संस्कृत और आधुनिक ज्ञान समाज


                                                                                                         
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                                                                                                  डाॅ0 धनंजय कुमार मिश्र *

   संस्कृत शब्द ‘सम्’ उपसर्गपूर्वक ‘कृ’ धातु से ‘क्त’ प्रत्यय जोड़ने पर बना है जिसका अर्थ है - संस्कार की हुई, परिमार्जित, शुद्ध अथवा परिस्कृत। संस्कृत शब्द से आर्यो की साहित्यिक भाषा का बोध होता है। भाषा शब्द संस्कृत की ‘भाष्’ धातु  से निष्पन्न हुई है। भाष् धातु का अर्थ व्यक्त वाक् (व्यक्तायां वाचि) है। महर्षि पत×जलि के अनुसार - ‘‘व्यक्ता वाचि वर्णा येषा त इमे व्यक्त वाचः  ‘‘  अर्थात्- भाषा वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचार दूसरों पर भली भांति प्रकट कर सकता है और दूसरों के विचार स्वयं स्पष्ट रूप से समझ सकता है।
    भाषा मानव की प्रगति में विशेष रूप से सहायता करती है। हमारे पूर्वपुरूषों के सारे अनुभव हमें भाषा के माध्यम से ही प्राप्त हुए हैं। हमारे सभी शास्त्र और उनसे होने वाला सम्पूर्ण लाभ, भाषा का ही परिणाम है। महाकवि दण्डी के शब्दों में -
इदमन्धन्तमः  कृत्स्नं  जायेत  भुवनत्रयम््
यदि शब्दाह्वयं ज्योतिरासंसारं न दीप्यते ।।

अर्थात् यह सम्पूर्ण भुवन अन्धकारपूर्ण हो जाता यदि संसार में शब्द - स्वरूप ज्योति अर्थात् भाषा का प्रकाश न होता। निश्चित रूपेण, विभिन्न अर्थों में संकेतित शब्द-समूह ही भाषा है जिसके द्वारा हम अपने मनोभाव दूसरो के प्रति सरलता से प्रकट करते हैं।
         शब्द और अर्थ के सामंजस्य का प्रतीक है - साहित्य। सहितस्य भावः साहित्यम्। वस्तुतः साहित्य ही किसी देश की संस्कृति रूपी कनक को कसने की कसौटी है। यह समाज का दर्पण है। इसमें कोई दो मत नहीें कि संस्कृत भाषा ही हमारी संस्कृति, सभ्यता का मूल स्रोत है जो भारत की ही नहीं अपितु विश्व की प्राचीनतम भाषा है। इसका साहित्य विश्व का प्राचीनतम साहित्य है क्योंकि हम सभी जानते एवं मानते हैं कि ऋ़ग्वेद संसार का आदिम ग्रन्थ है। 
संस्कृत साहित्य अत्यन्त व्यापक है। इसमें निहित शैक्षणिक तत्त्व प्राचीन काल से आज तक अविरल गति से प्रवाहित हो रहे हैं। इसमें आचारशास्त्र, व्याकरणशास़्त्र, राजनीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र, कामशास्त्र, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, चिकित्साशास्त्र, नाट्यशास्त्र, आलोचना शास्त्र, गद्य-पद्य आदि का अक्षय भण्डार है।
        स्ंास्कृत भाषा में ऋषियों का योगदान अन्यतम है। मन्त्रद्रष्टा ऋषियों ने कायिक, वाचिक और मानसिक शुद्धि के साथ तपोबल से समाधिस्थ होकर वेदों का साक्षात्कार किया है। भारतवर्ष की पुण्यमयी वसुधा पर हीं वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् , वेदांग, षड्दर्शन, स्मृति, धर्मशास्त्र, पुराण, रामायण, महाभारत, आयुर्वेद, नीतिशास्त्र, आचारशास्त्र, कामशास्त्र तथा काव्यादि समस्त ग्रन्थ प्रारम्भ में संस्कृत भाषा में हीं लिखे गए। जो पूर्णता संस्कृत भाषा में वह अन्यत्र नहीं। यह उक्ति संस्कृत वाङ्मय के  लिए सर्वथा उपयुक्त है कि - ‘‘यदिहास्ति तदन्यत्र, यन्नेहास्ति न तत् क्वचित् ।’’
        प्रस्तुत पत्र में संस्कृत भाषा में रचित विभिन्न ग्रन्थ रत्नों में छिपे उपयोगी आधुनिक ज्ञान और समाज के लिए उपादेय तत्वों पर प्रकाश डाला गया है तथा बताया गया है कि संस्कृत आज भी अतीत के समान ही प्रासंगिक है।
1.    एकता के सूत्र :- संस्कृत भाषा में निबद्ध साहित्य में एकता के सूत्र प्राप्त होते हैं। सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्वि नावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै।  यही सूत्र सामाजिक एकता एवं समरसता का मूलाधार है। देश में अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं। इन भाषाओं की जननी संस्कृत ही है। संस्कृत सभी भाषाओं को बाँधकर रखी है। यह समाज को जोड़ने वाली भाषा है। सूत्रग्रन्थों और स्मृतियों ने समाजवाद की अवधारणा को जन्म दिया। सामाजिक व्यवस्थाओं के सफल संचालन हेतु अनेक संस्थाओं का विशद् वर्णन संस्कृत वाङ्मय में उपलब्ध है। विवाह, परिवार आदि संस्थाएँ उनके उत्तरदायित्व एवं मर्यादाओं की स्थापना संस्कृत भाषा में जिस विपुलता से उल्लिखित है वह अत्यन्त दुर्लभ है। आज पूरा विश्व संस्कृत वाङ्मय के उदात्त सन्देशों को ग्रहण कर स्वयं को अभारी मानता है।

2.    व्यक्तिगत तथा सामूहिक आचार व्यवहार का वर्णन :- स्मृतिकारों ने सूत्र साहित्य में वर्णित विषयों का विस्तार पूर्वक समयानुकूल श्लोकबद्ध विवेचन किया है। व्यक्तिगत तथा सामूहिक आचार व्यवहार का वर्णन गृह्य सूत्रों एवं धर्म सूत्रों में किया गया है। गृह्य सूत्र और धर्म सूत्र मानव के व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में घटित होने वाली समस्त घटनाओं का विस्तृत वर्णन करते हैं। संस्कृत वाङ्मय में जिन सामाजिक आदर्शों, नियमों का निदर्शन प्राप्त होता है वे ऋषियों द्वारा शताब्दियों के चिन्तन, मनन तथा अध्ययन का परिणाम है। चतुर्विध पुरूषार्थ की अवधारणा संस्कृत में ही प्राप्त होती है। वर्णव्यवस्था, आश्रम व्यवस्था की परिकल्पना एवं विस्तार संस्कृत भाषा की देन है।


3.     वर्णाश्रम व्यवस्था का औचित्य:- भले हीं आज के इस समाजवादी युग में वर्ण व्यवस्था की अनुपयोगिता के लिए कट्टर आलोचना की जाए परन्तु तात्कालीन परिस्थियों में इसकी उपयोगिता असंदिग्ध थी। स्मृतियाँ समाज को चार वर्गो में वर्गीकृत करती हैं - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। यह चातुर्वण्र्यव्यवस्था भारतीय संस्कृति की प्राचीन समाजिक व्यवस्था है। इन चार वर्गो के कर्Ÿाव्य, उनके पालन की व्यवस्था तथा उनके उल्लंघन करने पर दण्ड का विधान आदि स्मृतियों की मुख्य विषय-वस्तु है। जिस प्रकार चार वर्णो में सारा समाज वर्गीकृत किया गया है, उसी प्रकार समाज के एक व्यक्ति का जीवन चार आश्रमों में विभक्त किया गया है - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। वर्णो और आश्रमों की इस सामाजिक व्यवस्था को हीं ‘वर्णाश्रमधर्म’ के नाम से पुकारा जाता है। चारों वर्णो का कार्य उस समय परस्पराश्रित था। इसलिए कोई एक वर्ण संगठित होकर दूसरे वर्ण पर अधिकार नहीं जमा सकता था। जहाँ एक ओर ब्राह्मण को मान-सम्मान का पूर्ण अधिकारी कहा गया है वहीं उसे यह चेतावनी भी दी गई है कि वह मान-सम्मान को विष के समान समझकर त्याग दे। क्षत्रिय एवं वैश्य की भूमिका भी तात्कालीन समाज में किसी भी दृष्टि से ब्राह्मण से कम नहीं थी क्योंकि रक्षा, वाणिज्य, कृषि इत्यादि के द्वारा ये लोग राज्य की समृद्धि हेतु निरन्तर प्रयत्नशील रहते थे। यद्यपि वैश्य की सामाजिक प्रवृति प्रायः धन के उपार्जन की ओर उन्मुख थी, किन्तु उसका मूल उद्देश्य सामान्य जनता का कल्याण करना हीं था। सामाजिक कार्य विभाजन में शूद्र को भी उतनी ही महŸाा दी गई है जितनी ब्राह्मण की। मनुस्मृति में द्विजातियों के लिए स्पष्ट आदेश दिया गया है कि वे लोग शूद्रों को परिवार की संख्या के आधार पर वेतन दें तथा सेवक को भोजन कराकर हीं स्वामी भोजन करें और भोजन करते समय यदि शूद्र भी आ जाए तो उसे अतिथि मानकर भोजन करावें।  ‘‘ भुक्तवत्स्वथ विप्रेषु स्वसुभृत्येषु चैवहि। भुज्र्जायातां ततः पश्चादवशिष्टं तु दम्पती।।’’   यह वर्ण व्यवस्था तथा वर्ण नियम स्वयं आदि पुरूष ब्रह्मा ने निर्मित किया है। जैसा कि स्मृतिकार मनु ने लिखा है - ‘‘ सर्वस्यास्यतु सर्गस्य गुप्त्यर्थं सा महाद्युति। मुखबाहू रूपज्जानां पृथकर्माण्यकल्पयत्।।’’  यह वर्ण व्यवस्था कर्माश्रित थी। गीता में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इसका वर्णन करते हुए कहा है कि - ‘‘चातुर्वण्र्यं मयासृष्टं गुणकर्म विभागशः।’’  विद्या पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, कराना दान देना तथा दान लेना ब्राह्मणों के लिए निश्चित किया -‘‘अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा। दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्।।’’  प्रजाओं की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, अध्ययन करना, विषयों में आसक्ति न रखना,यह सब कार्य क्षत्रियों के लिए निर्धारित किया - ‘‘प्रजानां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च। विषयेस्व प्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः।।’’  पशुओं की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, पढ़ना, व्यापार करना, ब्याज का कार्य करना और खेती करना ये सब कार्य वैश्य के लिए ब्रह्मा ने बनाया -‘‘ पशुनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च। वाणिक्यपथं कुसीदंच वैश्यस्य कृषिमेव च।। ’’   इन तीनों वर्णाें की ईष्र्याहीन होकर सेवा करना रूपी एकमात्र कार्य हीं इस ब्रह्मा ने शूद्रों के लिए बतलाया - ‘‘एकमेव तु शूद्रस्य प्रभुःकर्म समादिशत्। एतेषामेव वर्णानां शुश्रुषामनसूयसा।।’’  आश्रम व्यवस्था के प्रयोजन, कत्र्तव्य एवं महत्त्व को यदि हम समझ लें तो जीवन की अधिकांश असुविधाओं से आज बचा जा सकता है।

4.     संस्कारों में निहित भावना:-  मानव समाज को परिष्कृत एवं सुसंस्कृत बनाने हेतु गर्भ काल से मृत्यु पर्यन्त सोलह प्रकार के संस्कारों में से कुछ महत्वपूर्ण संस्कारों का चलन आज भी भारतीय समाज में है। सोलह संस्कारों में से एक समावर्तन संस्कार की भावना वर्तमान में प्रचलित विश्वविद्यालयों के दीक्षान्त समारोह में द्रष्टव्य है। इस दीक्षान्त समारोह का सबसे प्राचीन रूप हमें उपनिषद् में दिखाई देता है। आचार्य शिष्य को भली-भांॅति अध्ययन कराकर इस समावर्तन संस्कार के समय स्वधर्म पालन का उपदेश देते हुए कहते हैं कि - ‘‘ तुम सदा सत्य भाषण करना। आपŸिा पड़ने पर भी झूठ का कदापि आश्रय न लेना। अपने अनुकूल एवं शास्त्र-सम्मत धर्म का आचरण करना। स्वाध्याय एवं स्वकर्म में कभी भी प्रमाद न करना अर्थात् न तो अपने कर्म अनादर पूर्वक करना और न ही आलस्यवश उनका त्याग करना............।’’(वेदम् अनूच्य आचार्यो अन्तेवासिनम् अनुशास्ति। सत्यं वद। धर्मं चर। स्वाध्यायान्मा प्रमदः। आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः सत्यान्न प्रमदितव्यम्। धर्मान् न प्रमदितव्यम्। कुशलान् न प्रमदितव्यम्। भूत्यै न प्रमदितव्यम्। स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्। देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम्। मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। अतिथिदेवो भव। यानि अनवद्यानि कर्माणि तानि सेवितव्यानि। नो इतराणि।................. श्रद्धया देयम्। अश्रद्धयादेयम्। हिृया देयम्। भिया देयम्। संविदा देयम्।।)

5.    पुरूषार्थ चतुष्ट्य की आवश्यकता:- संस्कृत भाषा में रचित धर्मशास्त्र या स्मृतिग्रन्थों में धर्म, काम, अर्थ, मोक्ष रूप चार पुरूषार्थो का विशद् प्रतिपादन किया गया है। काम का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि - ‘‘द्वितीयमायुषो भागं कृतदारो गृहे वसेत्।’’   फिर कहा गया है - ‘‘ऋतुकालाभिगामी स्यात् स्वदारनिरतः सदा। पर्ववर्ज व्रजेच्चैनां तद्वतो रतिकाम्यया।।’’  अर्थ का प्रतिपादन करते हुए कहा गया - ‘‘अक्लेशेन शरीरस्य कुर्वीत धनसंचयम्।’’    इसी प्रकार मोक्ष का प्रतिपादन करते हुए कहा गया कि -‘‘एवं यः सर्वभूतेषु पश्यत्यात्मानमात्मना । स सर्वसमतामेत्य ब्रह्माभ्येति परं पदम्।। ’’ धर्म का निरूपण करते हुए धर्मशास्त्र में वर्णधर्म, आश्रमधर्म,  वर्णाश्रमधर्म, गुणधर्म, निमिŸाधर्म तथा सामान्य धर्म का सांगोपांग रूप प्रतिपादन किया गया है। जैसे - ‘‘ अस्मिन् धर्मोऽखिलेनोक्तो गुणदोषौ च कर्मणाम्। चर्तुणामपि  वर्णानामाचारश्चैव   शाश्वतः।। ’’

6.    धर्मशास्त्र में निहित सार्वकालिक तत्व:-  धर्मशास्त्र या स्मृतिशास्त्र के प्रमुख चार अंग या विषय हैं। प्रथम अंग आचार विषयक है तो द्वितीय व्यवहार सम्बन्धी। तीसरा विषय प्रायश्चित और चैथा कर्मफल। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णो तथा ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और सन्यास इन चार आश्रमों के समुचित निर्वाह की विधियों का विशद् विश्लेषण करना भी धर्मशास्त्र का ही विषय है। यहाँ संक्षेप में इन्हीं चारों मुख्य विषयों पर चर्चा करना आवश्यक है - (क) आचार विषयक विषय: धर्मशास्त्र की आत्मा आचार विषयक विषयों का वर्णन करना है। मनुष्य को अच्छा आचरण करना चाहिए। सदाचारी व्यक्ति संसार में सफलता प्राप्त करता है, जबकि दुराचारी पुरूष इस संसार में निंदित, सदैव दुःख का भागी, रोगी और अल्पायु होता है। मनुस्मृति में भी कहा गया है - ‘‘दुराचारो हि पुरूषो लोके भवति निन्दितः। दुःखभागी च सततं व्याधितोऽल्पायुरेव च।।’’  आचार सम्बन्धी अनेक बातें धर्मशास्त्र में कही गई हैं। अभिवादन के कारण, फल, विधि, प्रत्याभिवादन विधि आदि बातें इसी के अन्तर्गत आती हैं। अभिवादन के फल के बारे में कहा गया है - ‘‘ अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः। चत्वारि तस्य वर्द्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्।।’’   स्त्रियों के प्रति आचार कहता है -‘‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः  । यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाःक्रियाः।।’’   धर्मशास्त्र में आचार विषयक अनगिनत बातें संस्कृत साहित्य में उपलब्ध हैं। माता-पिता ,गुरू के प्रति कर्Ÿाव्य,  मित्र के प्रति कर्Ÿाव्य,  पति-पत्नी के  कर्Ÿाव्य,  पिता-पुत्र के कर्Ÿाव्य,  गुरू-शिष्य के कर्Ÿाव्य  आदि - आदि अनेक बातें इसके अन्तर्गत आती हैं।  (ख) व्यवहार विषयक विषय: इस भाग के अन्तर्गत धर्मशास्त्र में ऋण लेना, धरोहर रखना, किसी वस्तु या भूमि आदि का स्वामी न होने पर भी उसे बेच देना, अनेक व्यक्तियों (व्यापारियों) का मिलकर संयुक्त रूप से कार्य करना, दान आदि में दी गई सम्पŸिा या किसी वस्तु को क्रोध, लोभ या अपात्रता के कारण वापस ले लेना, नौकरों का वेतन या मजदूरों की मजदूरी नहीं देना, पूर्व निर्णीत व्यवस्था अर्थात् सन्धिपत्रादि को नहीं मानना, क्रय-विक्रय में विवाद उपस्थित होना, स्वामी तथा पालक (रखवाली करने वाले) में परस्पर विवाद होना, सीमा के विषय में विवाद होना, दण्ड-दारूण्य अर्थात् अत्यधिक मार-पीट करना, वाक्पारूस्य अर्थात् अनधिकार गाली आदि देना, चोरी करना, अति साहस करना अर्थात् डाका डालना, आग लगाना आदि,  स्त्री का पर पुरूष के साथ सम्भोग आदि करना, स्त्री-पुरूष का धर्म, पैतृक धन सम्पŸिा या भूमि आदि का बँटवारा करना, जुआ खेलना या बाजी लगाकर पशु-पक्षी को लड़ाना ये स्थान व्यवहार अर्थात् मुकदमे की स्थिति में कहे गये हैं। इन परिस्थियों का निपटारा कैसे किया जाय? क्या दण्ड विधान है? इन समस्त विषयों का वर्णन व्यवहार विषयक विषय के अन्तर्गत आते हैं। धर्मशारूत्र में इन विषयों का सम्यक् वर्णन मिलता है। राजा किस प्रकार का दण्ड दे इस पर भी विचार किया गया है। यथा -‘‘वाग्दण्डं प्रथमं कुर्यात् धिग्दण्डं तदन्तरम्। तृतीयं धनदण्डं तु वधदण्डमतः परम्।।’’   (ग) प्रायश्चित सम्बन्धी विषय: धर्मशास्त्र में प्रायश्चित सम्बन्धी विषयों पर भी व्यापक चर्चा की गयी है। मनुष्यों से जाने-अनजाने अपराध हो जाया करते हैं, उन्हें किस प्रकार प्रायश्चित का मौका मिले, इस बात का वर्णन इस भाग में किया गया है। प्रायश्चित करने के क्या नियम हैं, किस प्रकार प्रायश्चित किया जाना चाहिए आदि-आदि बातों की जानकारी धर्मशास्त्र के इस भाग का वण्र्य-विषय है। किसकी प्रायश्चित के बाद भी पाप से निवृति नहीं होती इसका भी विधान है। यथा - बालक की हत्या करने वाला, कृतघ्न, शरणागत की हत्या करने वाला और स्त्री की हत्या करने वाला। इसके साथ प्रायश्चित द्वारा इसके शुद्ध हो जाने पर भी संसर्ग न करें, ऐसा मनुस्मृति में कहा गया है - ‘‘बालघ्नांश्च कृतघ्नांश्च विशुद्धानपि धर्मतः। शरणागतहन्तृंश्च न संवसेत्।।’’    (घ)  कर्म-फल से सम्बन्धित विषय:  धर्मशास्त्र में कर्म-फल से सम्बन्धित विषय का विशद् विवेचन किया गया है। मनुस्मृति में कहा गया है कि मनुष्यों के कायिक, वाचिक तथा मानसिक कर्म शुभाशुभ फल देने वाले होते हैं और उनसे उत्पन्न होने वाली गतियाँ भी प्राप्त होती हैं। मनुष्य शुभ कर्मो से देव योनि को ,मिश्रित कर्मो से मनुष्य योनि को और अशुभ कर्मो से तिर्यग्योनि अर्थात् पशु, पक्षी, वृक्ष, लतादि योनि को प्राप्त करता है। अस भाग में हीं सŸव, तम,  और रज गुण के कारण , प्रवृति तथा कर्म के फल का वर्णन मिलता है। कहा भी गया है -‘‘तमसो लक्षणं कामो रजसस्त्वर्थं उच्यते। सŸवस्य लक्षणं धर्मः श्रेष्ठय्यमेषां यथोŸारम्।।’’  सात्विक देवत्व को, राजस मनुष्यत्व को और तामस तिर्यक्त्व को प्राप्त करते हैं। ये तीन गतियाँ मनुष्यों के कर्म के कारण प्राप्त होती हैं। कहा गया है कि परमात्मा सम्पूर्ण प्राणियों में शरीरों को आरम्ीा करने वाली पंचमूर्तियों से व्याप्त होकर उत्पŸिा, स्थिति और विनाश के द्वारा सदैव पहिये के समान संसारियों को सर्वदा बनाता रहता है। कहा जा सकता है कि धर्मशास्त्र की विषय-वस्तु अत्यन्त व्यापक है।  18 स्मृतिग्रन्थों में न्यूनाधिक मात्रा में उपर्युक्त बातों का विवेचन और विश्लेषण किया गया है। निःसन्देह ये धर्मशास्त्र भारतीय संस्कृति के पोषक एवं भारत की सांस्कृतिक धरोहर हैं।

7.    स्त्रियों का समाज में स्थान और संस्कृत में वर्णित स्त्रीविषयक चिन्तन:- यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते      रमन्ते तत्र देवताः।  यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते   सर्वास्तत्राफलाः क्रिया।। महर्षि मनु का यह श्लोक महिला सशक्तिकरण का बीजमन्त्र पतीत होता है। मानव जीवन का रथ एक चक्र से नहीं चल सकता। समुचित गति के लिए दोनों चक्रों का विशिष्ट महत्व है। गार्हस्थ जीवन की अपेक्षा होती है- सहयोग और सद्भावना की। स्त्री केवल पत्नी नहीं होती, अपितु वह योग्य मित्र, परामर्शदात्री, सचिव, सहायिका भी होती है। भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति सदैव एक समान न होकर अत्यधिक आरोह-अवरोह से युक्त दिखाई देती है।  विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ ‘ऋग्वेद’ के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि तात्कालीन समाज में महिलाएँ अपनी सशक्त भूमिकाओं का निर्वाह करती थी। महिलाएँ वेदाध्ययन ही नहीं करती अपितु मन्त्रों की द्रष्टा भी थी। ऋग्वेद की अनेक सूक्तों की दर्शनकत्र्री स्त्रियाँ थी। ब्रह्मवादिनी ‘घोषा’ रचित ऋग्वेद के दशम मण्डल के सूक्तों ( 39वाँ एवं 40वाँ ) को कौन नजरअंदाज कर सकता है। स्पष्ट है कि स्त्रियाँ शिक्षिता होती थी। लोपामुद्रा, सूर्या, विश्वावारा, अपाला ऋषिकाओं को कौन भूल सकता है। इनके द्वारा रचित सूक्त स्मरणीय एवं पठनीय बने हुए हैं। ‘वृहस्पति’ की पत्नी ‘जूहू’, विवस्वान की पुत्री यमी, ऋषिका श्रद्धा, सर्पराज्ञी केवल मंत्रों की रचयित्री ही नही अपितु कवयित्री भी थी। महिलाएँ कविताएँ करतीं, गायन करतीं तथा नृत्यकला को भी जानती थी। जहाँ तक रही बात उनके सशक्तिकरण की तो हमें नहीं भूलना चाहिए कि नारी को ‘गृहिणी’ का पद प्राप्त था। पत्नी गृहिणी के पद से ही पति की आवश्यकताओं को पूरी करती थीं। ऋग्वेद में सूर्या के विवाह के अवयर पर नारी के गृहिणी पद का वर्णन अतीव सजीव है। ‘गृह में प्रवेश करो और गृहिणी बनकर सब पर शासन करो ’- यह उपदेश महिला सशक्तिकरण की एक झलक मात्र है। गृहिणी पति के साथ समस्त धार्मिक कार्यो का सम्पादन करती थी। गृहिणी के अतिरिक्त परमात्मा ने नारी को ‘मातृपद’ प्रदान किया। पारिवारिक जीवन में माता का पद अमृत के समान है। उपनिषद् ने ‘मातृ देवो भव’ का घोष कर महिला सशक्तिकरण का शंखनाद किया है। वैदिक साहित्य में अनेक स्थलों पर नारी मातृत्वपद का मनोरम वर्णन है। यज्ञभूमि की तुलना माता से की गई है। ‘ जिस प्रकार पुत्र अपनी माता की गोद में आकर स्नेह पूर्वक बैठता है उसी प्रकार विश्वेदेव प्रेमपूर्वक यज्ञभूमि में आकर बैठते हैं।’ मातृपद के अतिरिक्त भारतीय नारी को सहचरी भी कहा गया है। निश्चित रूप से ऋग्वेद कालीन समाज में पति-पत्नी को एक दूसरे का पूरक कहा गया है। उनका साहचर्य देखकर कहा जा सकता है कि महिलाओं को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था।  प्राचीन काल से ही स्त्रियों की स्थिति सम्मानजनक थी। स्त्री शिक्षा का महत्व सभी जानते थे। मण्डन मिश्र की पत्नी स्वयं परम विदुषी थी। कालिदास की पत्नी विद्दोतमा कैसी पण्डिता थी, यह प्रसिद्ध ही है। वैदिक परम्परा में स्त्री शिक्षा पुरूष शिक्षा की तरह अनिवार्य थी। ध्रुव सत्य है कि नारी शक्तिकरणकी आधारशिला शिक्षा हैै। शिक्षिता नारी, शिक्षिता माता, शिक्षिता भगिनि, शिक्षिता पत्नी, शिक्षिता दुहिता बनकर हीं भारतीय नारियों ने विश्वकल्याण की कल्पना की है।  भारतीय इतिहास के पन्ने नीरियों की गौरव गाथा से भरी हुई है। देवासुर संग्राम में कैकेयी ने अपने अद्वितीय युद्ध कौशल से राजा दशरथ को भी चकित कर दिया था। सीता की कहानी सभी जानते हैं। द्रौपदी ने अपनी योग्यता से पाण्डवों को प्रेरित किया। निश्चित रूप से प्राचीन भारतीय महिलायें सशक्त थी। शकुन्तला, अनुसूया, दमयन्ती, सावित्री आदि जगत् प्रसिद्ध महिलाओं का इतिहास बरबस हमें सोचने को विवश कर देता है। गार्गी, मैत्रेयी, अनसुया, अहिल्या, सीता, द्रौपदी, रूक्मिणी, तारा, मंदोदरी, कुन्ती, गान्धारी आदि न जाने कितनी नारियाॅ हो चुकी है जिसपर भारतवर्ष सदियों से गर्व करते आ रहा है। इनके पावन चरित्रों को गाते सुनते हम, उनके अपने-अपने कार्य क्षेत्र में विशिष्ट योगदान को नहीं सकते।  वैदिक काल से लेकर मध्यकाल के प्रारम्भिक अवस्था तक, भारतवर्ष में महिलाओं की स्थिति किसी भी मायने में पुरूषों से कमतर नहीं थी। वैदिक मंत्र - ‘सङ्गच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्’ को मानते हुए स्त्रियाॅं पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर प्रगति के पथ पर अग्रसर होती हुई, अपने सशक्तिकरण का मजबूत स्तम्भ प्रस्तुत कर, जगत् के सामने उपस्थित होती रही। कुछ तथाकथित विद्वान इतिहासकार गलत व्याख्या कर भले हीं हमारे अतीत पर कीचड उछालें, परन्तु यही सच है कि हमारी-भारतीय संस्कृति के अनुरूप ही त्याग और तपस्या की प्रतिमूर्ति समान नारी समाज का अतीत गौरवमयी है।

8.     संस्कृत में निहित मानवाधिकार:- मानव जाति सृष्टि का उत्कृष्टतम उपहार है। यह मान्यता है कि चैरासी लाख योनियों में मानव योनि अपने बुद्धि, विवेक और ज्ञान के बल पर अन्य योनियों से न केवल श्रेष्ठ है अपितु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को वह अपने ज्ञान से मुट्ठी में कर लेना चाहता है, जीत लेना चाहता है। प्रगति के इस दौड़ में मानव समाज को कई विसंगतियों का सामना करना पड़ रहा है और इसके निवारण के लिए मानवीय संस्थायें नित नए प्रारूप तैयार कर उसे अमल में लाने का प्रयास कर रही है। ‘‘इन्सान का इन्सान से हो भाई चारा’’ - कुछ यही पैगाम मानवाधिकार को जन्म देता है। मानवाधिकार शब्द मूलतः दो शब्दों से बना है - मानव और अधिकार। विशिष्ट अर्थ में मानवाधिकार उन अर्थों को व्याख्यायित करता है जिससे मानव जाति अपने मूल-भूत अधिकारों एवं स्वतन्त्रता का हकदार है।  अधिकार के अन्तर्गत न केवल राजनैतिक नागरिक अधिकार का समावेश होता है वरन् जीवन का अधिकार, स्वतन्त्रता का अधिकार, अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक समानता के अधिकार आदि का भी समावेश होता है। साथ ही साथ प्रत्येक मानव का इच्छानुसार सांस्कृतिक गतिविधयों में भाग लेने का अधिकार, काम करने का अधिकार, भोजन का अधिकार, शिक्षा का अधिकार आदि अनेक अधिकारों का समावेश मानवाधिकार के अन्तर्गत किया जाता है, जिसका मानव जाति आग्रही है। ऐसे कुछ मानवाधिकार हैं जो कभी छीने नहीं जा सकते क्योंकि मानव की अपनी एक गरिमा है और इस कड़ी में स्त्री-पुरुष के समान अधिकार हैं। यद्यपि संयुक्त राष्ट्र संघ ने 10 दिसम्बर 1948 ई0 को मानव अधिकार की सार्वभौम घोषणा को अंगीकार कर संघ के राष्ट्रों को मार्गदर्शन और प्रेरणा प्रदान की तथापि इसके बीज तो हजारों वर्ष पूर्व पवित्र भारत भूमि के ग्रन्थ-रत्नों में दिखाई देते हैं। मानवाधिकार से सम्बन्धित घोषणा पत्र की अधिकांश बातें संस्कृत साहित्य में प्राचीन काल से ही प्राप्त होती है।  मानवाधिकार के सार्वभौम घोषणा के प्रथम अनुच्छेद के अनुसार मानव को जन्मजात स्वतन्त्रता और समानता प्राप्त है। मानव जाति को परस्पर भाईचारे के भाव से वर्ताव करना चाहिए। अनुच्छेद एक की इस बात को ऋग्वेद के दशम मण्डल के संज्ञान सूक्त में बडे़ ही मार्मिक और सटीक ढं़ग से भारतवर्ष के ऋषियों ने प्रस्तुत किया है। यथा -‘‘समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषम्।’’  अर्थात् समस्त प्रजाजनों के विचार एक जैसे हों। शासन में प्रजा का प्रतिनिधित्व करने वाली समिति एक हो। इनके मन एक जैसे हों। इसी सूक्त में आगे मानवाधिकार का बीज रूप विचार द्रष्ट्व्य है - ‘‘समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः। समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति।।’’  हम मानवों के संकल्प या निश्चय समान हों, हृदय एवं मन समान हो जिससे परस्पर सुसंगठित होकर मानव समाज अच्छी तरह रह सके। इतना ही नही समानता के अधिकार का यह रूप ऋग्वेद में ही देखिये - ‘‘संगच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।’’     हे मानव! तुम सब मिलकर चलो। मिलकर प्रेम से परस्पर बोलो। तुम्हारे मन समान ज्ञान वाले हों। संयुक्त राष्ट्रसंघ के सार्वभौम घोषणा के द्वितीय अनुच्छेद में भी तो यही बातें कही गयी हैं।  संयुक्त राष्ट्र संघ ने स्पष्ट कहा है कि जाति, वर्ण, लिंग, भाषा, धर्म, राजनैतिक या अन्य विचार प्रणाली जन्म, सम्पत्ति या अन्य मर्यादा के कारण मानव-मानव में भेद-भाव का विचार न किया जायेगा। सार्वभौम घोषणा में वर्णित कुल तीस अनुच्छेद हैं। इन अनुच्छेदों में अनुच्छेद तृतीय में व्यक्ति के जीवन, स्वाधीनता और वैयक्तिक सुरक्षा का अधिकार वर्णित है। अनुच्छेद पंचम में शारीरिक यातना, निर्दयता, अमानुषिक या अपमानजनक व्यवहार के निषेध का वर्णन है। इन तथ्यों का मूल भी संस्कृत साहित्य में प्राप्त होता है। बोधायनधर्मसूत्र में इस बात का मूल अहिंसा पर बल देते हुए कहा गया है -‘‘अहिंसया च भूतात्मा मनः सत्येन शुध्यति।’’  अर्थात् मानव जाति की आत्मा अहिंसा से तथा मन सत्य से शुद्ध होता है। यहाँ सत्यनिष्ठा के साथ मानव मात्र के प्रति सद्व्यवहार का वर्णन है और मानवाधिकार का यह मूल है। इतना ही नहीं मानवाधिकार का यह मूल मंत्र ईशवास्योपनिषद् में कितने सूक्ष्म रूप से वर्णित है। देखा जाय - ‘‘यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति। सर्वभूतेषु चात्मानम् ततो न विजुगुप्सते।।’’  जो व्यक्ति समस्त मानव जाति को अपने में ही देखता है और समस्त मानवों में अपने आपको देखता है वह मानव मात्र से घृणा नहीं करता है। कितना उदात्त नैतिक उपदेश है मानवाधिकार की रक्षा के लिए। वाजसनेयी संहिता में और स्पष्ट रूप से इस बात को कहा गया है - ‘‘मा हिंसीः पुरूषं जगत्’’  - हे मानव ! तुम संसार में हिंसा मत करो। संस्कृत साहित्य स्त्री-पुरुष समानता का पोषक है। यद्यपि भारतवर्ष का समाज पितृसत्तात्मक है तथा सदियों से रहा है परन्तु मानव-स्त्री (नारी) के प्रति सदैव सद्व्यवहार और उच्च मर्यादा का पालन करने का आदेश और उपदेश संस्कृत वाङ्मय में वर्णित है। निश्चित रूप से यह मानवाधिकार को पुष्ट करने वाला है। आपस्तम्भसूत्र में स्पष्तः वर्णित है कि पति और पत्नी दोनों समान रूप से धन के स्वामी हैं। नारियों के प्रति अन्याय न हों, वे शोक न करें और न वे उदास होने पाये -‘‘शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशुतत्कुलं। न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा।।’’  मानवाधिकार की सार्वभौम घोषणा में विश्व-बन्धुत्व की भावना परोक्ष रूप से स्वीकृत है। बन्धुत्व की भावना सदैव मानव जाति के लिए हितकर है। संस्कृत साहित्य के प्राचीन ग्रन्थों में विश्व-बन्धुत्व की भावना का उपदेश प्रायः दृष्टिगोचर होता है। वेदों में तो यह भावना अतिशय है। संकीर्ण भावना या प्रतिस्पर्धात्मक वैमनस्य की भावना से ऊपर उठकर विश्वबन्धुत्व की भावना का जैसा चित्र वेदों में मिलता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। विश्वबन्धुत्व की यह भावना मानवाधिकार की रक्षा के लिए मेरूदण्ड के समान है। उदाहरण के तौर पर यजुर्वेद का यह उपदेश द्रष्ट्व्य है जिसमें कहा गया है कि - ‘मैं प्राणिमात्र को मैत्रीपूर्ण दृष्टि से देखूँ तथा समस्त जीव भी मुझे मैत्रापूर्ण निर्भय दृष्टि से देखें। इस प्रकार हम एक दूसरे के लिए मित्रवत् रहें।’‘‘मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्। मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।।’’   कहा जा सकता है कि यद्यपि मानवाधिकार कानून और मानवाधिकार की अधिकांश अपेक्षाकृत व्यवस्थाएँ समसामयिक इतिहास से सम्बन्धित हैं तथापि इसके बीज संस्कृत वाङ्मय में यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरे पड़े हैं। भारतीय जनमानस इन तत्वों को भली-भाँति समझता है और अपने जीवन में प्रयोग करना चाहता है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जहाँ मानवाधिकार का परिदृश्य विसंगतियों और विद्रुपताओं से भरा पड़ा है वहीं भारतवर्ष के नागरिक सदियों से मानवाधिकार के उल्लंघन को हेय तथा निकृष्ट मानते हुए सर्वे भवन्तु सुखिनः, वसुधैव कुटुम्बकम्, यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः, कृण्वन्तो विश्वमार्यम्,  आदि का जयघोष करते हुए मानव-अधिकारों के निर्वहण एवं पालन तथा संरक्षण के पक्षधर हैं।

9.    संस्कृत भारत की विरासत:- संस्कृत भारत की विरासत है। अपनी विरासत को सुरक्षित रखने और सवंर्धित करने का दायित्व हर भारतवासियों का है। इसी उद्देश्य के तहत प्रत्येक वर्ष भारत में श्रावणी पूर्णिमा को संस्कृत दिवस मनाया जाता है। सन् 1969 से भारत सरकार के आदेशानुसार संस्कृत दिवस हर वर्ष मनाया जाता है। विगत अनेक वर्षो से संस्कृत सप्ताह का आयोजन किया जा रहा है। यह गत वर्ष 26 अगस्त से 1 सितम्बर तक मनाया गया है। इसी अवसर पर थाईलैण्ड में  16वाँ विश्व संस्कृत सम्मेलन सम्पन्न है। संस्कृत विश्व की प्राचीनतम भाषाओं में अग्रगण्य है। भारत सहित विश्व के 300 से अधिक विश्वविद्यालयों में संस्कृत का अध्ययन-अध्यापन हो रहा है। भारत के संविधान में संस्कृत आठवीं अनुसूची में सम्म्लिित अन्य भाषाओं के साथ विराजमान है। त्रिभाषा सूत्र के अन्तर्गत संस्कृत भी आती है। भारत वर्ष में वर्तमान में दर्जन भर संस्कृत विश्वविद्यालय हैं जो गौरव का विषय है। नासा का कहना है कि संस्कृत भाषा वैज्ञानिक भाषा है इसलिए कम्प्यूटर के लिए अत्यन्त उपयोगी है। संस्कृत में छिपा ज्ञानरत्न हमारे देश की सम्पत्ति है। आने वाली पीढी को उस ज्ञानरत्न से परिचित कराना हमारा दायित्व है। भाषा किसी समुदाय या जाति की जागीर नहीं होती इसलिए हर भारतीय की यह भाषा है। संस्कृतभाषा गंगा के समान पवित्र और कान्ता के समान उपदेशक है।

10.     श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों की मंजूषा संस्कृत:- संस्कृत भाषा में निबद्ध धर्मशास्त्र और नीति शास्त्र   मानवीय मूल्यों की श्रेष्ठ मंजूषा है। धर्मशास्त्र उस शास्त्र को कहते हैं जिसमें राजा-प्रजा के अधिकार, कर्Ÿाव्य, सामाजिक आचार-विचार, व्यवस्था, वर्णाश्रम धर्म, नीति, सदाचार और शासन सम्बन्धी नियमों की व्यवस्था का वर्णन होता है। संस्कृत के काव्य साहित्य की कुछ कृतियों में नीति विषयक सूक्तियों की प्रधानता तथा उपदेशात्मक सूक्तियों भी सम्मिलित हैं। इन पर धर्म और दर्शन दोनों का प्रभाव है। सामाजिक सद्भाव, मैत्री भावना का निर्माण, धर्म, दर्शन, सदाचार और राजनीति जैसे गम्भीर विषयों का सरल काव्यमयी भाषा में प्रतिपादन महŸवपूर्ण विषय हैं। ऐसे ग्रन्थों को नीतिशास्त्र की श्रेणी में रखा जाता है। संस्कृत भाषा में रचित रामायण अपने विशिष्ट गुणों के कारण धर्मशास्त्र भी है और नीतिशास्त्र भी। आदिकवि वाल्मीकि रचित रामायण संस्कृत साहित्य की एक अमूल्य निधि है। वाल्मीकि रचित रामायण चरित्रों की एक विशाल मन्जुषा है जिसमें चरित्र रूपी अनेकानेक पत्र रखे हुए हैं। रामायण एक अथाह सागर है तो इसके पात्र बहुमूल्य रत्न। जिस पात्र की भारतीय जनमानस पर सबसे अधिक छाप है वह पात्र मर्यादा पुरूषोŸाम श्रीराम के सिवा कौन हो सकता!  राम भारतीय संस्कृति में परमात्मा के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित हैं परन्तु संस्कृत वाङ्मय के एक पात्र के रूप में राम प्रतीक बन गए हैं मर्यादा के, उच्च आदर्श के।  भारतीय मूल्यों में जो सर्वोच्च आदर्श हैं वे सब राम के चरित्र रूपी माला में  मोतियों के समान पिरोये हुए हैं। राम एक आदर्श राजा, आदर्श पति,  आदर्श पुत्र,   आदर्श भाई के रूप में मर्यादापालक हैं। उनकी कुछ चारित्रिक विशेषताएँ हैं जो युगों युगों तक लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करती हैं।   श्रीराम का चरित्र तथा उनके असंख्य आदर्श गुणों का लेखनी द्वारा वर्णन करना समुद्र को छोटी नाव से पार करने के समान  कठिन है। निश्चय हीं श्रीराम सद्गुणों के समुद्र थे। सत्य, सौहार्द, दया, क्षमा, मृदुता, धीरता, वीरता, गंभीरता, अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान, पराक्रम, निर्भयता, विनय, शान्ति, तितिक्षा,उपरति, संयम, निःस्पृहता, नीतिज्ञता, तेज, प्रेम, त्याग, मर्यादासंरक्षण, एकपत्नीव्रत, प्रजानुरंजकता, ब्राह्मण भक्ति, मातृ-पितृ-गुरू भक्ति, भ्रातृप्रेम, मैत्री, शरणागतवत्सलता, सरलता, व्यवहारकुशलता, साधुरक्षण, प्रतिज्ञापालन, दुष्टदलन, निर्वेदता, लोकप्रियता, अपिशुनता, बहुज्ञता, धर्मज्ञता, धर्मपरायणता,पवित्रता आदि-आदि समस्त गुणों का मर्यादा पुरूषोŸाम श्रीराम के चरित्र में पूर्ण विकास हुआ है। निश्चय हीं राम भारतवर्ष के हीं नहीं अपितु सम्पूर्ण जगत् के आदर्श हैं।

11.     संस्कृत साहित्य के सिरमौर कवि कालिदास के काव्यों में निहित शैक्षणिक तत्त्व:-  महाकविकालिदास विरचित श्रव्य एवं दृश्य दोनो काव्यों में शैक्षणिक तत्त्व कूट-कूट कर भरे हुए हैं। काव्य का सीधा सम्बन्ध हृदय से होता है इसलिए काव्य का सीधा प्रभाव भी दिल पर ही पड़ता है। उचित भाव, आरोह-अवरोह के साथ भाषा ज्ञान, अभिनय कला का विकास, मानव चरित्र तथा उसकी प्रकृति से सामान्य जन को अवगत कराना, पूर्व एवं आधुनिक व्यवहारों से पाठकों को परिचित कराना, पाठकों के शब्द भण्डार में वृद्धि कराना, चिन्तन के स्वरूप का विकास प्रस्तुत करना आदि कालिदासीय काव्यों के सामान्य शैक्षणिक तत्त्व हैं। साथ ही जीवन के मूल्य, जीवन-जीने की नीतियाँ और उनसे होने वाले लाभों को भी कालिदास ने प्रस्तुत किया है। जैसे विना नाविक के नाव तथा विना चालक के यान दिशाहीन हैं वैसे ही कालिदासीय काव्यों के शैक्षणिक तत्त्वों के अध्ययन तथा ज्ञान के अभाव में मानव जीवन दिशाहीन एवं भ्रमित है। कालिदास के काव्य दिशाहीन मनुष्य को दिशा प्रदान करते हैं तथा जीने की नीतियों एवं छात्र के ज्ञान में प्रवीणता लाते हैं। सामान्य मनुष्य ‘‘कान्तासम्मितोपदेश’’ के द्वारा अपना तथा अपने समाज का सम्यक् तथा सर्वाङ्गीण विकास कर सकता है। उसके वैचारिक स्तर में सम्पूर्णता आती है। सम्पूर्णता प्राप्ति से एक आदर्श मानव का निर्माण होता है और वह सहसा कह उठता है - ‘‘रामादिवत् वत्र्तितव्यं न रावणादिवत्।’’ कालिदासीय काव्यों में निहित तत्त्व जीवन के हितार्थ लाभप्रद एवं अमृतस्वरूपा औषधि हैं। इस अमृततुल्य औषधि में जीवन के मूल्य सुरक्षित हैं। सम्पूर्ण जीवन का सार इसके आंचल में विद्यमान है। कालिदासीय काव्य जीवन के लिए स्वस्थ्य आधार हैं। इसके अध्ययन एवं ज्ञान के विना जीवनशैली अधूरी तथा अन्धकारमय है। साहित्यिक, भाषिक, वैज्ञानिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, राष्ट्रिय, अन्ताराष्ट्रिय एवं कलात्मक मूल्य कालिदासीय काव्यों में भरे-पड़े हैं। नैतिकता एवं राष्ट्रियता की दृष्टि से भी महाकवि के काव्यों का स्थान उच्चतम है। नैतिक एवं राष्ट्रिय पृष्ठभूमि के लिए महाकवि के वाक्य अनुकरणीय हैं। श्रेष्ठ एवं वीर महापुरूष इनके रूपकों के पात्र बनकर हमारे समक्ष आते हैं जो हमारे चतुर्दिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। एक उदाहरण के रूप में यहाँ शिक्षक की विशेषता को कालिदास की दृष्टि से देखा जाय, जो कितना सटीक है क्योंकि शिक्षण कार्य में शिक्षक एक आवश्यक एवं मूलभूत तत्व के रूप में सर्वविदित है - श्लिष्टाक्रिया कस्यचिदात्मसंस्था संक्रान्तिरन्यस्य विशेषयुक्ता। यस्योभयं साधु स शिक्षकाणां धुरि प्रतिष्ठापयितव्य एव ।।  अर्थात् सर्वश्रेष्ठ शिक्षक वही है जो विद्वान् तो हो ही साथ ही साथ अपने ज्ञान से छात्र को भी अच्छी तरह सिखाना जानता हो। शिक्षक की क्रिया, उसकी विद्या अपने आप में ही सुन्दर रहती है। दूसरी ओर कुछ शिक्षक अच्छी तरह सिखाना ही जानता है, किन्तु जिसमें दोनों ही बातें अच्छी हो वही शिक्षकों में सर्वश्रेष्ठ माना जाना चाहिए। शिक्षक का ज्ञानवान् होना तथा अपने ज्ञान के द्वारा छात्रों को सम्यक् रूप से अधिगम कराना शिक्षाशास्त्र के मुख्य तत्त्व हैं। जो इन दोनों में प्रवीण है वही सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है। एक शिक्षक के मुँह से ऐसी बात कहवाकर कालिदास ने एक आदर्श शिक्षक का सुन्दर विधान किया है। साथ ही कालिदास यहीं चुप नहीं बैठते। वह कह उठते हैं - ‘‘लब्धास्पदोऽस्मीति विवाद भीरोस्तितिक्षमाणस्य परेण निन्दाम्। यस्यागमः केवल-जीविकायै तं ज्ञान-पण्यं वणिजं वदन्ति।।’’  अर्थात् - मुझे नौकरी मिल गई है - इस विचार से जो अध्यापक विवादो से डरता है, दूसरे के द्वारा की गई अपनी निन्दा को सहता रहता है और जिसका शास्त्र-ज्ञान केवल पेट भरने के लिए ही है, वह शिक्षक के रूप में  बनिया है जो अपना ज्ञान बेचा करता है। कालिदास भारतीय संस्कृति के पोषक हैं। भारतीय संस्कृति में शिक्षक का स्थान काफी सम्माननीय है। अतः शिक्षक की भूमिका समाज में काफी बढ़ जाती है। शिक्षक पीढ़ी तैयार करता है। अतः शिक्षक को स्वयं समालोचकांे की नजर में खरा उतरना पड़ता है। कालिदास इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर मालविकाग्निमित्रम् में स्पष्टतः कहते हैं कि शिक्षक की शिक्षा अथवा विद्या की कोई बात जब तक समालोचकों के आगे परीक्षार्थ न रखी जाय और उनके द्वारा न सराही जाय तब तक वह निर्दोष नहीं कही जा सकती। शिक्षक को समालोचकों के समक्ष अपनी विद्वता एवं  ज्ञान की परीक्षा सदैव देनी पड़ती है। जिस प्रकार सोने की शुद्धता हेतु अग्नि-परीक्षा होती है। सोना असली और शुद्ध तभी कहा जाता है जब  उसकी  अग्नि-परीक्षा होती है। अग्नि-परीक्षा में शुद्ध सोना काला न पड़कर और भी उज्ज्वल हो उठता है, निखर उठता है। इसी तरह एक शिक्षक भी समालोचकों की परीक्षा में उत्तीर्ण होकर निखर उठता है। कालिदास के हीं शब्दों में- उपदेशं विदुः शुद्धं सन्तस्तमुपदेशिनः। श्यामायते न विद्वत्सु यः कांचनमिवाग्निषु।। शिक्षक को कदापि परीक्षा से घबराना नहीं चाहिये। सत्यासत्य का विवेचन सज्जन हीं करते हैं। शिक्षक की सत्यता एवं असत्यता के सन्दर्भ में कालिदास के रघुवंशम् की यह पंक्ति भी पूर्वोक्त कथन का समर्थन करती है-  तं सन्तः श्रोतुमर्हन्ति  सदसद्वयक्तिहेतवः।   हेम्नः संलक्ष्यते ह्यग्नौ विशुद्धिः श्यामिकाऽपि वा।।  अभिज्ञानशाकुन्तलम् के प्रथम अंक में भी कवि ने अपनी इसी बात को पुष्ट करते हुए कहा-आ परितोषाद् विदुषां न साधु मन्ये प्रयोगविज्ञानम्। बलवदपि   शिक्षितानामात्मन्यप्रत्ययं       चेतः।।  जब तक विद्वानों को पूर्ण सन्तोष न हो जाय तब तक शिक्षक को अपने विशिष्ट ज्ञान को उत्कृष्ट नहीं मानना चाहिए। भली-भाॅंति निपुणता प्राप्त करने के बाद भी विद्वानों का मन अपने विषय में अविश्वासी हीं रहता है।  शिक्षक को शिक्षण-कला में दक्ष होना चाहिए। उचित एवं अनुचित पात्र की उसे परख होनी चाहिए। शिक्षक को सदैव सत्पात्र को हीं शिक्षा देनी चाहिए कुपात्र को नहीं- ऐसा मानना है कविकुलगुरु कालिदास का। इस बात का उल्लेख महाकवि ने व्यंजना शैली में अपने प्रसिद्ध रूपक मालविकाग्निमित्रम् के प्रथम अंक में भी किया है। मालविकाग्निमित्रम् में गणदास नामक पात्र एक शिक्षक है। वह नाटक में अपनी शिष्या मालविका को सत्पात्र मानता है। उसे वह जो कुछ शिक्षा देता है वह उसमें ऐसे भव्य और उत्कृष्ट रूप में परिणत होती है जिससे  उसकी तुलना उस जल-विन्दु से करनी पड़ती है जो सीप के भीतर पड़कर मोती बन जाता है। शिक्षा जलविन्दु है जो मालविका रूपी सत्पात्र सीपी में जाकर मोती की तरह चमक उठता है। योग्य-छात्र को दी गई विद्या इसी तरह निखर उठती है। कालिदास स्पष्ट शब्दों में कहते हैं-  पात्रविशेषे न्यस्तं गुणान्तरं व्रजति शिल्पमाधातुः। जलमिव समुद्रशुक्तौ मुक्ताफलतां पयोदस्य।।

12.     संस्कृत साहित्य और पर्यावरण संरक्षण:- वर्तमान शताब्दी में हमारा समाज स्वार्थ के वशीभूत होकर, भौतिक लिप्सा से लालायित होकर अपने लिए उपहार स्वरूप प्रदत्त पर्यावरण का अनुचित एवं अनैतिक दोहन कर उसे असंतुलित कर चुका है। इस धरा-धाम से मानव प्रजाति ही अपना अस्तित्व न खो दे अतएव हमें पर्यावरण संरक्षण के प्रति जवाबदेह होना होगा, हमें जागरूक बनना पड़ेगा। पर्यावरण का उचित उपयोग करते हुए भावी पीढ़ी तक उसे उस रूप में पहुँचाने की जिम्मेदारी हमारी ही बनती है, जिस रूप में वह हमें प्राप्त हुई है। जीवन चक्र को संतुलित करने के लिए हमें प्रकृति से छेड़-छाड़ की इजाजत नहीं। हमारी हठधर्मिता ने पर्यावरण को प्रदूषित कर दिया है।    आज पर्यावरण-प्रदूषण एक विश्व समस्या का रूप ले चुका है। सम्पूर्ण विश्व आज प्रदूषण को लेकर चिन्तित है। अतिशय भोगवादी, अविवेकशील एवं दुराचार कर्म के कारण प्रदूषण की समस्या सम्पूर्ण जगत् पर भारी पड़ रही है। मृत्तिका प्रदूषण, जलदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, रेडियोधर्मी प्रदूषण, ओजोन परत का क्षय आदि के रूप में पर्यावरण प्रदूषण दृष्टिगोचर हो रहा है। पृथिवी के चारों ओर जो आवरण है उसे पर्यावरण कहते है। मनुष्य अपने क्रियाकलापों के द्वारा अवशिष्ट पदार्थों और ऊर्जा का जो विमोचन करता है और जिससे प्राकृतिक सन्तुलन दूषित होता है वही प्रदूषण के रूप में जाना जाता है। प्रकृति और पर्यावरण मानव की चिर सहचरी के रूप में विख्यात है। पर्यावरण के मूलभूत तत्व क्षिति-जल-पावक-गगन-समीर के बिना मनुष्य की कल्पना असंभव है। संस्कृत साहित्य में पर्यावरण संरक्षण के लिए गहन चिन्तन किया गया है। अमर कलाकार दीपशिखा कालिदास ने अपने काव्यो में पर्यावरण प्रबन्धन की सुखद एवं मनोहारी चित्रण कर हमें संदेश दिया है कि हम प्रकृति को अपनी जीवन दायिनी शक्ति के रूप में समझे, दासी के रूप में नहीं। प्रकृति अष्ट-रूपा है। उसके आठ रूप हमारे अस्तित्व को बरकरार रखते है। जलमयीमूत्र्ति, अग्निरूपामूत्र्ति, मानवप्रजातिरूपीमूत्र्ति, सूर्य-चन्द्रमयीमूत्र्ति, पृथ्वीरूपीमूत्र्ति, वायुरूपामूत्र्ति और आकाशरूपीमूत्र्ति - यही प्रकृति का, पर्यावरण का कल्याण कारक रूप है। इनका अनैतिक दोहन, अनुचित प्रबन्धन आपदाओं का जन्म देने वाली है। यह ‘शिव’ अर्थात् जगत् के कल्याण कारक रूप की अष्टमूत्र्ति कही गई है। ‘शिव’ को छेड़ने पर शिव हमें ‘शव’ बना देता है। इस शिव को अपने कल्याण रूप में ही प्रयोग करें। कालिदास के ही शब्दों में - या सृष्टिः स्रष्टुराद्या,   वहति विधिहुतं या हविर्या च होत्री,  ये द्वे कालं विधत्तः श्रुति विषयगुणा या स्थिता व्याप्य विश्वम्। यामाहुः सर्वबीजप्रकृतिरिति          यया प्राणिनः प्राणवन्तः, प्रत्यक्षाभिः प्रपन्नस्तनुभिरवतु          वस्ताभिरष्टाभिरीशः। संस्कृत के साहित्य चाहे वे वैदिक हों या लौकिक या फिर आयुर्वेदिक या दार्शनिक, सबने पर्यावरण चिन्तन कर इसके संरक्षण की बात कही है। हमारे आर्ष ग्रन्थ इसके प्रमाण हंै कि प्रकृति के बिना मानव का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा अतएव उनको संरक्षित करें। ऋग्वेद कहता है कि जिस प्रकार पिता अपने पुत्र का कल्याण करता है उसी तरह ये प्रकृति के मूलभूत तत्व हमारे कल्याण कारक हैं। अग्नि-सूक्त का यह यह मन्त्र द्रष्ट्व्य है-स नः पितेव सूनवे, अग्ने सूपायनो भव। सचस्वा नः स्वस्तये।  वेद प्रकृति के समस्त आवश्यक तत्वों को देवता मानता है क्योंकि ये तत्व ही हमें प्राणशक्ति प्रदान करने वाले हैं। इनके बिना एक पल भी हमारा जीवन संभव नहीं। प्रसिद्ध गायत्री मन्त्र क्या है? सौर-मण्डल में स्थित सूर्य के संरक्षण एवं सूर्य के द्वारा प्रदत्त सौर ऊर्जा एवं अन्य जीवनोपयोगी वस्तु के प्रति कृतज्ञता ही तो है -ऊँ भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं। भर्गोदेवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।।  सूर्योपनिषद् में स्पष्टतः सूर्य की ही महिमा का बखान मिलता है - आदित्याय विद्महे सहस्रकिरणाय धीमहि। तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्।। नारायणोपनिषत् अग्नि की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहता है - वैश्वानराय विद्महे लालीलाय धीमहि। तन्नो अग्निः प्रचोदयात्।। इसी प्रकार जल रूपा गंगा एवं औषधरूप तुलसी की महत्ता किसी से छिपी नहीं-भागीरथ्यै च विद्महे विष्णुपद्यै च धीमहि। तन्नो गङ्गा प्रचोदयात्। तुलसीपत्राय विद्महे विष्णुप्रियाय धीमहि। तन्नो वृन्दा प्रचोदयात्।। अग्नि, सवितृ, इन्द्र, विष्णु, रूद्र, वृहस्पति, अश्विनी कुमार, वरूण, उषा, सोम, मरूत्, पर्जन्य, रूद्र, वाक्, पूषन्, मित्र, सूर्य आदि वैदिक देवता साक्षात् प्रकृति के रूप हैं, पर्यावरण के पोषक है। वैदिक ऋष्यिों ने प्राकृतिक लीलाओं को सुगमतापूर्वक समझने-समझाने के लिए देवता की कल्पना की है। यही पर्यावरण हमारा पोषक, रक्षक एवं मार्ग-दर्शक है। अतः इन्हें बचाकर रखना हमारा परम कत्र्तव्य है। हम इनका उपभोग करें परन्तु निरासक्त होकर जितना हमारे जीवन-यापन के लिए आवश्यक है। यह समस्त चराचर जगत् परम ब्रह्म परमेश्वर की असीम अनुकम्पा से हमें प्राप्त हुई है। इस जगत् का सब-कुछ चर-अचर, चेतन-अचेतन, सजीव-निर्जीव उसी ब्रह्म का रूप है। हम उसका अनासक्त होकर उपयोग करे आसक्तिपूर्वक नहीं-ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्कि´्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भु´्जीथा मा गृधः कस्य स्विद् धनम्।। उपनिषद् हमे उपदेश करते है कि हम समस्त प्राणियों को परमात्मा रूप में देखें किसी से घृणा न करे। हम उनकी सेवा एवं सुख पहुँचाने का कार्य करें- यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति। सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते।। वेदत्रयी, ब्राह्मण-आरण्यक, वेदान्त समस्त वैदिक वाङ्मय हमें उपदेश देते हैं कि हम उठें, जगंे ज्ञान प्राप्त कर पर्यावरण प्रकृति एवं परम तत्व ने महत्व को समझे। उतिष्ठत-जाग्रत-प्राप्य वरान्निबोधत। प्रकृति के मूल तत्व हमे सद्कर्मों की प्रेरणा देते हैं- अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्। संस्कृत साहित्य में पर्यावरण संरक्षण के अनेक उपाय उपलब्ध होते हैं। इनमे से कुछ सामान्य उपाय हैं तो कुछ विशिष्ट।

13.    संस्कृत का पुनरभ्युदय आवश्यकता और प्रयास:-  अपार हर्ष का विषय है कि संस्कृत का आज पुनरभ्युदय हो रहा है और इसकी माँग दिन प्रति दिन प्रबल होती जा रही है। चक्रनेमिक्रमेण संस्कृत भाषा की दशा ऊपर उठ रही है। राष्ट्र की इस अप्रमेय और अक्षय कोष का विराट् रूप धीरे-धीरे जनता के सामने आ रहा है। लोग इसके गौरव को फिर से पहचानने लगे हैं। संस्कृत के प्रति श्रद्धा एवं अभिरूचि की भावनाओं का उन्मेष हो रहा है। जागरूक छात्रों के लिए संस्कृत आज  भारत हीं नहीं विश्वभर में कामधेनु बनी हुई है। विकासशील विज्ञान एवं आधुनिक जीवन के विविध व्यवसाय, उद्योग, कलाकौशल आदि के क्षेत्रों में अभीष्ट पारिभाषिक शब्दों के लिए भारतीय समस्त भाषाओं को संस्कृत से उपकृत होना पड़ता है। मूल्यशिक्षा, पर्यावरण-अध्ययन, भाषा-विज्ञान, व्याकरण, भारतीय साहित्य एवं संस्कृति का अध्ययन संस्कृत के बिना आकाशकुसुम सदृश है। लोकधारणा है कि संस्कृतभाषा कठिन है, इसका व्याकरण दुरूह है परन्तु ऐसी धारणा निराधार है। संस्कृत भाषा वैज्ञानिक है। वैज्ञानिकता इसके कण-कण में विद्यमान है। व्याकरण सटीक है। व्याकरण में संक्षिप्त विधि का सहारा लिया गया है। थोड़े से अभ्यास एवं आम्रेरण से व्याकरण का ज्ञान हो सकता है।

14.     संस्कृत में संभावनाएँ:- संस्कृत विषय में अपार सम्भावनाएँ हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं में सामान्य हिन्दी के अधिकांश प्रश्न संस्कृत व्याकरण के छोटे-छोटे नियमों पर आधारित होते हैं। संघ लोक सेवा आयोग, राज्य लोक सेवा आयोग आदि द्वारा आयोजित प्रशासकीय पदाधिकारियों की परीक्षा में ऐच्छिक विषय के रूप में मुख्यपरीक्षा में संस्कृत रखकर छात्र-छात्राएँ आसानी से उŸाीर्णता हासिल कर सकते हैं। वैसे यह बात बिल्कुल सही है कि इस विषय में  गणित के समान अंक मिलते हैं। शुद्ध उŸार पूर्ण अंक दिलाते हैं। शैक्षणिक संस्थाओं में संस्कृत में व्याख्याता, पी0जी0टी0, टी0जी0टी0 सम्पूर्ण भारत में रखे जाते हैं। साथ हीं विदेशों में स्थापित भारतीय विद्यालयों में भी संस्कृत शिक्षक रखे जाते हैं। भारतीय सेना में एक ‘धर्मशिक्षक’का पद होता सभी कैन्टों में होता है। वहाॅं संस्कृत भाषा के हीं छात्र रखे जाते हैं। राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान एवं संस्कृत आयोग में कर्मचारियों की नियुक्ति में संस्कृत भाषा जानने वालों को वरीयता दी जाती है। अनुवादक के रूप में कार्य करने वालों की नियुक्ति में भी संस्कृत भाषा जानने वालों को स्थान मिलता है। पाण्डुलिपियों को पुस्तकाकार देने में पुरातत्व विभाग एवं प्राचीन शोध संस्थान संस्कृत भाषा के छात्रों को काॅन्ट्रेक्ट पर रखती है। संस्कृत की अनेक शाखाएँ हैं जिसमें विशेषज्ञता हासिल कर देशी-विदेशी संस्थाओं में कार्य करने का अवसर प्राप्त होता है। जैसे- ज्योतिष् शास्त्र के ज्ञाताओं को सभी समाचार चैनल्स में ज्ञान के आधार पर रखा जाता है। ज्योतिष् से सारा संसार परिचित है। अंकज्योतिष्, फलितज्योतिष्  दोनों में काफी संभावनाएँ हैं। वास्तुशास्त्र एवं आयुर्वेद में भी असीम संभावनाएँ हैं। दूरदर्शन एवं आकाशवाणी में भी संस्कृत समाचार वाचकों की नियुक्ति संस्कृत भाषा जानने वालों की हीं होती है।

15.     संस्कृतानुरागियों का मंदिर संस्कृत अध्ययन के वर्तमान केन्द्र:-  यू0जी0सी0 से मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय आज संस्कृत भाषा के लिए स्थापित हैं। जैसे - लाल बहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ दिल्ली, राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान नयी दिल्ली, राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ तिरूपति, कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय,सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी, जगन्नाथ संस्कृत विश्वविद्यालय पुरी, श्री शंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय कालडी, श्री सोमनाथ संस्कृत विश्वविद्यालय वेरावल, महर्षि पाणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय उज्जैन इत्यादि। इनके अतिरिक्त भी कई संस्कृत के विश्वविद्यालय हैं  जहाॅं संस्कृत माध्यम से अध्ययन-अध्यापन होता है। ये विश्वविद्यालय संस्कृत की पारम्परिक धाराओं में अध्यापन कराते हैं। जैसे- शास्त्री = स्नातक, आचार्य = स्नातकोŸार, विद्यावाचस्पति = पीएच0 डी0, विद्यावारिधि = डी0लिट0,  शिक्षाशास्त्री=बी0एड0, शिक्षाचार्य=एम0एड0 आदि। इसके अतिरिक्त कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत के सभी विश्वविद्यालयों में आधुनिकपरम्परा में संस्कृत विभाग हैं। जहाँ आधुनिक डिग्रियाॅं प्रदान की जाती हैं। जैसे - दिल्ली विश्वविद्यालय, कलकŸाा विश्वविद्यालय, विश्व भारती, बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय आदि। संस्कृत के दो हजार छात्रों के लिए केन्द्र सरकार द्वारा संचालित संस्कृत विश्वविद्यालयों में हर वर्ष पूरे भारतवर्ष में बी0एड0 कराया जाता है। इसके लिए छात्रों को प्रवेश परीक्षा उŸाीर्ण करनी पड़ती है। विशेष बात है कि इसमें सिर्फ संस्कृत के हीं छात्र बैठ सकते हैं और यहाँ अध्ययन शुल्क नगण्य है। साथ ही मेधावी छात्रों को छात्रवृŸिा प्रदान की जाती है।

16.     संस्कृत का भविष्य:- संस्कृत के बारे में जानकारी का अभाव एवं अपनी धरोहर की उपेक्षा करने की आदत ने इसके प्रभाव को धुमिल करने कुचेष्टा की है। परन्तु संस्कृत आज भी प्रासंगिक है। अच्छा मार्गदर्शन एवं सम्यक् ज्ञान से संस्कृत भाषा आज भी फलप्रदायी है। संस्कृत के साथ किसी विदेशी भाषा का ज्ञान विदेशों में भी रोजगाार के द्वार संस्कृत भाषियों के लिए खोलते हैं। ध्यातव्य है कि संस्कृत का अध्ययन-अध्यापन संस्कृत भाषा के अतिरिक्त हिन्दी, बांगला, उड़िया, तमिल मलयालम, गुजराती, तेलगु, कन्नड़, मराठी आदि भारतीय भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त जर्मन, अंग्रेजी आदि विदेशी भाषाओं में इसलिए होती है क्योंकि अपनी मातृभाषा या सम्पर्क भाषा में हम अपने प्राचीन ग्रन्थों में छिपे रत्नों को जान सकें। परीक्षाओं में भी इन भाषाओं में लिखने की छूट होती है। यह समयानुकूल उचित है। अन्ततः कहा जा सकता है कि संस्कृत भाषा का अध्ययन किसी भी दृष्टि से अन्य विषयों या भाषाओं से पीछे नहीं है। यह रोजगाारपरक एवं जीवन जीने की कला को विकसित करने वाला विषय है।
                    निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि संस्कृृत वाङ्मय किसी एक पुरातन भाषा का इतिहास हीं नहीं अपितु भारतीय मनीषा का संचित कोष है। यह केवल काव्य - सुधा के निस्यंद से हीे सिंचित नहीं रहा, इसकी विविध विधाओं ने सैदव विश्व के विद्यानुरागियों को आकृष्ट  किया है। कहीं ऋषियों के उद्गार हैं तो कहीं यज्ञीय पूर्ण आस्था , कहीं काव्य की मधुर अभिव्यक्ति है तो कहीं अनन्त के सूक्ष्म के अवधारण की जिज्ञासा, कहीं प्राचीन आचार्यों की तार्किक मेधा की अन्वेषणा है तो कहीं विज्ञान के विविध पक्षों  का उन्मीलन। सिर्फ आवश्यकता है हम अपनी धरोहर को वैज्ञानिक सोच के साथ अंगीकार करें क्योंकि - भारतस्य हितम् संस्कृते निहितम्।
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अध्यक्ष, संस्कृत विभाग
संताल परगना महाविद्यालय कैम्पस,
सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय,

 दुमका झारखण्ड - 814101

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