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Showing posts from September, 2019

‘‘ऐतिहासिक महाकाव्यों का संक्षिप्त परिचय’’

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                                                                               भारत में ऐतिहासिक परम्परा पुरानी है। पाश्चात्य विद्वानों ने भारतीयों के विषय में यह दुष्प्रचार किया है कि उनमें ऐतिहासिक चेतना का अभाव था किन्तु राजतरङ्गिणी आदि ऐतिहासिक काव्यग्रन्थ इस आक्षेप का पर्याप्त अंश तक निराकरण करते हैं। वस्तुतः जिस अर्थ में पाश्चात्य जगत् में इतिहास का अर्थ लिया जाजा है उस अर्थ में हमारे यहाँ बहुत कम ग्रन्थ हैं क्योंकि इतिहास की हमारी कल्पना हीं पृथक् थी। प्राचीन घटनाओं का सामान्यतः विवरण तासे लोग देते थे, किन्तु उनके साथ तिथियों को अंकित नहीं करते थे। इस अर्थ में महाभारत इतिहास ग्रन्थ कहा गया है। वैदिक साहित्य के अनुशीलन से पता चलता है कि इतिहास लिखने वालों का एक अलग सम्प्रदाय था। इतिहास के अन्तर्गत घटनाओं का सच्चा विवरण दिया जाता था।     राजशेखर के अनुसार ‘परिक्रिया’ और ‘पुराकल्प’ - ये इतिहास के दो भेद होते हैं, जिसमें एक नायक होता है उसे परिक्रिया कहते हैं। रामायण, नवसाहसाङ्कचरित, विक्रमाङ्कदेवचरित आदि ग्रन्थ इसी विधा में आते हैं। पुराकल्प वह इतिहास है, जिसमें अनेक नायकों क

संस्कृत और आधुनिक ज्ञान समाज

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                                                                                                                                                                                                                                                                                                              डाॅ0 धनंजय कुमार मिश्र *    संस्कृत शब्द ‘सम्’ उपसर्गपूर्वक ‘कृ’ धातु से ‘क्त’ प्रत्यय जोड़ने पर बना है जिसका अर्थ है - संस्कार की हुई, परिमार्जित, शुद्ध अथवा परिस्कृत। संस्कृत शब्द से आर्यो की साहित्यिक भाषा का बोध होता है। भाषा शब्द संस्कृत की ‘भाष्’ धातु  से निष्पन्न हुई है। भाष् धातु का अर्थ व्यक्त वाक् (व्यक्तायां वाचि) है। महर्षि पत×जलि के अनुसार - ‘‘व्यक्ता वाचि वर्णा येषा त इमे व्यक्त वाचः  ‘‘  अर्थात्- भाषा वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचार दूसरों पर भली भांति प्रकट कर सकता है और दूसरों के विचार स्वयं स्पष्ट रूप से समझ सकता है।     भाषा मानव की प्रगति में विशेष रूप से सहायता करती है। हमारे पूर्वपुरूषों के सारे अनुभव हमें भाषा के माध्यम से ही प्राप्त हुए हैं। हमारे स

‘‘वर्णाश्रम धर्म की वर्तमान भारत में उपादेयता’’

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                                                                                      डाॅ0 धनंजय कुमार मिश्र*                                            भले ही आज के इस समाजवादी युग में वर्ण व्यवस्था की अनुपयोगिता के लिए कट्टर आलोचना की जाए परन्तु आज भी विभिन्न परिस्थियों में इसकी उपयोगिता असंदिग्ध है। स्मृतियाँ समाज को चार वर्गो में वर्गीकृत करती हैं - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। यह चातुर्वर्ण्यव्यवस्था भारतीय संस्कृति की प्राचीन समाजिक व्यवस्था है। इन चार वर्गो के कर्तव्य, उनके पालन की व्यवस्था तथा उनके उल्लंघन करने पर दण्ड का विधान आदि इस व्यवस्था के अन्तर्गत आते है। जिस प्रकार चार वर्णो में सारा समाज वर्गीकृत किया गया है, उसी प्रकार समाज के एक व्यक्ति का जीवन चार आश्रमों में विभक्त किया गया है - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। वर्णो और आश्रमों की इस सामाजिक व्यवस्था को हीं ‘वर्णाश्रमधर्म’ के नाम से पुकारा जाता है। भारत जिस प्रकार कृषिप्रधान देश है उसी प्रकार यह ऋषिप्रधान भी है। प्राचीन आर्षग्रन्थ हमें वर्णाश्रम धर्म की विस्तृत जानकारियाँ उपलब्ध कराती हैं। वर्

धर्मशास्त्र

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                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                  धनंजय कुमार मिश्र*         धर्मशास्त्र उस शास्त्र को कहते हैं जिसमें राजा-प्रजा के अधिकार, कर्Ÿाव्य, सामाजिक आचार विचार, व्यवस्था, वर्णाश्रमधर्म, नीति, सदाचार और शासन सम्बन्धी नियमों की व्यवस्था का वर्णन होता है। विशिष्टरूप से स्मृति-ग्रन्थों को धर्मशास्त्र का पर्याय माना जाता है। इस प्रकार स्मृति ग्रन्थों को ही धर्मशास्त्र के रूप में जाना जाता है - ‘‘धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः।’’          संस्कृत साहित्य में 18 स्मृतियाँ हैं, जो भिन्न-भिन्न ऋषियों  द्वारा रचित धर्मशास्त्र हैं। जैसे - मनुस्मृति महर्षि मनु द्वारा रचित है। इसी प्रकार याज्ञवल्क्य, अत्रि, विष्णु, हारीत, उशमस्, अंगिरा, यम, कात्यायन, वृहस्पति, पराशर, व्यास, दक्ष, गौतम, वशिष्ठ, नारद, भृग

आधुनिक युग में स्वामी विवेकानन्द की प्रासंगिकता

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                                                                                                                       धनंजय कुमार मिश्र* इस संसार में मनुष्य योनि से बढ़कर और कुछ भी नहीं। मनुष्य प्रयास से अपने अन्दर दैवी गुणांे को समाहित करने मंे समर्थ है तथा पाश्विक वृत्ति को स्वीकार कर वह समस्त ब्रह्माण्ड मंे खुद को पतित सिद्ध कर सकता है। मूल्य परायण सुसंस्कृत व्यक्तित्व का निर्माण मनुष्य का लक्ष्य होता है जो परिवार से विश्व तक सुख-शांति और समृद्धि का वातावरण प्रशस्ततर करता है। जबतक मूल्य के स्वरूप का बोध नहीं होता है, कार्य रूप मंे स्वीकार नहीं किया जाता, अपने अन्दर उसे गुम्फित न किया जाता तब तक सुसंस्कृत व्यक्तित्व का निर्माण असंभव है।             मानव मन की दो गतियाँँ होती हैं - प्रवृत्ति और निवृत्ति। इन दोनों मंे निवृत्ति श्रेष्ठ होती है परन्तु यदि प्रवृत्ति लोकपरायणा या लोकोपकारिका हो तो वह भी श्रेयस्करी समझी जाती है। खुद को छोड़ परोन्मुखी भाव हीं मानवीय चेतना होती है। महान ऋृषि-मुनि तपस्वी महात्मा जीवन के सम्यक् संचालन के लिए जिस मार्ग को स्वीकार करते हैं वही आजतक हमारे आदर्श म

जयदेव कृत गीतगोविन्दम्

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                                                                                                                                                                    धनंजय कुमार मिश्र संस्कृत-गीति काव्य की परम्परा में महाकवि जयदेव का विशिष्ट स्थान है। इन्होंने गीतगोविन्द काव्य की सृजना की है। कृष्णलीला पर रचित गीतगोविन्द एक मौलिक, ललित एवं गेय कृति है। यह जयदेव की लोकप्रिय रचना है। जयदेव बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन के आश्रित कवि थे। ये किन्दुबिल्व निवासी भोजदेव के पुत्र थे। इनकी माता का नाम रामादेवी था। महाकवि जयदेव राजा लक्ष्मणसेन की राजसभा के प्रमुख रत्न कहे जाते हैं। एक श्लोक इस बात को सिद्ध भी करता है-         ‘‘ गोवर्द्धनश्च शरणो      जयदेव उमापतिः।          कविराजश्च रत्नानि समितौ लक्ष्मणस्य च।। ’’ इतिहासकार ग्यारहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध जयदेव का समय निर्धारित करते हैं।                गीतगोविन्द में 12 सर्ग हैं। प्रत्येक सर्ग गीतों से समन्वित हैं। सर्गों को परस्पर मिलाने के लिए तथा कथा के सूत्र को बतलाने के लिए कतिपय वर्णात्मक पद्य भी हैं। गीतगोविन्द भगवती संस्कृत-भारत

वेदामृतम्

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                                                                                                                                               (1) ऊॅं भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।।    (यजुर्वेद 36/3)                             (2)   स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः। स्वस्ति नस्ताक्ष्र्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो वृहस्पतिर्दधातु।।  (सामवेद 21/3/9)                                     (3)   पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं श्रृणुयाम शरदः शतं प्र ब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्यामशरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्।।  (यजुर्वेद 36/24)                                 (4)   पश्येम शरदः शतम् जीवेम शरदः शतम्। बुध्येम शरदः शतम् रोहेम शरदः शतम्।। पूषेम शरदः शतम् भवेम  शरदः शतम्। भूयेम शरदः शतम् भूयसीः शरदः शतात्।।(अथर्ववेद 19/67/1-8)                                  (5) जिह्वाया अग्रे मधु मे जिह्वामूले मधूलकम्। ममेदह  क्रतावसो   मम   चित्तमुपायसि।।      (अथर्ववेद 1/34/2)                                  (6) सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु

ईशावस्योपनिषद्

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                                                                                                   ऊॅं पूर्णमदःपूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदुच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।। ऊॅं ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।। 1।।   कुर्वन्नेवेह  कर्माणि   जिजीविषेच्छतं   समाः। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।। 2।।   असूर्याः नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः। तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः।। 3।।   अनेजदेकं मनसो जवीयो    नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्षत्। तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठŸास्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति।।4।।   तदेजति   तन्नैजति   तद्दूरे   तद्वन्तिके। तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः।। 5।।                     यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति। सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते।। 6।।   यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद् विजानतः। तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वपदुपश्यतः।। 7।।   स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्। कविर्मनीषी    परिभूः    स्वयम्भूर्याथातव्यतोऽर्थान्व्य