धर्मशास्त्र


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                                                                                                                          धनंजय कुमार मिश्र*



        धर्मशास्त्र उस शास्त्र को कहते हैं जिसमें राजा-प्रजा के अधिकार, कर्Ÿाव्य, सामाजिक आचार विचार, व्यवस्था, वर्णाश्रमधर्म, नीति, सदाचार और शासन सम्बन्धी नियमों की व्यवस्था का वर्णन होता है। विशिष्टरूप से स्मृति-ग्रन्थों को धर्मशास्त्र का पर्याय माना जाता है।
इस प्रकार स्मृति ग्रन्थों को ही धर्मशास्त्र के रूप में जाना जाता है - ‘‘धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः।’’
         संस्कृत साहित्य में 18 स्मृतियाँ हैं, जो भिन्न-भिन्न ऋषियों  द्वारा रचित धर्मशास्त्र हैं। जैसे - मनुस्मृति महर्षि मनु द्वारा रचित है। इसी प्रकार याज्ञवल्क्य, अत्रि, विष्णु, हारीत, उशमस्, अंगिरा, यम, कात्यायन, वृहस्पति, पराशर, व्यास, दक्ष, गौतम, वशिष्ठ, नारद, भृगु, आपस्तम्ब आदि ऋषियों द्वारा रचित अलग-अलग स्मृतिग्रन्थ हैं।
         यद्यपि संस्कृत साहित्य में 18 स्मृतिग्रन्थों या धर्मशास्त्रों का उल्लेख मिलता है तथापि मनुस्मृति और याज्ञवल्क्यस्मृति हीं धर्मशास्त्र के रूप में उपलब्ध हैं। मनुस्मृति सभी स्मृतियों में प्राचील है क्योंकि मनु को मानव जाति के आदि पुरूष के रूप में स्मरण किया जाता है।
         धर्मशास्त्र की एकमात्र प्रतिनिधि कृति मनुस्मृति आज जिस रूप में हमें उपलब्ध होती है उसी के आधार पर धर्मशास्त्र के विषय या तŸवों का वर्णन किया जा सकता है।
       धर्मशास्त्र या स्मृतिग्रन्थों में काम, अर्थ, मोक्ष तथा धर्म रूप चार पुरूषार्थो का विशद् प्रतिपादन किया गया है। काम का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि -  
‘‘द्वितीयमायुषो भागं कृतदारो गृहे वसेत्।’’
 फिर कहा गया है -
‘‘ऋतुकालाभिगामी स्यात् स्वदारनिरतः सदा।
पर्ववर्ज व्रजेच्चैनां तद्वतो रतिकाम्यया।।’’

अर्थ का प्रतिपादन करते हुए कहा गया - 
‘‘अक्लेशेन शरीरस्य कुर्वीत धनसंचयम्।’’  
इसी प्रकार मोक्ष का प्रतिपादन करते हुए कहा गया कि -
‘‘एवं यः सर्वभूतेषु पश्यत्यात्मानमात्मना ।
स सर्वसमतामेत्य ब्रह्माभ्येति परं पदम्।। ’’

धर्म का निरूपण करते हुए धर्मशास्त्र में वर्णधर्म, आश्रमधर्म,  वर्णाश्रमधर्म, गुणधर्म, निमिŸाधर्म तथा सामान्य धर्म का सांगोपांग रूप प्रतिपादन किया गया है। जैसे -
‘‘ अस्मिन् धर्मोऽखिलेनोक्तो गुणदोषौ च कर्मणाम्।
चर्तुणामपि  वर्णानामाचारश्चैव   शाश्वतः।। ’’

                                धर्मशास्त्र में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन पुरूषार्थ चतुष्टयों के अतिरिक्त संसार की उत्पŸिा का वर्णन, संस्कार विधि, ब्रह्मचर्यव्रत विधि, गुरू का अभिवादन विधि, ब्रह्मचर्य के बाद समावर्Ÿान, पंचमहायज्ञ, नित्य श्राद्धविधि, स्नातक के नियम, भक्ष्य एवं अभक्ष्य पदार्थो का वर्णन जनन-मरण शौच विधि, स्त्रीधर्म, वानप्रस्थ एवं सन्यास आश्रम, मुकदमों का निर्णय, करग्रहण आदि राजधर्म का वर्णन, साक्षियों से प्रश्नविधि का वर्णन, साथ तथा अलग रहने पर स्त्री-पुरूष के धर्म का वर्णन, सम्पŸिा विभालन का वर्णन, द्यूतविधि का वर्णन, चैरादि निवारण, वैश्य एवं शूद्र का अपने-अपने धर्म के अनुष्ठान का वर्णन, जातियों की उत्पŸिा का वर्णन, विपŸिा के समय में कर्Ÿाव्य एवं धम्र का वर्णन, पाप की निवृति के लिए प्रायश्चित विधि का वर्णन, कर्मानुसार उŸाम, मध्ययम और अधम सांसारिक गतियों , मोक्षप्रद आत्मज्ञान, विहित एवं निषिद्ध गुण-दोयों की परीक्षा, देश-धर्म, जाति-धर्मतथा पाखण्डी धर्म का विशद् वर्णन किया गया है।
                       धर्मशास्त्र या स्मृतिशास्त्र के प्रमुख चार अंग या विषय हैं। प्रथम अंग आचार विषयक है तो द्वितीय व्यवहार सम्बन्धी। तीसरा विषय प्रायश्चित और चैथा कर्मफल। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णो तथा ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और सन्यास इन चार आश्रमों के समुचित निर्वाह की विधियों का विशद् विश्लेषण करना भी धर्मशास्त्र का ही विषय है।
   यहाँ संक्षेप में इन्हीं चारों मुख्य विषयों पर चर्चा करना आवश्यक है -
(1) आचार विषयक विषय: धर्मशास्त्र की आत्मा आचार विषयक विषयों का वर्णन करना है। मनुष्य को अच्छा आचरण करना चाहिए। सदाचारी व्यक्ति संसार में सफलता प्राप्त करता है, जबकि दुराचारी पुरूष इस संसार में निंदित, सदैव दुःख का भागी, रोगी और अल्पायु होता है। मनुस्मृति में भी कहा गया है -
‘‘दुराचारो हि पुरूषो लोके भवति निन्दितः।
दुःखभागी च सततं व्याधितोऽल्पायुरेव च।।’’


               आचार सम्बन्धी अनेक बातें धर्मशास्त्र में कही गई हैं। अभिवादन के कारण, फल, विधि, प्रत्याभिवादन विधि आदि बातें इसी के अन्तर्गत आती हैं। अभिवादन के फल के बारे में कहा गया है -
                     ‘‘ अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्द्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्।।’’

स्त्रियों के प्रति आचार कहता है -
‘‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाःक्रियाः।।’’

                 धर्मशास्त्र में आचार विषयक अनगिनत बातें संस्कृत साहित्य में उपलब्ध हैं। माता-पिता ,गुरू के प्रति कर्Ÿाव्य,  मित्र के प्रति कर्Ÿाव्य,  पति-पत्नी के  कर्Ÿाव्य,  पिता-पुत्र के कर्Ÿाव्य,  गुरू-शिष्य के कर्Ÿाव्य  आदि - आदि अनेक बातें इसके अन्तर्गत आती हैं।

(2) व्यवहार विषयक विषय       :        इस भाग के अन्तर्गत धर्मशास्त्र में ऋण लेना, धरोहर रखना, किसी वस्तु या भूमि आदि का स्वामी न होने पर भी उसे बेच देना, अनेक व्यक्तियों (व्यापारियों) का मिलकर संयुक्त रूप से कार्य करना, दान आदि में दी गई सम्पŸिा या किसी वस्तु को क्रोध, लोभ या अपात्रता के कारण वापस ले लेना, नौकरों का वेतन या मजदूरों की मजदूरी नहीं देना, पूर्व निर्णीत व्यवस्था अर्थात् सन्धिपत्रादि को नहीं मानना, क्रय-विक्रय में विवाद उपस्थित होना, स्वामी तथा पालक (रखवाली करने वाले) में परस्पर विवाद होना, सीमा के विषय में विवाद होना, दण्ड-दारूण्य अर्थात् अत्यधिक मार-पीट करना, वाक्पारूस्य अर्थात् अनधिकार गाली आदि देना, चोरी करना, अति साहस करना अर्थात् डाका डालना, आग लगाना आदि, स्त्री का पर पुरूष के साथ सम्भोग आदि करना, स्त्री-पुरूष का धर्म, पैतृक धन सम्पŸिा या भूमि आदि का बँटवारा करना, जुआ खेलना या बाजी लगाकर पशु-पक्षी को लड़ाना ये स्थान व्यवहार अर्थात् मुकदमे की स्थिति में कहे गये हैं। इन परिस्थियों का निपटारा कैसे किया जाय? क्या दण्ड विधान है? इन समस्त विषयों का वर्णन व्यवहार विषयक विषय के अन्तर्गत आते हैं। धर्मशारूत्र में इन विषयों का सम्यक् वर्णन मिलता है। राजा किस प्रकार का दण्ड दे इस पर भी विचार किया गया है। यथा -
   ‘‘वाग्दण्डं प्रथमं कुर्यात् धिग्दण्डं तदन्तरम्। 
   तृतीयं धनदण्डं तु वधदण्डमतः परम्।।’’

(3) प्रायश्चित सम्बन्धी विषय    :       धर्मशास्त्र में प्रायश्चित सम्बन्धी विषयों पर भी व्यापक चर्चा की गयी है। मनुष्यों से जाने-अनजाने अपराध हो जाया करते हैं, उन्हें किस प्रकार प्रायश्चित का मौका मिले, इस बात का वर्णन इस भाग में किया गया है। प्रायश्चित करने के क्या नियम हैं, किस प्रकार प्रायश्चित किया जाना चाहिए आदि-आदि बातों की जानकारी धर्मशास्त्र के इस भाग का वण्र्य-विषय है। किसकी प्रायश्चित के बाद भी पाप से निवृति नहीं होती इसका भी विधान है। यथा - बालक की हत्या करने वाला, कृतघ्न, शरणागत की हत्या करने वाला और स्त्री की हत्या करने वाला। इसके साथ प्रायश्चित द्वारा इसके शुद्ध हो जाने पर भी संसर्ग न करें, ऐसा मनुस्मृति में कहा गया है -
‘‘बालघ्नांश्च कृतघ्नांश्च विशुद्धानपि धर्मतः।
 शरणागतहन्तृंश्च                    न संवसेत्।।’’

(4)  कर्म-फल से सम्बन्धित विषय    :  धर्मशास्त्र में कर्म-फल से सम्बन्धित विषय का विशद् विवेचन किया गया है। मनुस्मृति में कहा गया है कि मनुष्यों के कायिक, वाचिक तथा मानसिक कर्म शुभाशुभ फल देने वाले होते हैं और उनसे उत्पन्न होने वाली गतियाँ भी प्राप्त होती हैं। मनुष्य शुभ कर्मो से देव योनि को ,मिश्रित कर्मो से मनुष्य योनि को और अशुभ कर्मो से तिर्यग्योनि अर्थात् पशु, पक्षी, वृक्ष, लतादि योनि को प्राप्त करता है। अस भाग में हीं सŸव, तम,  और रज गुण के कारण , प्रवृति तथा कर्म के फल का वर्णन मिलता है। कहा भी गया है -
‘‘तमसो लक्षणं कामो रजसस्त्वर्थं उच्यते। सŸवस्य लक्षणं धर्मः श्रेष्ठय्यमेषां यथोŸारम्।।’’
सात्विक देवत्व को, राजस मनुष्यत्व को और तामस तिर्यक्त्व को प्राप्त करते हैं। ये तीन गतियाँ मनुष्यों के कर्म के कारण प्राप्त होती हैं। कहा गया है कि परमात्मा सम्पूर्ण प्राणियों में शरीरों को आरम्ीा करने वाली पंचमूर्तियों से व्याप्त होकर उत्पŸिा, स्थिति और विनाश के द्वारा सदैव पहिये के समान संसारियों को सर्वदा बनाता रहता है।
                            निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि धर्मशास्त्र की विषय-वस्तु अत्यन्त व्यापक है।  18 स्मृतिग्रन्थों में न्यूनाधिक मात्रा में उपर्युक्त बातों का विवेचन और विश्लेषण किया गया है। निःसन्देह ये धर्मशास्त्र भारतीय संस्कृति के पोषक एवं भारत की सांस्कृतिक धरोहर हैं।

                                                            -------इतिशुभम्-------

*अध्यक्ष संस्कृत विभाग,
संताल परगना महाविद्यालय, दुमका।

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