"समस्त प्राणियों के स्वामी पशुपति शिव’’

*‘‘समस्त प्राणियों के स्वामी पशुपति शिव’’*

प्रस्तुति: डाॅ0 धनंजय कुमार मिश्र
सिंडिकेट सदस्य, सि. का. मु. विश्वविद्यालय, दुमका
सह
अध्यक्ष संस्कृत विभाग, संताल परगना महाविद्यालय, दुमका
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        भगवान् शिव की महिमा अपरम्पार है। भगवान शिव अनन्त हैं, असीम हैं। शिव रूपरहित हैं। सृष्टि के कण कण में शिव विराजते हैं। वेद-पुराण शिव का गान करते हैं। स्कन्द पुराण के माहेश्वर खण्ड में शिव की अनेक कथाएँ मिलती हैं। शिव में परस्पर विरोधी भावों का सामंजस्य देखने को मिलता है। शिव के मस्तक पर एक ओर चन्द्रमा है जो अमृत का प्रतीक है तो दूसरी ओर गले में विषधर सर्प। शिव अर्धनारीश्वर होते हुए भी कामजित हैं। गृहस्थ होते हुए भी श्मशानवासी और वीतरागी हैं। आशुतोष और सौम्य होते हुए भी भयंकर और रूद्र हैं। इनके आस पास भूत-प्रेत, नंदी-सिंह, मयूर-सर्प-मूषक का समभाव देखने को मिलता है। शिव स्वयं द्वन्द्वों से रहित सह-अस्तित्व के महान् विचार के परिचायक हैं। शिवलिंग सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का प्रतीक है। 

*पशूनां पतिं पापनाशं परेशं गजेन्द्रस्य कृत्तिं वसानं वरेण्यम्। जटाजूटमध्ये स्फुरद्गाङ्गवारिं महादेवमेकं स्मरामि स्मरारिम्।।*

          शिव के अनन्त नाम हैं। इन्हीं नामों में एक नाम है - *पशुपति*। समस्त पशु-पक्षियों तथा जीवात्माओं के स्वामी होने के कारण भगवान शिव पशुपति कहलाते हैं। पशुपति का अर्थ होता है पशुओं अर्थात् जीवों के स्वामी। पशुपति समस्त प्राणियों के स्वामी हैं। पशुपति शिव सम्पूर्ण जैव जगत् के स्वामी हैं। शिव सम्पूर्ण व्यवस्था के प्रथम गुरू हैं। पशुपति शिव समस्त देवों में मुख्य हैं। सम्पूर्ण सृष्टि के उत्पत्ति कर्ता भगवान पशुपति ही हैं। पशु शब्द समस्त सृष्टि का भी वाचक है इसलिए ब्रह्मा से लेकर स्थावर तक समस्त पदार्थों के स्रष्टा पशुपति ही हैं। जो केवल जैव स्तर पर इन्द्रिय भोगों में लिप्त रहता है वह पशु है। इस प्रकार समस्त जीव पशु हैं। समस्त जीवों के एकमात्र सहारा एवं सबके स्वामी पशुपति ही है। पशुपति शिव ने बिना किसी बाहरी कारण, साधन या सहायता के इस संसार का निर्माण किया है। इस प्रकार शिव जगत् के स्वतन्त्र कर्ता हैं। हमारे कार्यो के मूल कर्ता भी शिव ही हैं। समस्त कार्यों के कारण भी है। विषय वासना संसार के मल हैं। यही विषय वासना जीवों के पाश अर्थात् बन्धन हैं।  इस पाश अथवा बन्धन से मुक्ति शिव की कृपा से ही होती है। परमैश्वर्य की प्राप्ति और समस्त दुःखों की आत्यन्तिक निवृति  पशुपति शिव की कृपा से ही जीव को मिलता है।
     यद्यपि निराकार रूप में पशुपति शिव जो समस्त जीवों के अधिपति हैं तथापि उनके साकार रूप का वर्णन भी नेपाल माहात्म्य और हिमवतखंड में मिलता है। इसके अनुसार एक बार भगवान शिव कृष्ण मृग का रूप धारण कर बागमती नदी के किनारे मृगस्थली में जाकर घोर निद्रा में चले गए। देवताओं ने बेचैनी से उन्हें ढ़ूँढ़ना शुरू किया और अन्त में उन्हें उस रूप में देखकर आश्चर्यचकित हुए। देवतागण भगवान शिव को वापस वाराणसी (काशी) लाने का प्रयास करने लगे परन्तु मृगरूपधारी शिव ने बागमती नदी के दूसरे किनारे पर छलांग लगा दी। इस कारण मृगरूपधारी शिव का सींग चार टुकड़े में टूट गया। इसके बाद भगवान पशुपति चतुर्मुख लिंग के रूप में प्रकट हुए। आज भी बागमती नदी के किनारे देवपाटन (काठमाण्डु, नेपाल) में भगवान पशुपति का चतुर्मुखलिंग पशुपतिनाथ मंदिर में विराजमान है।
      भले ही यह कथा भगवान पशुपति के साकार रूप का वर्णन करती हो पर उनका निराकार रूप युग-युगान्तर से भक्तों के त्रिविध तापों से मुक्ति दिलाने के लिए तथा परमैश्वर्य की प्राप्ति कराने के लिए सृष्टि के कण कण में विराजमान है। भारतीय दर्शन में पाशुपत शैव दर्शन का आधार भी भगवान पशुपति शिव ही हैं।
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