गीतिकाव्य मेघदूतम्

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                                                           धनंजय कुमार मिश्र’

                महाकवि कालिदास का नाम न केवल भारत में अपितु सम्पूर्ण धरातल पर इनकी महती प्रसिद्धि है। कविकुलगुरु के रूप में  कालिदास सबके द्वारा स्वीकृत हैं। इंगलैण्ड के लोग उन्हें दूसरा ‘शैक्सपीयर’ कहते हैं। इटलीवासी इनकी तुलना अपने सर्वश्रेष्ठ कवियों ‘दान्ते’ एवं ‘वर्जिल’ से करते हैं परन्तु हम भारतीयों की तरह जर्मणीवासी उन्हें विश्वकवि कहकर उनके व्यक्तिŸव एवं कृतित्व की प्रशंसा करते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि महाकवि कालिदास संस्कृत साहित्य के सफलतम कवियों एवं नाटककारों में अग्रगण्य हैं।
                     दीपशिखा कालिदास रचित सात रचनाएॅं - मेघदूतम्, ऋतुसंहारम्, रघुवंशम्, कुमारसंभवम्, मालविकाग्निमित्रम्, विक्रमोर्वशीयम् और अभिज्ञानशाकुन्तलम् विश्वप्रसिद्ध हैं। कालिदासीय सप्त ग्रन्थों में मेघदूतम् का अपना विशेष महŸव है। मेघदूतम् एक सफल एवं अपूर्व गीतिकाव्य है जिसकी गणना  ‘लघुत्रयी’ में की जाती है। गीतिकाव्य खण्डकाव्य हीं होता है परन्तु इसमें  कल्पना, भावना और संगीत अनिवार्य रूप  से होता है।
        ‘‘खण्डकाव्यं भवेत्काव्यस्यैकदेशानुसारि च’’ - के अनुसार खण्डकाव्य महाकाव्य से छोटा धार्मिक, नैतिक या श्रृंगारिक विषयों में से किसी एक का वर्णन करने वाला होता है। कथावस्तु प्रायः कविकल्पित होती है। स्वरूप की दृष्टि से गीतिकाव्य तीन प्रकार के होते हैं- प्रबन्धात्मक, निबन्धात्मक और मुक्तक।
                       गीतिकाव्य की जो विशेषताएॅं काव्यशास्त्रियों ने बताई है उस कसौटी पर महाकवि कालिदास का मेघदूतम् एक सफलतम गीतिकाव्य कहा जा सकता है।मेघदूत में कल्पना, भावना और संगीत की त्रिवेणी का संगम है।
                       प्रकृतिप्रेम, शुद्ध श्रृंगारिक एवं धार्मिक भक्ति- इन तीन भावनाओं का समन्वय है। मुख्यतया श्रृंगाारिक भावना प्रधान है। प्रकृति-प्रेम की भावना श्रृंगाारिक भावना का उद्दीपक है। भक्ति-भावना श्रृंगाारिक भावना के उदाŸाीकरण के लिए है। इससे प्रेम की निर्मलता एवं पवित्रता बरकरार है। स्वरूप की दृष्टि से मेघदूतम् एक प्रबन्धात्मक-श्रृंगाारिक-गीतिकाव्य है।
                 मेघदूत एक विरही, कामपीड़ित यक्ष की भावनाओं का मूर्Ÿा रूप है। काम के वशीभूत हो अपने कर्Ÿाव्य में प्रमाद कर यक्ष ने अपराध किया है। अपराध के दण्ड स्वरूप उसे एक वर्ष तक प्रिया से वियुक्त होकर दूर रहने की सजा मिली है। वह शापित है। शाप-दण्ड भोगने के लिए रामगिरि में प्रवास कर रहा है। मेघदर्शन से उसकी सोई हुई कामवासना तीव्रतर रूप में प्रकट होती है। कवि ने अपनी कल्पना से भावोŸोजना के लिए मेंघ को उपस्थित का सूक्ति के द्वारा प्रमाणित भी किया है-
तस्य स्थित्वा कथमपि पुरः कौतुकाधानहेतो-
                     रन्तर्वाष्पश्चिरमनुचरो राजराजस्य दध्यौ।
                   मेघालोके भवति सुखिनोऽप्यन्थावृŸिा चेतः
                      कण्ठाश्लेषप्रणयिनि जने किं पुनर्दूरसंस्थे।।

भावना के उद्दीप्त होने पर दूत-प्रेषण आवश्यक हो जाता है। कवि कालिदास ने यहाॅं अन्य को उपस्थित न कर मेघ को हीं दूत बनाने की सुन्दर कल्पना की है। इस पर किसी को आपŸिा न हो जाए इसलिए आपŸिा के निवारण के लिए कवि स्पष्ट शब्दों में कह देता है-
धूमज्योतिः सलिलमरुतां सन्निपातः क्व मेघः
                         सन्देशार्थाः क्व पटुकरणैः प्राणिभिः प्रापणीयाः।
इत्यौत्सुक्यादपरिगणयन् गुह्यकस्तं ययाचे
                       कामार्ता हि प्रकृतिकृपणास्चेतनाचेतनेषु।।

सचमुच-
    
‘‘जल अनिल अनल औ धूमराशि का   बना हुआ वह मेघ कहाॅं ?
मानव के द्वारा प्रेषणीय        उसका वह प्रिय सन्देश कहाॅं ?
उत्सुकता में बिन सोचे हीं        गुह्यक ने उससे मिन्नत की।
जड़-चेतन में कामी प्राणी          है पाता कोई भेद नहीं।। ’’

इस प्रकार हम देखते हैं कि कल्पना और भावना का सुन्दर सम्मिश्रण मेघदूत में हुआ है। कल्पना और भावना के इस मिश्रण में कौन गौण है और कौन प्रधान -यह भेद करना कठिन है। कल्पना और भावना का यह अपूर्व मेल कालिदास हीं कर सकते हैं। कल्पना और भावना का यह अनोखा संगम सर्वत्र मेघदूत में द्रष्ट्व्य है-
‘‘ तां चावश्यं दिवसगणनातत्परामेकपत्नी-
                         मव्यापन्नामविहतगतिर्द्रक्ष्यसि भातृजायाम्।
आशाबन्धः कुसुमसदृशं प्रायशो ह्यङ्गनानां
                         सद्यः पाति प्रणयि हृदयं विप्रयोगे रूणद्धि।।’’
अपि च,
                जातं वंशे भुवनविदिते पुष्करावर्तकानां
                      जानामि त्वां प्रकृतिपुरुषं कामरूपं मघोनः।
                तेनार्थित्वं त्वयि विधिवशाद् दूरबन्धुर्गतोऽहं
                    याच्ञा मोघा वरमधिगुणे नाधमेलब्धकामा।।


कालिदास का मेघदूत दो भागों में विभक्त है- पूर्वमेघ और उŸारमेघ। पूर्वमेघ में मेघमार्ग के ब्याज से कवि ने भारत के सुन्दर भौगोलिक दृश्यों का चित्रण किया है। अपने अराध्य देव देवाधिदेव महादेव को भी सदैव स्मरण करते हुए अपनी लेखनी को अविरल गति प्रदान की है। यह पद्य द्रष्ट्व्य है जिसमें कवि मेघ से महाकाल की नगरी उज्जयिनी पाने का आग्रह करता है-
         ‘‘वक्रः पन्था यदपि भवतः प्रस्थितस्योŸाराशां
          सौधोत्सङ्गप्रणयविमुखो मा स्म भूरूज्जयिन्याः।
          विद्युद्दामस्फुरितचकितैस्तत्र पौराङ्गनानां
           लोलापाङ्गैर्यदि न रमससे लोचनैर्व´्चितोऽसि।।’’

कालिदास प्रकृति के सुकुमार कवि हैं। प्रकृति के कोमल एवं मनोहारि दृश्यों को अंकित करना उन्हें सदैव प्रिय है। प्रकृति का यह श्रृंगारिक रूप किस सहृदय को आकृष्ट नहीं करता जिसमें कवि मेघ के समक्ष गम्भीरा नदी का नायिका के रूप में वर्णन करता है-
           ‘‘तस्याः कि´्चित्करधृतमिव प्राप्तवानीरशाखं
                    हृत्वा नीलं सलिलवसनं मुक्तरोधोनितम्बम्।
            प्रस्थानं ते कथमपि सखे लम्बमानस्य भावि
                   ज्ञातास्वादो विवृतजघनां को विहातुं समर्थः।।’’

इतना ही नही पूर्वमेघ के अन्त में कैलास की गोद में अलका का वर्णन कितना चिŸााकर्षक है-
‘‘तस्योत्सङ्गे प्रणयिन इव स्रस्तगङ्गादुकूलां
                    न त्वं दृष्ट्वा पुनरलकां ज्ञास्यसे कामचारिन्।
या वः काले वहति सलिलोद्गारमुच्चैर्विमाना
                     मुक्ताजालप्रथितमलकं कामिनीवाभ्रवृन्दम्।।’’

सचमुच कल्पना एवं भावना के चित्रण में मेघदूत अपूर्व है।
                      संगीततŸव तो मेघदूत का प्राण हीं है। गीतिकाव्यसंगीत के विना प्राणहीन है। कालिदास ने इस बात पर बड़ी गम्भीरता से से विचार करते हुए संगीततŸव को पराकाष्ठा पर पहुॅंचाने के लिए ‘मन्दाक्रान्ता’ नामक छन्द का प्रयोग किया है। मन्दाक्रान्ता विप्रलम्भ श्रृंगाार के वर्णन में , वर्षा ऋतु के वर्णन में तथा संगीत भावना की उत्पŸिा में श्रेष्ठ माना गया है। कवि ने सम्पूर्ण काव्य में इसी मन्दाक्रान्ता का आश्रय लिया है। आदि से अन्त तक मन्दाक्रान्ता छन्द मन्द-मन्थर गति से चलता है। प्रकृति चित्रण में मन्दाक्रान्ता की मन्थर चाल तो देखिए-
मन्दं-मन्दं नुदति पवनश्चानुकूलो यथा त्वां
                   वामश्चायं नदति मधुरं चातकस्ते सगन्धः।
                    गर्भाधानक्षणपरिचयान्नूनमाबद्धमालाः
                      सेविष्यन्ते नयनसुभगं खे भवन्तं बलाकाः।।


मन्दाक्रान्ता की मन्थरगति संयोगश्रृंगाार के छींटों को विलासमय ढंग से विखेरता है तो विप्रलम्भश्रृंगाार के करूण कोमलभाव को सुन्दरता से वहन करता हुआा अपनी ललित यतियों से अभिव्यक्ति प्रदान करता है-
संतप्तानां त्वमसि शरणं तत्पयोद ! प्रियायाः
                              सन्देशं मे हर धनपतिक्रोधविश्लेषितस्य।
गन्तव्या ते वसतिरलका नाम यक्षेश्वराणां
                               वाह्योद्यानस्थितहरशिरश्चन्द्रिकाधौतहम्र्या।।


                          निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि मेघदूतम् अपनी कल्पनाओं की रमणीयता, भावनाओं की तरलता एवं संगीत की मधुरता केकारण संस्कृत साहित्य में ही नहीं अपितु विश्वसाहित्य में एक अपूर्व एवं सफलतम गीतिकाव्य के रूप में अपना उच्चस्थान बनाता हुआ अपने प्रणेता कालिदास को उत्कृष्ट कोटि के गीतिकाव्यकार के रूप में प्रमाणित एवं स्थापित करता है, जिनके समान शायद दूसरा कोई नहीं। सचमुच -
              पुरा कवीनां गणनाप्रसङ्गे    कनिष्ठकाधिष्ठित कालिदासः।
अद्यापि  तŸाुल्यकवेरभावादनामिका     सार्थवती बभूव।।

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विभागाध्यक्ष, संस्कृत-विभाग, संताल परगना महाविद्यालय, सिदो-कान्हु मुर्मू विश्वविद्यालय, दुमका (झारखण्ड)

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