जयदेव कृत गीतगोविन्दम्


                                                     

                             sw.png                                                 20190413_124949.jpg                              धनंजय कुमार मिश्र

संस्कृत-गीति काव्य की परम्परा में महाकवि जयदेव का विशिष्ट स्थान है। इन्होंने गीतगोविन्द काव्य की सृजना की है। कृष्णलीला पर रचित गीतगोविन्द एक मौलिक, ललित एवं गेय कृति है। यह जयदेव की लोकप्रिय रचना है। जयदेव बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन के आश्रित कवि थे। ये किन्दुबिल्व निवासी भोजदेव के पुत्र थे। इनकी माता का नाम रामादेवी था। महाकवि जयदेव राजा लक्ष्मणसेन की राजसभा के प्रमुख रत्न कहे जाते हैं। एक श्लोक इस बात को सिद्ध भी करता है-

       ‘‘ गोवर्द्धनश्च शरणो      जयदेव उमापतिः।
         कविराजश्च रत्नानि समितौ लक्ष्मणस्य च।। ’’


इतिहासकार ग्यारहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध जयदेव का समय निर्धारित करते हैं।

               गीतगोविन्द में 12 सर्ग हैं। प्रत्येक सर्ग गीतों से समन्वित हैं। सर्गों को परस्पर मिलाने के लिए तथा कथा के सूत्र को बतलाने के लिए कतिपय वर्णात्मक पद्य भी हैं। गीतगोविन्द भगवती संस्कृत-भारती के सौन्दर्य तथा माधुर्य की पराकाष्ठा है। इसमें कोमलकान्त पदावली का सरस प्रभाव तथा मधुर भावों का मधुमय सन्निवेश है। आनन्दकन्द व्रजचन्द तथा भगवती राधिका की ललित लीलाओं का ललाम वर्णन जितना गीतगोविन्द में मिलता है उतना अन्यत्र दुर्लभ है।

             गीतगोविन्द में श्रृंगार और भक्ति का अनूठा संगम है। इसमें राधा और कृष्ण के प्रणय की विविध दशाओं का हृदयग्राही चित्रण हुआ है। गीतगाविन्द एक उत्कृष्ट रचना है। रस की दृष्टि से इसके दो पक्ष हैं- श्रृंगार और भक्ति। श्रृंगार रस के वर्णन में जयदेव कालिदास से पीछे नहीं हैं। इसमें ध्वनि और अर्थ को संयुक्त करने की कला का सफलता से निर्वाह किया गया है। जयदेव की कोमलकान्तपदावली स्मरणीय है। लम्बे-लम्बे समास के बावजूद भी अर्थ स्पष्ट हैं। यथा -

चन्दनचर्चितनीलकलेवरपीतवसनवनमाली।
केलिचलन्मणिकुण्डलमण्डितगण्डयुगस्मितशाली।।
हरिरिहमुग्धवधूनिकरे विलासिनि विलसति केलिपरे।।

         
उपमा की कल्पना तथा उत्प्रेक्षा की उड़ान में यह काव्य अनूठा है। प्रेम की उदात्त  भावना इसकी बड़ी विशिष्टता है। प्रेम की निर्मलता तथा आध्यात्मिकता सुन्दर शब्दों में अभिव्यक्त हुई है-

ललितलवङ्गलतापरिशीलनकोमलमलयसमीरे।    
  मधुकरनिकरकरम्बितकोमलकूजितकुञ्जकुटीरे।     
     नृत्यति युवतिजनेनसमंसखि विरहिजनस्यदुरन्ते।।

गेयता गीतगोविन्द की प्रमुख विशेषता है। इसके पदों में लय है, छन्द है और संगीत का माधुर्य कूट-कूट कर भरा हुआ है। दशावतार स्तुति के पद्य भक्ति को गीति प्रदान करते हैं-

वेदानुद्धरते जगन्ति वहते भूगोलमुद् विभ्रते।                    दैत्यं दारयते बलिं छलयते क्षत्रक्षयं कुर्वते।         
     पौलस्त्यं जयते हलं कलयते कारूण्यमातन्वते।                म्लेच्छान्मूच्र्छयते दशाकृतिकृते कृष्णाय तुभ्यं नमः।।

राधा की मनोदशा के वर्णन में कवि ने जिन शब्दों का प्रयोग किया है वह सहृदय एवं भक्त दोनों को आनन्दित करता है-

वहति च चलितविलोचनजलधरमाननकमलमुदारम्।  
 विधुमिह विकटविधुन्तुददन्तदलनगलितामृतधारम्।।
   
 निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि जयदेव कवि रचित गीतगोविन्द संस्कृत साहित्य का सफलतम गीतिकाव्य है। वास्तव में यह एक अपूर्व ग्रन्थ है। अष्टपदी तथा अष्टताल के नाम से प्रसिद्ध गीतगोविन्द की लोकप्रियता का अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि  इस ग्रन्थ पर अनेक टीकाएॅं लिखी जा चुकी हैं तथा अनेक कवियों ने इसके आधार पर अनेक काव्यों की रचना की है। निःसन्देह गीतगोविन्द संस्कृत भाषा की ही नहीं विश्व साहित्य का अजर-अमर तथा अद्वितीय काव्य है।
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’विभागाध्यक्ष, संस्कृत-विभाग, संताल परगना महाविद्यालय, सिदो-कान्हु मुर्मू विश्वविद्यालय, दुमका (झारखण्ड)

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