‘‘वर्णाश्रम धर्म की वर्तमान भारत में उपादेयता’’
डाॅ0 धनंजय कुमार मिश्र*
भले ही आज के इस समाजवादी युग में वर्ण व्यवस्था की अनुपयोगिता के लिए कट्टर आलोचना की जाए परन्तु आज भी विभिन्न परिस्थियों में इसकी उपयोगिता असंदिग्ध है। स्मृतियाँ समाज को चार वर्गो में वर्गीकृत करती हैं - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। यह चातुर्वर्ण्यव्यवस्था भारतीय संस्कृति की प्राचीन समाजिक व्यवस्था है। इन चार वर्गो के कर्तव्य, उनके पालन की व्यवस्था तथा उनके उल्लंघन करने पर दण्ड का विधान आदि इस व्यवस्था के अन्तर्गत आते है। जिस प्रकार चार वर्णो में सारा समाज वर्गीकृत किया गया है, उसी प्रकार समाज के एक व्यक्ति का जीवन चार आश्रमों में विभक्त किया गया है - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। वर्णो और आश्रमों की इस सामाजिक व्यवस्था को हीं ‘वर्णाश्रमधर्म’ के नाम से पुकारा जाता है। भारत जिस प्रकार कृषिप्रधान देश है उसी प्रकार यह ऋषिप्रधान भी है। प्राचीन आर्षग्रन्थ हमें वर्णाश्रम धर्म की विस्तृत जानकारियाँ उपलब्ध कराती हैं। वर्ण व्यवस्था कर्माश्रित थी। गीता में स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने इसका वर्णन करते हुए कहा है कि - ‘‘चातुर्वर्ण्यम्मयासृष्टं गुणकर्म विभागशः।’’‘ पुरूषार्थ चतुष्ट्य की सम्यक् अनुशीलन के लिए वर्णाश्रम धर्म आज भी उपादेय है। वर्तमान काल में प्रायः वर्ण को जाति समझने की गलती ही विवाद का कारण बनता है। वर्ण कहीं न कहीं सेवा के चार वर्ग या श्रेणी (प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ वर्गीय ) से अत्यन्त साम्य रखने वाला है। ध्यातव्य है -
‘अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।
दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्।।’’
‘‘प्रजानां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।
विषयेस्व प्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः।।’’
‘ पशुनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।
वाणिक्यपथं कुसीदंच वैश्यस्य कृषिमेव च।। ’’
‘‘एकमेव तु शूद्रस्य प्रभुःकर्म समादिशत्।
एतेषामेव वर्णानां शुश्रुषामनसूयसा।।’’
आर्षग्रन्थों में काम, अर्थ, मोक्ष तथा धर्म रूप चार पुरूषार्थो का विशद् प्रतिपादन किया गया है। ऐसेस्मृति ग्रन्थों को ही धर्मशास्त्र के रूप में जाना जाता है - ‘‘धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः।’’ वर्ण और आश्रम आज भी प्रासंगिक और उपादेय हैं ।
------------------इति---------------------
*अध्यक्ष संस्कृत विभाग
सह
अभिषद् सदस्य
संताल परगना महाविद्यालय कैम्पस,
सिदो-कान्हु मुर्मू विश्वविद्यालय, दुमका (झारखण्ड) 814101
भले ही आज के इस समाजवादी युग में वर्ण व्यवस्था की अनुपयोगिता के लिए कट्टर आलोचना की जाए परन्तु आज भी विभिन्न परिस्थियों में इसकी उपयोगिता असंदिग्ध है। स्मृतियाँ समाज को चार वर्गो में वर्गीकृत करती हैं - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। यह चातुर्वर्ण्यव्यवस्था भारतीय संस्कृति की प्राचीन समाजिक व्यवस्था है। इन चार वर्गो के कर्तव्य, उनके पालन की व्यवस्था तथा उनके उल्लंघन करने पर दण्ड का विधान आदि इस व्यवस्था के अन्तर्गत आते है। जिस प्रकार चार वर्णो में सारा समाज वर्गीकृत किया गया है, उसी प्रकार समाज के एक व्यक्ति का जीवन चार आश्रमों में विभक्त किया गया है - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। वर्णो और आश्रमों की इस सामाजिक व्यवस्था को हीं ‘वर्णाश्रमधर्म’ के नाम से पुकारा जाता है। भारत जिस प्रकार कृषिप्रधान देश है उसी प्रकार यह ऋषिप्रधान भी है। प्राचीन आर्षग्रन्थ हमें वर्णाश्रम धर्म की विस्तृत जानकारियाँ उपलब्ध कराती हैं। वर्ण व्यवस्था कर्माश्रित थी। गीता में स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने इसका वर्णन करते हुए कहा है कि - ‘‘चातुर्वर्ण्यम्मयासृष्टं गुणकर्म विभागशः।’’‘ पुरूषार्थ चतुष्ट्य की सम्यक् अनुशीलन के लिए वर्णाश्रम धर्म आज भी उपादेय है। वर्तमान काल में प्रायः वर्ण को जाति समझने की गलती ही विवाद का कारण बनता है। वर्ण कहीं न कहीं सेवा के चार वर्ग या श्रेणी (प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ वर्गीय ) से अत्यन्त साम्य रखने वाला है। ध्यातव्य है -
‘अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।
दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्।।’’
‘‘प्रजानां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।
विषयेस्व प्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः।।’’
‘ पशुनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।
वाणिक्यपथं कुसीदंच वैश्यस्य कृषिमेव च।। ’’
‘‘एकमेव तु शूद्रस्य प्रभुःकर्म समादिशत्।
एतेषामेव वर्णानां शुश्रुषामनसूयसा।।’’
आर्षग्रन्थों में काम, अर्थ, मोक्ष तथा धर्म रूप चार पुरूषार्थो का विशद् प्रतिपादन किया गया है। ऐसेस्मृति ग्रन्थों को ही धर्मशास्त्र के रूप में जाना जाता है - ‘‘धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः।’’ वर्ण और आश्रम आज भी प्रासंगिक और उपादेय हैं ।
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*अध्यक्ष संस्कृत विभाग
सह
अभिषद् सदस्य
संताल परगना महाविद्यालय कैम्पस,
सिदो-कान्हु मुर्मू विश्वविद्यालय, दुमका (झारखण्ड) 814101
बढ़िया विश्लेषण
ReplyDeleteVery nice
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