विद्रोही नागार्जुन


                                                                    20190413_124949.jpg           


    अपनी अपूर्व काव्य प्रतिभा के कारण पावन भागीरथी सलिल प्रवाह की भाॅंति सतत प्रवाहमान हिन्दी साहित्य में सर्वत्र अपनी अतुलनीय रस-राग पराग सौरभ से अपनी ओर आकृष्ट कर हृदय को सरलतम सूक्तियों से आनंदित करने वालों में सर्वश्रेष्ठ सुरभारती के वक्ष-स्थल पर नक्षत्रों की मणिमाला में ध्रुवतारा की भांति सदैव नियत स्थान पर समारुढ होकर अप्रतिम प्रतिभा से चकाचैंध करने वाले फक्कड , यात्री , विद्रोही इत्यादि उपाधियों से विभूषित साहित्य मर्मज्ञ के पद पर आसीन कविकर नागार्जुन मात्र काव्यकार हीं नहीं सफल उपन्यासकार भी थे।
    
        नागार्जुन का वास्तविक नाम वैद्यनाथ मिश्र था। साहित्य साधना में उपनाम नागार्जुन रुप में लिखते थे। साहित्य जगत में इनकी प्रसिद्धि ‘नागार्जुन’ नाम से हीं है। नागार्जुन का जन्म 1911ई0 में बिहार प्रान्त के तिरहुत प्रमंडल, दरभंगा जिला मिथिलांचल सतलखा तरौनी नामक गांव में हुआ था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव की संस्कृत- पाठशाला में परंपरागत पद्धति से हुआ। कालान्तर में स्वाध्याय के द्वारा इन्होंने हिन्दी , बंगला, संस्कृत , मैथिली आदि भाषाओं में व्यापक ज्ञान अर्जित किया । कविकर नागार्जुन की मातृभाषा मैथिली थी । किशोरावस्था में हीं कविता लिखने में रुचि हो गई।कविता की शुरुवात मैथिली भाषा में की।
    
      नागार्जुन स्वभावतः भ्रमणशील एवं घुमक्कड प्रविृŸिा के थे। सन् 1936ई0 में वे श्रीलंका गये और बौद्ध भिक्षुओं के सम्पर्क में बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली तथा बौद्ध साहित्य का अध्ययन किया। दो वर्ष बाद स्वदेश लौटकर स्वतंत्र विषय को अनना लक्ष्य बना लिया।
    
     नागार्जुन प्रगतिवादी विचारधारा के कवियों में अपनी स्पष्टवादिता, सहजता और वयंगात्मकता के कारण असाधारण स्थान रखते हैं। सामाजिक कुरितियों और आर्थिक शोषन की कुत्सित नितीयों पर तीखा व्यंग लितना इनके साहित्य में मिलता है उतना और कहीं नहीं । परतन्त्र भारत में शासन की शोषणपरक नीतियों का सजीव , सुन्दर और सटीक वर्णन कर शासक के कोपभाजक बनकर कारावास का दण्ड भोगने वाले कवि नागार्जुन ने जेल में भी मौज-मस्ती के साथ कविताएॅं लिखी।

       
        नागार्जुन ने जीविका चलाने के लिये कभी भी नियमित रूप से किसी पेशा को स्वीकार नहीं किया। रूचि के अनुरुप काम मिला तो जब तक मन लगा, काम किया; मन उचटा तो निकल पडे अपनी दूसरी यात्रा पर। साहित्य साधना का यह ‘यात्री’ कभी भी एक जगह जडता की स्थिति में नहीं रहा। कुछ समय तक मासिक पत्रिका ‘दीपक’ तथा साप्ताहिक पत्र ‘विश्ववन्धु’ का सम्पादन किया जिसमें सदैव प्रगतिशील विचारधारा को हीं प्रश्रय दिया।
 
       नागार्जुन साहित्य और राजनीति में विशेष रूचि रखने वाले प्रबुद्ध नागरिक थे। कभी भी शासन एवं सत्ता की चाटुकारिता नहीं की। व्यक्तिक जीवन में भी राजनेताओं पर रूब व्यंग्य किया।

       नागार्जुन की कृतियों में युगधारा, प्यासी पथराई आॅंखें, सतरंगे पंखों वाली, तालाब की मछलियाॅं, तुमने कहा था, हजार-हजार बाहों वाली, पुरानी जूतियों का कोरस, चंदना, भस्मांकुर, भूमिजा        ( खंडकाव्य) पत्रहीन नग्न गाछ( मैथिली) ,अपने खेत में, खिचडी विप्लव देखा हमने, पका है यह कटहल, मैं मिलिट्री का बूढा घोडा (कविता-संग्रह), धर्मलोक शतकम्(संस्कृत-काव्य), चित्रा,पारो( मैथिलीउपन्यास) , धर्मलोक शतकम्(संस्कृत काव्य) , रतिनाथ की चाची , वरुण के बेटे, बाबा बटेसर नाथ, बलचनमा, दुःखमोचन नई पौध आदि उपन्यास का नाम सर्वविदित है। इसके अतिरिक्त संस्कृत की कुछ अनूदित कृतियाॅं भी नागार्जुन की हैं। नागार्जुन मैथिली में प्रायः ‘यात्री’ नाम से रचना करते थे।
   
        मैथिली काव्य संग्रह ‘पत्रहीन नग्न गाछ’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से इन्हें सम्मानित किया गया । मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, भारत-भारती पुरस्कार, उŸार प्रदेश हिन्दी संस्थान पुरस्कार आदि कई सम्मानों एवं पुरस्कारों से सम्मानित एवं पुरस्कृत श्री वैद्यनाथ मिश्र ‘यात्री’ और हमारे नागार्जुन 5 नवम्बर, 1998 को अपनी भौतिक काया को छोडकर परब्रह्म में लीन हो गए।
     
              नागार्जुन की साहित्य सेवा एवं साधना सदैव सच्चे अर्थो में स्वाधीन भारत के प्रतिनिधि जन-कवि के रुप में उन्हेें भारत में जीवित रखेगा।      
             

                              ------------
                                        
        * धनंजय कुमार मिश्र, विभागाध्यक्ष- संस्कृत, संताल परगना महाविद्यालय, दुमका
                              

Comments

Popular posts from this blog

संस्कृत साहित्य में गद्य विकास की रूप रेखा

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी

गीतिकाव्य मेघदूतम्