिति नहीं आने देने के लिए पितृ यज्ञ का विधान किया है। जिससे बड़े-बुजुर्ग संतुष्ट रह सकें। इस प्रकार पितृयज्ञ समाज कल्याण हेतु अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। कर्मकाण्ड कीदृष्टि से परे भी इसका अत्यधिक महत्त्व है। यह यज्ञ भारतीय संस्कृति एवं नैतिकता का आधार स्तम्भ कहा जा सकता है क्योंकि हमारे उपनिषद् भी कहते हैं - ‘‘मातृ देवो भव’’, ‘‘पितृ देवो भव’’, ‘‘आचार्य देवो भव।’’ निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि पंच महायज्ञों में वर्णित पितृयज्ञ समाज को एक नई दिशा प्रदान करने के लिए है, जो आज भी प्रासंगिक है। -----------
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