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Showing posts from 2020

महर्षि दधीचि पुत्र पिप्पलाद की प्रेरक कथा

 श्मशान में जब महर्षि दधीचि के मांसपिंड का दाह संस्कार हो रहा था तो उनकी पत्नी अपने पति का वियोग सहन नहीं कर पायीं और पास में ही स्थित विशाल पीपल वृक्ष के कोटर में 3 वर्ष के बालक को रख स्वयम् चिता में बैठकर सती हो गयीं। इस प्रकार महर्षि दधीचि और उनकी पत्नी का बलिदान हो गया किन्तु पीपल के कोटर में रखा बालक भूख प्यास से तड़प तड़प कर चिल्लाने लगा।जब कोई वस्तु नहीं मिली तो कोटर में गिरे पीपल के गोदों(फल) को खाकर बड़ा होने लगा। कालान्तर में पीपल के पत्तों और फलों को खाकर बालक का जीवन येन केन प्रकारेण सुरक्षित रहा।   एक दिन देवर्षि नारद वहाँ से गुजरे। नारद ने पीपल के कोटर में बालक को देखकर उसका परिचय पूंछा- नारद- बालक तुम कौन हो ? बालक- यही तो मैं भी जानना चाहता हूँ । नारद- तुम्हारे जनक कौन हैं ? बालक- यही तो मैं जानना चाहता हूँ ।    तब नारद ने ध्यान धर देखा।नारद ने आश्चर्यचकित हो बताया कि  हे बालक ! तुम महान दानी महर्षि दधीचि के पुत्र हो। तुम्हारे पिता की अस्थियों का वज्र बनाकर ही देवताओं ने असुरों पर विजय पायी थी। नारद ने बताया कि तुम्हारे पिता दधीचि की मृत्यु मात्र 31 वर्ष की वय में ही हो गय

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी

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 संस्कृत भाषा के आदिकाव्य रामायण में आजकल एक प्रसिद्ध श्लोक नहीं मिलता है जिससे पाठकों व जिज्ञासुओं को लगने लगता है कि यह श्लोक रामायण का नहीं है । कुछ लोगों की धारणा बदलने लगती है। कुछ अन्य किसी कवि की रचना मान लेते हैं । आध्यात्म रामायण, रघुवंशम्, प्रतिमानाटकम्, महावीरचरितम्,उत्तररामचरितम् आदि ग्रन्थों का नाम लेने लगते हैं पर यह प्रसिद्ध श्लोक आर्षकाव्य रामायण का ही है। वाल्मीकि ही इसके रचयिता हैं । दो रूप में यह श्लोक है। *"जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी"*, एक प्रसिद्ध संस्कृत श्लोक का अन्तिम आधा भाग है। यह नेपाल का राष्ट्रीय ध्येयवाक्य भी है। यह श्लोक वाल्मीकि रामायण के कुछ पाण्डुलिपियों में मिलता है, और दो रूपों में मिलता है।प्रथम रूप : निम्नलिखित श्लोक 'हिन्दी प्रचार सभा मद्रास' द्वारा १९३० में सम्पादित संस्करण में आया है। इसमें भारद्वाज, राम को सम्बोधित करते हुए कहते हैं- मित्राणि धन धान्यानि प्रजानां सम्मतानिव । जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥ हिन्दी अनुवाद : "मित्र, धन्य, धान्य आदि का संसार में बहुत अधिक सम्मान है। (किन्तु) माता और मातृभूमि का

पवित्र पौराणिक पर्व धनतेरस

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 *पवित्र पौराणिक पर्व धनतेरस*  प्रस्तुति: डॉ धनंजय कुमार मिश्र,अभिषद् सदस्य,  सिदो कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय दुमका झारखण्ड  ----- धनतेरस  पांच दिन तक चलने वाले दीपावली  पर्व का पहला दिन है। इसे धनत्रयोदशी , धनवन्तरि त्रयोदशी  या धन्वन्तरि जयंती  भी कहा जाता है.  पौराणिक मान्‍यता है कि क्षीर सागर के मंथन के दौरान धनतेरस के दिन ही माता लक्ष्‍मी और भगवान् कुबेर  प्रकट हुए थे। यह भी कहा जाता है कि इसी दिन आयुर्वेद के देवता भगवान धन्वन्तरि का जन्‍म हुआ था। यही कारण है कि इस दिन माता लक्ष्‍मी, भगवान् कुबेर और भगवान् धन्‍वन्तरि की पूजा का विधान है. भगवान् धन्‍वन्तरि के जन्‍मदिन को भारत सरकार का आयुर्वेद मंत्रालय 'राष्‍ट्रीय आयुर्वेद दिवस' (National Ayurveda Day) के नाम से मनाता है। इसके अलावा धनतेरस के दिन सोने-चांदी के आभूषण और बर्तन खरीदना शुभ माना जाता है। धनतेरस दीपावली के प्रारंभ  का प्रतीक भी है. इसके बाद छोटी दीपावली या नरक चतुर्दशी  उसके बाद बड़ी या मुख्‍य दीपावली फिर गोवर्द्धन पूजा और अंत में भाई दूज या भैया दूज  का उत्सव  मनाया जाता है।  धनतेरस कार्तिक माह में कृष्ण पक्ष क

संस्कृत और भारतीय संस्कृति के अनन्य अनुरागी थे तिलक

*संस्कृत और भारतीय संस्कृति के अनन्य अनुरागी थे तिलक* डॉ धनंजय कुमार मिश्र  अध्यक्ष संस्कृत विभाग सह अभिषद् सदस्य सि.का.मु.विश्वविद्यालय, दुमका  --- बाल गंगाधर तिलक की आज सौवीं पुण्यतिथि है । भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाने वाले तिलक को संस्कृत व भारतीय संस्कृति से अनन्य अनुराग था। बाल गंगाधर तिलक का सार्वजनिक जीवन 1880 में एक शिक्षक और शिक्षण संस्था के संस्थापक के रुप में आरम्भ हुआ। इसके बाद केसरी और मराठा के माध्यम से उन्होंने अंग्रेजों के अत्याचारों का विरोध तो किया ही, साथ ही भारतीयों को स्वाधीनता का पाठ भी पढ़ाया। वह एक निर्भीक सम्पादक थे, जिसके कारण उन्हें कई बार सरकारी कोप का भी सामना करना पड़ा। पारम्परिक सनातन धर्म व हिन्दू विचारधारा के प्रबल समर्थक तिलक का अध्ययन असीमित था। उनके द्वारा किये गए शोधों से उनके गहन गम्भीर अध्ययन का परिचय मिलता है। अपने धर्म में प्रगाढ़ आस्था होते हुए भी उनके व्यक्तित्व में संकीर्णता का लेशमात्र भी नहीं था। अस्पृश्यता के वह प्रबल विरोधी थे। इस विषय में एक बार उन्होंने स्वयं कहा था कि जाति प्रथा को समाप्त करने के लिए वह कुछ भी करन

"समस्त प्राणियों के स्वामी पशुपति शिव’’

*‘‘समस्त प्राणियों के स्वामी पशुपति शिव’’* प्रस्तुति: डाॅ0 धनंजय कुमार मिश्र सिंडिकेट सदस्य, सि. का. मु. विश्वविद्यालय, दुमका सह अध्यक्ष संस्कृत विभाग, संताल परगना महाविद्यालय, दुमका ------                       भगवान् शिव की महिमा अपरम्पार है। भगवान शिव अनन्त हैं, असीम हैं। शिव रूपरहित हैं। सृष्टि के कण कण में शिव विराजते हैं। वेद-पुराण शिव का गान करते हैं। स्कन्द पुराण के माहेश्वर खण्ड में शिव की अनेक कथाएँ मिलती हैं। शिव में परस्पर विरोधी भावों का सामंजस्य देखने को मिलता है। शिव के मस्तक पर एक ओर चन्द्रमा है जो अमृत का प्रतीक है तो दूसरी ओर गले में विषधर सर्प। शिव अर्धनारीश्वर होते हुए भी कामजित हैं। गृहस्थ होते हुए भी श्मशानवासी और वीतरागी हैं। आशुतोष और सौम्य होते हुए भी भयंकर और रूद्र हैं। इनके आस पास भूत-प्रेत, नंदी-सिंह, मयूर-सर्प-मूषक का समभाव देखने को मिलता है। शिव स्वयं द्वन्द्वों से रहित सह-अस्तित्व के महान् विचार के परिचायक हैं। शिवलिंग सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का प्रतीक है।  *पशूनां पतिं पापनाशं परेशं गजेन्द्रस्य कृत्तिं वसानं वरेण्यम्। जटाजूटमध्ये स्फुरद्गाङ्गवारिं महादेवमेकं

गोस्वामी तुलसीदास आज भी प्रासंगिक

(जयन्ती विशेष) *गोस्वामी तुलसीदास आज भी प्रासंगिक* डाॅ0 धनंजय कुमार मिश्र अध्यक्ष स्नातकोत्तर संस्कृत विभाग एस0 पी0 काॅलेज, दुमका ------ श्रावण शुक्ल सप्तमी। ऐतिहासिक दिन। आज ही के दिन युगप्रवर्तक अनन्य रामभक्त गोस्वामी तुलसीदास का आविर्भाव इस धराधाम पर हुआ। साहित्य जगत् में  रामकाव्य धारा के प्रवर्तक और सगुणोपासक शाखा से सम्बन्धित कवि के रूप में गोस्वामी जी का नाम बड़े ही श्रद्धा और आदर से लिया जाता है परन्तु जनमानस में तो इनका एक व्यापक और विस्तृत स्वरूप है। संस्कृत के आदि कवि महर्षि वाल्मीकि ने अपने महान् ग्रन्थ रामायण में जिस नर राम की कथा का वर्णन किया है, तुलसी ने उसी नर राम की कथा को नारायण राम की कथा में परिवर्तित कर समाज को एक नई दिशा प्रदान की है। भारतवर्ष का तात्कालीन समाज धर्म से च्युत होने लगा था। विधर्मियों का बोलबाला सर्वत्र फैल रहा था। उस समय गोस्वामीजी ने  न केवल रामचरितमानस की रचना की अपितु उसे जन जन तक पहुँचा कर अपूर्व प्रतिभा का परिचय दिया।  तुलसी ने ही सर्वप्रथम राम-राज की अवधारणा इस संसार को दी। जो राज्य अपने में पूर्ण है वही रामराज्य है। तुलसी के ही शब्दों में - 

संस्कृत वाङ्मये वर्णित-चतुष्षष्टिकलानाम् उपयोगिता

संस्कृत वाङ्मये वर्णित-चतुष्षष्टिकलानाम् उपयोगिता (संस्कृतवाङ्मय में वर्णित चैंसठकलाओं की उपयोगिता) डाॅ0 धनंजय कुमार मिश्र अध्यक्ष स्नातकोŸार संस्कृत विभाग                     सह अभिषद् सदस्य (सरकार नामित) सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय,   दुमका (झारखण्ड) 814101 मो0:- 09939658233, 08709105465 म्उंपसरू काउपेीतंेचबक/हउंपसण्बवउ                     संस्कृत शब्द ‘सम्’ उपसर्गपूर्वक ‘कृ’ धातु से ‘क्त’ प्रत्यय जोड़ने पर बना है जिसका अर्थ है - संस्कार की हुई, परिमार्जित, शुद्ध अथवा परिस्कृत। संस्कृत शब्द से आर्यो की साहित्यिक भाषा का बोध होता है। भाषा शब्द संस्कृत की ‘भाष्’ धातु  से निष्पन्न हुई है। भाष् धातु का अर्थ व्यक्त वाक् (व्यक्तायां वाचि) है। महर्षि पत×जलि के अनुसार - ‘‘व्यक्ता वाचि वर्णा येषा त इमे व्यक्त वाचः 1‘‘  अर्थात्- भाषा वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचार दूसरों पर भली भांति प्रकट कर सकता है और दूसरों के विचार स्वयं स्पष्ट रूप से समझ सकता है।     भाषा मानव की प्रगति में विशेष रूप से सहायता करती है। हमारे पूर्वपुरूषों के सारे अनुभव हमें भाषा के माध्यम से ही प्राप्त हुए ह

वेदः शिवः शिवो वेदः

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हर हर महादेव ! सावन की पावन मंगलकामनायें ! सावन माह बाबा भोले नाथ की अराधना का सर्वश्रेष्ठ मास है. वेदों में भोले नाथ को रूद्र कहा गया है. ऐसा इसलिए कहा जाता है, क्योंकि मान्यता है कि वे  दैहिक, दैविक और भौतिक दुखों का नाश करते हैं।  वेद सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ माने जाते हैं। शास्त्रों के अनुसार, वेद: शिव: शिवो वेद: यानी वेद शिव हैं और शिव वेद हैं। अर्थात शिव वेदस्वरूप हैं। इसके साथ ही वेद को भगवान सदाशिव का नि:श्वास बताते हुए उनकी स्तुति में कहा गया है - यस्य नि:श्वसितं वेदायो वेदेभ्योखिलं जगत्. निर्ममे तमहं वंदे विद्यातीर्थमहेश्वरम्। अर्थात वेद जिनके नि:श्वास हैं, जिन्होंने वेदों के माध्यम से संपूर्ण सृष्टि की रचना की है और जो समस्त विद्याओं के तीर्थ हैं, ऐसे देवों के देव 'महादेव' की मैं वंदना करता हूं। सनातन संस्कृति में वेदों की तरह शिव जी को भी अनादि कहा गया है। वेदों में साम्ब सदाशिव को रुद्र नाम से पुकारा गया है। शिवजी को रुद्र इसलिए कहा जाता है, क्योंकि ये रुत अर्थात दुख को दूर कर देते हैं। जो दैहिक, दैविक और भौतिक दुखों का नाश करते हैं, वे रुद्र हैं। इसीलिए उन्होंने त्र

‘संताल और संताली समाज - इतिहास के आईने में’

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धनंजय कुमार मिश्र विभागाध्यक्ष- संस्कृत संताल परगना महाविद्यालय, दुमका सिदो-कान्हु मुर्मू वि.वि. दुमका भारतवर्ष में संतालों के सम्बन्ध में विद्वानों में मतैक्यता नहीं है। अद्यतन अध्ययन यह बताता है कि संताल जाति प्राचीन काल से हीं भारतवर्ष में निवास करती रही है एवं सैन्धव सभ्यता के निर्माण में इनका भी योगदान रहा है।1 वैसे संतालों की उत्पŸिा के बारे में प्रचलित धारणाएॅं अनेक हैं। कुछ लोगों के मतानुसार संताल भारतवर्ष में आर्यों के आगमन से पहले पश्चिमोŸार दिशा से प्रवेश किये2 एवं पंजाब में कुछ समय रहने के पश्चात् आगे बढते-बढते छोटानागपुर के पठार में आ बसे। कुछ लोग कहते हैं कि संताल भारतवर्ष में  उŸार-पूर्व  दिशा से प्रवेश कर आगे बढते हुए दामोदर नदी के दोनों तट पर बस गए।3 अन्य विद्वानों का मत है कि संताल जाति एक भ्रमणशील जाति के रूप में घुमन्तु  प्रवृति वाले थे। इनका निवास यायावर होने के कारण निश्चित नहीं था। मध्य भारत की घाटियों एवं गंगा के किनारे की उर्वरा भूमि पर संताल कुछ वर्षों तक निवास किये परन्तु आक्रमण एवं दबाव में दक्षिण पश्चिम की ओर बढते-बढते छोटानागपुर के पठारों में बस गये।4 विद्

सुरम्य प्राकृत दृश्यों की गोद में आशुतोष बाबा भोले नाथ का धाम शिवगादी

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- झारखण्ड प्रदेश हरे भरे पर्वत पठारों , नदी झरनों, खनिज सम्पदाओं से भरा पड़ा है । धर्म और आस्था के सैकड़ों स्थान यहाँ के वन कन्दराओं में स्थित हैं । प्रसिद्ध बाबा वैद्यनाथधाम दे वघर जिले में अवस्थित है तो बाबा बासुकिनाथ दुमका जिले में । ये दोनों जिले संताल परगना प्रमंडल में स्थित हैं । भगवती गंगा संताल परगना के साहेबगंज जिले को स्पर्श कर बंगाल की ओर प्रवाहित होती है । साहेबगंज ही नहीं सम्पूर्ण संताल परगना में मनोरम प्राकृतिक दृश्य एवं संसाधन मौजूद हैं । साहेबगंज जिले के बरहेट प्रखण्ड में सुरम्य प्राकृतिक दृश्यों के बीच भगवान् आशुतोष का एक प्रसिद्ध पौराणिक धाम *बाबा गजेश्वरनाथ धाम* ” *शिवगादी* ” अवस्थित है । यह एक दर्शनीय, पौराणिक पूजनीय मंदिर हैं जो प्रकृतिक सोंदर्य से परिपूर्ण राजमहल की पहाड़ियो के मनोरम दृश्यो एवं झर-झर गिरते झरने की नैसर्गिक सौन्दर्य के बीच एक गिरि गह्वर देवालय है। मानचित्र में यह मंदिर झारखण्ड प्रान्त के सहेबगंज जिला अन्तर्गत बरहेट प्रखण्ड से 6 km की उत्तर की ओर अवस्थित है । बाबा गजेश्वर नाथ का यह मंदिर पहाड़ी की ऊँचाई पर स्थित है ।अतः श्रद्धलुओं को 195 सीढ़ि

आखिर क्या संदेश दिया आपने सुशांत .....?

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*क्या संदेश दिया आपने सुशांत?* ... सुशान्त सिंह राजपूत नवोदित चेहरा। अपनी माटी का लड़का । बौद्धिक रूप से किसी भी अन्य कलाकार से बढ़कर प्रतिभा। मेहनत और लगन में बेमिसाल । आर्थिक स्थिति भी सामान्य से अच्छी । पारिवारिक पृष्ठभूमि भी समृद्ध और समर्थ। फिर भी एक अत्यंत  गलत निर्णय । आत्महत्या ..... आत्महत्या सबसे बड़ा पाप है । ईश्वर प्रदत्त मानव जीवन का उपयोग अपने उत्थान के लिए करना चाहिए न कि पतन के लिए । हमारे आर्ष ग्रंथों में कहा गया है- *असूर्या नाम ते लोका अंधेन तमसावृता।* *तास्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जना:।।*  ”आत्महत्या  करनेवाला मनुष्य अज्ञान और अंधकार से भरे, सूर्य के प्रकाश से हीन, असूर्य नामक लोक को जाते हैं।”     बिहार झारखण्ड जैसे राज्य का बच्चा बच्चा इस तथ्य को जानता है। समाज, परिवार, मित्र, बन्धु बान्धव  हमेशा इस सत्य से अपने पीढी को अवगत कराते हैं । कहाँ कमी रह गई ... भौतिकता का चकाचौंध, माया नगरी की मायावी आभासी दुनियां की रंगीनियों का दोष तो नहीं ... इस प्रकार टूट कर बिखर जाने से अपने चाहने वालों को क्या संदेश दिया आपने सुशांत? आपने अच्छा नहीं किया मेरे भाई । विन

हर शाख पे उल्लू बैठा है..........

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सारे विश्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं । कोरोना संकट समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा है । झारखण्ड राज्य की स्थिति भी अच्छी नहीं कही जा सकती । सरकार कहती है खजाना खाली है । खजाना बुंद बुंद से भरता है। नागरिकों को ईमानदारी पूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए ।  लेकिन लोभ और मोह का जबरदस्त जकड़न हमारे अन्दर इतना है कि सामान्य शिष्टाचार भी हम भूलने लगे। प्रशासन का भय नहीं रहा। ऐसी ही अनुभूति अब होने लगी है ।  लाॅकडाउन में सरकार ने ढील क्या दी दुमका में दुकानदारों की चांदी है । मारवाड़ी चौक पर प्लास्टिक का समान बेचने वाले दुकानदार से हजारों रूपये का समान खरीदने के बाद भी बिल नहीं दिया जा रहा है । मांगने पर कच्चा बिल थमा कर ग्राहक ही नही सरकार को भी चूना लगाया जा रहा है । ये दुकानदार इतने  बेखौफ है कि पक्का बिल मांगने पर ग्राहकों से झगड़ा करने पर भी उतारू हो जाते हैं । स्थानीय प्रशासन को संज्ञान लेना चाहिए । दुमका उपराजधानी है। लेकिन इस शहर के प्रायः दुकानदारों की मनमानी हाट बाजार वाली ही है। लेन देन कैश में ही करते हैं । डिजिटल पेमेन्ट कहने पर भी नहीं करते। सिर्फ कच्चे पर काम करना इनक

सुभाषितानि

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*सुभाषितानि* सम्पादक: - डॉ धनंजय कुमार मिश्र:, संताल परगना महाविद्यालय दुमका (झारखण्ड)       (1) *बन्धाय विषयासङ्गः* *मुक्त्यै निर्विषयं मनः।* *मन एव मनुष्याणां* *कारणं बन्धमोक्षयोः॥*  अर्थात- बुराइयों में मन को लगाना ही बन्धन है और इनसे मन को हटा लेना ही मोक्ष का मार्ग दिखता है । इस प्रकार यह मन ही बन्धन या मोक्ष को देनेवाला है। (2) *शुन: पुच्छमिव  व्यर्थं,*                  *जीवितं विद्यया विना।* *न गुह्यगोपेन शक्तं,*                   *न च दंशनिवारणे॥* अर्थात- विद्या के बिना मनुष्य-जीवन कुत्ते की पूंछ के समान व्यर्थ है। जैसे कुत्ते की पूंछ से न तो उसके गुप्त अंग छिपते है न वह मच्छरों को काटने से रोक सकती है, वैसे ही विद्या के बिना जीवन व्यर्थ हैl (3) *सुभाषितमयैर्द्रव्यैः* *सङ्ग्रहं न करोति यः।* *सो$पि प्रस्तावयज्ञेषु* *कां प्रदास्यति दक्षिणाम्।।* अर्थात- सुन्दर वचनरूपी सम्पदा का जो संग्रह नहीं करता वह सत्संग एवम जीवनोपयोगी दिव्य चर्चारुपी  यज्ञ में भला क्या दक्षिणा देगा ? जीवन के लिये परम उपयोगी "सुभाषित" वार्तालाप में भाग लेना एक यज्ञ है और उस यज्ञ में अपनी बुद्धि के अनु