जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी

 संस्कृत भाषा के आदिकाव्य रामायण में आजकल एक प्रसिद्ध श्लोक नहीं मिलता है जिससे पाठकों व जिज्ञासुओं को लगने लगता है कि यह श्लोक रामायण का नहीं है । कुछ लोगों की धारणा बदलने लगती है। कुछ अन्य किसी कवि की रचना मान लेते हैं । आध्यात्म रामायण, रघुवंशम्, प्रतिमानाटकम्, महावीरचरितम्,उत्तररामचरितम् आदि ग्रन्थों का नाम लेने लगते हैं पर यह प्रसिद्ध श्लोक आर्षकाव्य रामायण का ही है। वाल्मीकि ही इसके रचयिता हैं । दो रूप में यह श्लोक है।

*"जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी"*, एक प्रसिद्ध संस्कृत श्लोक का अन्तिम आधा भाग है। यह नेपाल का राष्ट्रीय ध्येयवाक्य भी है। यह श्लोक वाल्मीकि रामायण के कुछ पाण्डुलिपियों में मिलता है, और दो रूपों में मिलता है।प्रथम रूप : निम्नलिखित श्लोक 'हिन्दी प्रचार सभा मद्रास' द्वारा १९३० में सम्पादित संस्करण में आया है। इसमें भारद्वाज, राम को सम्बोधित करते हुए कहते हैं-


मित्राणि धन धान्यानि प्रजानां सम्मतानिव ।

जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥

हिन्दी अनुवाद : "मित्र, धन्य, धान्य आदि का संसार में बहुत अधिक सम्मान है। (किन्तु) माता और मातृभूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊपर है।"


दूसरा रूप : इसमें राम, लक्ष्मण से कहते हैं-


अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते ।

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥

अनुवाद : " लक्ष्मण! यद्यपि यह लंका सोने की बनी है, फिर भी इसमें मेरी कोई रुचि नहीं है। (क्योंकि) जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान हैं।

जय श्री राम 


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