‘‘महिला सशक्तिकरण: दिशा, आयाम एवं भविष्य’’

 
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                                                                                                                  धनंजय कुमार मिश्र  



यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते      रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते   सर्वास्तत्राफलाः क्रिया।।

           
                     महर्षि मनु का यह श्लोक महिला सशक्तिकरण का बीजमन्त्र पतीत होता है। मानव जीवन का रथ एक चक्र से नहीं चल सकता। समुचित गति के लिए दोनों चक्रों का विशिष्ट महत्व है। गार्हस्थ जीवन की अपेक्षा होती है- सहयोग और सद्भावना की। स्त्री केवल पत्नी नहीं होती, अपितु वह योग्य मित्र, परामर्शदात्री, सचिव, सहायिका भी होती है। भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति सदैव एक समान न होकर अत्यधिक आरोह-अवरोह से युक्त दिखाई देती है।
                   विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ ‘ऋग्वेद’ के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि तात्कालीन समाज में महिलाएँ अपनी सशक्त भूमिकाओं का निर्वाह करती थी। महिलाएँ वेदाध्ययन ही नहीं करती अपितु मन्त्रों की द्रष्टा भी थी। ऋग्वेद की अनेक सूक्तों की दर्शनकत्र्री स्त्रियाँ थी। ब्रह्मवादिनी ‘घोषा’ रचित ऋग्वेद के दशम मण्डल के सूक्तों ( 39वाँ एवं 40वाँ ) को कौन नजरअंदाज कर सकता है। स्पष्ट है कि स्त्रियाँ शिक्षिता होती थी। लोपामुद्रा, सूर्या, विश्वावारा, अपाला ऋषिकाओं को कौन भूल सकता है। इनके द्वारा रचित सूक्त स्मरणीय एवं पठनीय बने हुए हैं। ‘वृहस्पति’ की पत्नी ‘जूहू’,विवस्वान की पुत्री यमी, ऋषिका श्रद्धा,सर्पराज्ञी केवल मंत्रों की रचयित्री ही नही अपितु कवयित्री भी थी। महिलाएँ कविताएँ करतीं, गायन करतीं तथा नृत्यकला को भी जानती थी। जहाँ तक रही बात उनके सशक्तिकरण की तो हमें नहीं भूलना चाहिए कि नारी को ‘गृहिणी’ का पद प्राप्त था। पत्नी गृहिणी के पद से ही पति की आवश्यकताओं को पूरी करती थीं। ऋग्वेद में सूर्या के विवाह के अवयर पर नारी के गृहिणी पद का वर्णन अतीव सजीव है। ‘गृह में प्रवेश करो और गृहिणी बनकर सब पर शासन करो ’- यह उपदेश महिला सशक्तिकरण की एक झलक मात्र है। गृहिणी पति के साथ समस्त धार्मिक कार्यो का सम्पादन करती थी। गृहिणी के अतिरिक्त परमात्मा ने नारी को ‘मातृपद’ प्रदान किया। पारिवारिक जीवन में माता का पद अमृत के समान है। उपनिषद् ने ‘मातृ देवो भव’ का घोष कर महिला सशक्तिकरण का शंखनाद किया है।
       
                  वैदिक साहित्य में अनेक स्थलों पर नारी मातृत्वपद का मनोरम वर्णन है। यज्ञभूमि की तुलना माता से की गई है। ‘ जिस प्रकार पुत्र अपनी माता की गोद में आकर स्नेह पूर्वक बैठता है उसी प्रकार विश्वेदेव प्रेमपूर्वक यज्ञभूमि में आकर बैठते हैं।’ मातृपद के अतिरिक्त भारतीय नारी को सहचरी भी कहा गया है। निश्चित रूप से ऋग्वेद कालीन समाज में पति-पत्नी को एक दूसरे का पूरक कहा गया है। उनका साहचर्य देखकर कहा जा सकता है कि महिलाओं को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था।
      
             प्राचीन काल से ही स्त्रियों की स्थिति सम्मानजनक थी। स्त्री शिक्षा का महत्व सभी जानते थे। मण्डन मिश्र की पत्नी स्वयं परम विदुषी थी। कालिदास की पत्नी विद्दोतमा कैसी पण्डिता थी, यह प्रसिद्ध ही है। वैदिक परम्परा में स्त्री शिक्षा पुरूष शिक्षा की तरह अनिवार्य थी। ध्रुव सत्य है कि नारी शक्तिकरण की आधारशिला शिक्षा हैै। शिक्षिता नारी, शिक्षिता माता, शिक्षिता भगिनि, शिक्षिता पत्नी, शिक्षिता दुहिता बनकर हीं भारतीय नारियों ने विश्वकल्याण की कल्पना की है।
  
  भारतीय इतिहास के पन्ने नीरियों की गौरव गाथा से भरी हुई है। देवासुर संग्राम में कैकेयी ने अपवनी अद्वितीय युद्ध कौशल से राजा दशरथ को भी चकित कर दिया था। सीता की कहानी सभी जानते हैं। द्रौपदी ने अपनी योग्यता से पाण्डवों को प्रेरित किया। निश्चित रूप से प्राचीन भारतीय महिलायें सशक्त थी। शकुन्तला, अनुसूया, दमयन्ती, साचित्री आदि जगत् प्रसिद्ध महिलाओं का इतिहास बरबस हमें सोचने को विवश कर देता है। गार्गी, मैत्रेयी, अनसुया, अहिल्या, सीता, द्रौपदी, रूक्मिणी, तारा, मंदोदरी, कुन्ती, गान्धारी आदि न जाने कितनी नारियाॅ हो चुकी है जिसपर भारतवर्ष सदियों से गर्व करते आ रहा है। इनके पावन चरित्रों को गाते सुनते हम, उनके अपने-अपने कार्य क्षेत्र में विशिष्ट योगदान को नहीं सकते।
        
           वैदिक काल से लेकर मध्यकाल के प्रारम्भिक अवस्था तक, भारतवर्ष में महिलाओं की स्थिति किसी भी मायने में पुरूषों से कमतर नहीं थी। वैदिक मंत्र - ‘सङ्गच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्’ को मानते हुए स्त्रियाॅं पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर प्रगति के पथ पर अग्रसर होती हुई, अपने सशक्तिकरण का मजबूत स्तम्भ प्रस्तुत कर, जगत् के सामने उपस्थित होती रही। कुछ तथाकथित विद्वान इतिहासकार गलत व्याख्या कर भले हीं हमारे अतीत पर कीचड उछालें, परन्तु यही सच है कि हमारी-भारतीय संस्कृति के अनुरूप ही त्याग और तपस्या की प्रतिमूर्ति समान नारी समाज का अतीत गौरवमयी है।

      मध्यकाल में स्त्रियों की स्थिति दुःखदायिनी कही जा सकती है। विदेशी आक्रमण से भारतीय समाज की दशा चिन्तनीय हो गयी। नारियों के अधिकार कम हुए। समाज में अशिक्षा, बाल-विवाह, सती-प्रथा, पर्दा-प्रथा, कन्या-हत्या आदि का प्रचलन हो गया। शायद इन्हीं बातों से आहत होकर गोस्वामीजी ने ‘रामचरितमानस’ में कहा-

              कत बिधि सृजीं नारी जग माहीं।
              पराधीन सपनेहूँ     सुख नाहीं।।


नारियाँ विवशता की प्रतिमा बन गईं। मैथिलीशरण गुप्त ने अतीत के गौरवशाली इतिहास तथा वर्तमान में नारियों की दुर्दशा देखकर कह हीं दिया-

             अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी।
             आँचल में है दूध  और आँखों में  पानी।।


परन्तु इसी मध्यकाल में महारानी लक्ष्मीबाई की गौरवगाथा का स्मरण अंग्रेज इतिहासकारों ने भी श्रद्धा से किया है। यदि उस वीरांगना को कुछ देशी राजाओं से थोडी सी भी मदद मिल गई होती तो अंग्रेजी राज का इतिहास हीं कुछ और होता। सुभद्रा कुमारी चैहान की यह पंक्ति रोंगटे खडे करने के लिए काफी है-

         बुंदेले हर बोलों के मुँह, हमने सुनी कहानी थी।
         खूब लडी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।।


थोडा और पीछे चलें, तो हम देखते हैं कि महाराणा प्रताप की बहन ने राज्य-लिप्सा, भोग-लिप्सा में लिप्त अकबर को धूल चटा दी थी। बीजापुर की शासिका ‘चाँद बीबी’ की वीरता का स्मरण समस्त भारतवासी श्रद्धा से करते हैं। रानी रूपमती, रानी पद्मावती का जौहर हमें बहुत कुछ बता जाता है।
  
भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम में भी नारियों की स्थिति एवं उपस्थिति द्रष्टव्य है। मैडम कामा, अरुणा आसफ अली, विजयलक्ष्मी पण्डित, श्रीमती इन्दिरा गाँधी, सरोजनी नायडू, कमला नेहरू ऐसे नाम हैं जो कभी भूलाये नहीं जा सकते। आधुनिक भारत में महिलाओं की सशक्तिकरण की नींव इन्हीं लोगों ने डाली, यह कहना समीचीन होगा।
     स्वतंत्र भारत में श्रीमती इंदिरागाॅंधी ने अपने अदम्य-साहस, राजनीतिक सूझ-बूझ और देश-प्रेम के कारण विभिन्न विकासात्मक कार्यों से भारत का कायाकल्प कर दिया। ‘हरित-क्रांति’ लाकर देश को खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्म निर्भर बनाया, बैंकों का राष्टीªयकरण कर गरीबों का कल्याण किया, सैन्य-शक्ति पर ध्यान देते हुए भारत की सुरक्षा को मजबूती दी, विज्ञान एवं तकनीकि के क्षेत्र में देश को आत्मनिर्भर बनाने की भरपूर कोशिश की, पोखरण में परमाणु विस्फोट कर अपने दृढ क्षमता लोहा मनवाया,‘बीस-सूत्री कार्यक्रम’ देकर देश को प्रगति के पथ पर ला खडा किया। भारत में सिक्किम का विलय और बांग्लादेश का अभ्युदय इंदिरा जी के कूटनीतिक कौशल का प्रमाण हे। आज देश में महिला सशक्तिकरण अपने चरम उत्कर्ष पर है। प्रशासन के क्षेत्र में , चिकित्सा एवं शिक्षा के क्षेत्र में, सैन्य सेवा के क्षेत्र. में, विज्ञान के क्षेत्र में महिलाए अपनी सशक्त भूमिकाओं का निर्वाह कर रही है। महिलायें इच्छानुकूल भविष्य निर्माण की ओर बढती जा रही है।   चिकित्सा एवं अध्यापन के क्षेत्र में स्त्रियों का वर्चस्व निरंतर बढता जा रहा है। सैन्य सेवा में भी इनकी रुचि बढी है। केन्द्रीय एवं प्रादेशिक पुलिस सेवा में महिलाओं की सशक्त भूमिका को देखकर उनके अदम्य उत्साह से हृदय प्रफुल्लित होता है। सामान्य कर्मचारी से प्रशासनिक पदों तक स्त्रियों का विराजमान होना आधुनिक भारत में महिला सशक्तिकरण का अनुपम दृश्य है। कार्पोरेट जगत के उच्च पदों पर महिलाओं का कार्य सराहनीय है। भारत के प्रथम नागरिक के रुप में डा0 प्रतिभा देवी सिंह पाटिल को पाकर सम्पूर्ण विश्व भारत के प्रति कृतज्ञ है। राष्ट्रपति , लोकसभा अध्यक्ष जैसे अतिसंवेदनशील राजनैतिक  पदों पर महिलाओं का आना महिला सशक्तिकरण की पराकाष्ठा है।
वर्तमान भारत वर्ष में महिला सशक्तिकरण की दिशा असीम तथा आयाम अनन्त है। संसद में महिलाओं के 33 प्रतिशत आरक्षन की ध्वनि अब समस्त विश्व में गुँजायमान हो रही है।‘‘ सिंहासन खाली करो अब महिलाएँ आती हैं’’ की बुलंद आवाज समस्त विश्व में सुनाई दे रही है। शिक्षा के बढते प्रचार की वजह से महिलाओं को अपनी इच्छा के अनुकूल अपने भविष्य का निर्माण करने का समुचित अवसर मिल रहा है। वकालत एवं न्याय विभाग में महिलाओं की रुचि देखकर ऐसा लगता है कि उनके कदम विश्व की समस्त बुलंदियों को स्पर्श करने के बाद हीं रूकेंगी।
     यद्यपि महिलाओं का विकास चतुर्दिक हो रहा है तथापि ग्रामीण परिवेश में अशिक्षा के कारण हृदय में पीडा होती है। आशा है दहेजप्रथा, डायन प्रथा, वैश्यावृति  सम्बन्धी समस्याएँ भी अब अतीत की बातें हांेगी । 21वीं सदी का भारत नारियों का भारत होगा, ऐसा विश्वास है। विकसित भारत के हर क्षेत्र में नारियों की भागीदारी बढ रही है। उनका आपेक्षिक विकास पुरुषों की तुलना में काफी आगे है। पुरुष सत्तात्मक-समाज की कल्पणा अब बेइमानी है। उत्तर-पूर्वी राज्यों में महिलाओं का विशिष्ट योगदान है।कुचीपुडी, गरबा , कत्थक,मणिपुरी, डांडिया आदि में महिलाओं का योगदान ज्यादा है। भारतीय संस्कृति तथा कला के क्षेत्र में महिलाओं की रुचि हर्षदायक है। संगीत, सिनेमा, दूरदर्शन, विज्ञान, खेल, राजनीति, व्यवसाय, उद्योग, कला, पर्यटन, आदि समस्त क्षेत्रों में इनकी भागीदारी पुरुषों से कतई कम नहीं। गुणात्मक- रुप से इनके कार्यों में वृद्धि निश्चिततौर पर संख्या वृद्धि को भी मूर्त रुप देने लगी है। व
     वर्तमान भारत में श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल, श्रीमती सोनिया गांधी, मीरा कुमार, मायावती, सुषमा स्वराज, उमा भारती, ममता बनर्जी, लता मंगेशकर, आशा भोंसले, अनुराधा पौडवाल, किरण बेदी, कर्णम मल्लेश्वरी, सानिया मिर्जा, ऐश्वर्या राय, प्रियंका चोपडा, प्रियंका गांधी बढेरा, अंजुम चोपडा, मेधा पाटकर, कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स, मदर टेरेसा, सुचेता कृपलानी, साइना नेहवाल, सुष्मिता सेन, लारा दत्ता, भूमि त्रिवेदी आदि सहस्राधिक नाम ऐसे हैं जो महिला सशक्तिकरण के आधार स्तम्भ के रुप में जाने जाते हंै। 
     अंत में एक पक्ष और है- आज महिला सशक्तिकरण के इस दौर में पाश्चात्य भौतिकवादी सभ्यता का भी प्रकोप हो रहा है। स्त्रियाँ बाह्य आडम्बरपूर्ण जीवन को सार समझकर भोगवादी पथ पर, धनलिप्सा से ग्रसित भी हो रही हैं। यह उन्हें अपने कर्तव्य पथ से विचलित कर रहा है , जो दुःखदायिनी है। भारतीय नारियों को इस बात का ध्यान रखते हुए हीं कर्तव्य पथ पर चलना चाहिए। उपनिषद् की मातृशक्ति, विश्व की आदिशक्ति , आज की सामाजिकशक्ति-रुपा महिलाओं को त्यक्तेन भुंजीथाः का सदैव स्मरण करना चाहिए।
    निष्कर्षतः महिलाओं के सशक्तिकरण से ही परिवार, समाज, राष्ट्र एवं अखिल विश्व का कल्याण है। सरस्वती, लक्षमी एवं दुर्गा का वास्तविक स्वरुप महिलाओं में दृष्टिगोचर हो ऐसी कामना है। विश्व के विकास में स्त्रियों की भागीदारी-यही आज की मांग है, जो उचित है।

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विभागाध्यक्ष (संस्कृत) एस0पी0 काॅलेज,
सिदो कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय, दुमका झारखण्ड

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