‘‘ऐतिहासिक महाकाव्यों का संक्षिप्त परिचय’’



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भारत में ऐतिहासिक परम्परा पुरानी है। पाश्चात्य विद्वानों ने भारतीयों के विषय में यह दुष्प्रचार किया है कि उनमें ऐतिहासिक चेतना का अभाव था किन्तु राजतरङ्गिणी आदि ऐतिहासिक काव्यग्रन्थ इस आक्षेप का पर्याप्त अंश तक निराकरण करते हैं। वस्तुतः जिस अर्थ में पाश्चात्य जगत् में इतिहास का अर्थ लिया जाजा है उस अर्थ में हमारे यहाँ बहुत कम ग्रन्थ हैं क्योंकि इतिहास की हमारी कल्पना हीं पृथक् थी। प्राचीन घटनाओं का सामान्यतः विवरण तासे लोग देते थे, किन्तु उनके साथ तिथियों को अंकित नहीं करते थे। इस अर्थ में महाभारत इतिहास ग्रन्थ कहा गया है। वैदिक साहित्य के अनुशीलन से पता चलता है कि इतिहास लिखने वालों का एक अलग सम्प्रदाय था। इतिहास के अन्तर्गत घटनाओं का सच्चा विवरण दिया जाता था।
    राजशेखर के अनुसार ‘परिक्रिया’ और ‘पुराकल्प’ - ये इतिहास के दो भेद होते हैं, जिसमें एक नायक होता है उसे परिक्रिया कहते हैं। रामायण, नवसाहसाङ्कचरित, विक्रमाङ्कदेवचरित आदि ग्रन्थ इसी विधा में आते हैं। पुराकल्प वह इतिहास है, जिसमें अनेक नायकों का वर्णन होता है। महाभारत, राजतरङ्गिनी आदि इसी प्रकार के ऐतिहासिक ग्रन्थ हैं।
  संस्कृत साहित्य में ऐतिहासिक रचनाएँ काव्य के रूप में हीं मिलती हैं। बाणभट्ट ने हर्षवर्धन को आधार बनाकर हर्षचरितम् नामक गद्यकाव्य लिखा है। वाक्पतिराज ने ‘गउडबहो’ नामक प्राकृत काव्य में कन्नौज के यशोवर्मन् की विजय का वर्णन किया है। इनका समय 700ई0 है।
     पद्मगुप्त का नवसाहसाङ्कचरितम् संस्कृत का पहला ऐतिहासिक महाकाव्य है, जिसमें 18 सर्ग हैं। 1005 ई0 की यह रचना मालव-नरेश सिन्धुराज का वर्णित करता है। सिन्धुराज भोज के पिता थे।  इस महाकाव्य में शशिप्रभा के साथ उनके विवाह का वर्णन है। पद्मगुप्त राजा मुञ्ज के सभाकवि थे। मुञ्ज की मृत्यु के बाद सिन्धुराज नेपद्मगुप्त का आदर किया। पद्मगुप्त पर कालिदास की रसमयी पद्धति का व्यापकप्रभाव है इसलिए इन्हें ‘परिमल-कालिदास’ भी कहा गया है।
   बिल्हण का ‘विक्रमाङ्देवचरितम्’ संस्कृत का प्रसिद्ध ऐतिहासिक महाकाव्य है। बिल्हण ने चालुक्य नरेश विक्रमादित्य षष्ठ की प्रशंसा में ‘विक्रमाङ्देवचरितम्’ महाकाव्य की रचना की। इसका रचना काल 1088ई0 है। इसमें 18 सर्ग हैं।बिल्हण इतिहासकार के रूप में निष्पक्ष नहीं हैं क्योंकि वे राष्ट्रकूटों पर तैलप (873ई0 - 897ई0) की विजय का तो वर्णन करते हैं किन्तु मालव-नरेश द्वारा उसकी पराजय का नहीं। बिल्हण कश्मीरी लेखक थे। इन्होंने भारत का भ्रमण किया था। बिल्हण अपने संरक्षक के पारिवारिक कलह का भी वर्णन करते हैं। अपने कुटुम्ब का वर्णन करते हुए अपनी भारत-यात्रा का भी वृŸाान्त लिखा है। काव्य की दृष्टि से ‘विक्रमाङ्देवचरितम्’ सफल है। प्रवाह, रोचकता, सरलता, प्रसादपूर्ण वैदर्भीशैली, सरल एवं स्पष्ट भाषा विल्हण के काव्य की विशेषताएँ हैं। कालिदास की शैली की छाप इनपर भी है। चैरपञ्चाशिका इनकी दूसरी रचना है। इसमें इन्होंने मातृभूमि कश्मीर पर गर्व किया है। वे कहते हैं कि - केसर और कविता कश्मीर को छोड़कर अन्यत्र नहीं होती। बिल्हण में कवित्वशक्ति एवं पाण्डित्य के साथ-साथ ऐतिहासिक चेतना भी है।
 कल्हण की राजतरङ्गिनी संस्कृत का श्रेष्ठ इतिहास ग्रन्थ है। इसकी रचना 1148ई0 में आरम्भ होकर तीन वर्षों में पूरी हुई। इसमें आठ तरंग हैं। ईसापूर्व 13वीं शताब्दी के गोनन्द राजा से इसका आरम्भ करके 1150 ई0 तक के राजाओं का इसमें वर्णन है। अनुष्टुप् छन्द में प्रायः रचित यह ग्रन्थ संस्कृत का ऐतिहासिक गौरव-ग्रन्थ है। कल्हण की एक पंक्ति बड़ी मार्मिक है -‘‘जिसने भूख से बिलबिलाते प्यारे पुत्र को, दूसरे के घर सेवा करने वाली अपनी स्त्री को, विपŸिा में पड़े हुए मित्र को, दुही हुई किन्तु चारा न मिलने के कारण रम्भाती हुई गाय को, पथ्य के अभाव में रोग - शय्या पर मरणासन्न माता-पिता को तथा शत्रु से पराजित अपने स्वामी को देख लिया, उसे मरने के बाद नरक में भी इससे अधिक अप्रिय दृश्य देखने को क्या मिलेगा?’’ 
 कवि के हीं शब्दों में -
‘‘क्षुत्क्षामस्तनयो वधूः परगृहप्रव्यावसन्नः सुहृत्
  दुग्धा गौरशनाद्यभावविवशाहम्बारर्बोद्दगारिणी।
निष्पथ्यौ पितराब्दरमरणौ स्वामीद्विषन्निर्जितो
दृष्टोयेन पर न तस्य निरये प्राप्तव्यमस्यऽप्रियम्।।’’

         अन्य ऐतिहासिक महाकाव्यों में राजतरंगिनी के बाद अनेक नाम आते हैं। जोनराज (1450ई0), श्रीवर (1486ई0), तथा शुक (1596ई0) ने राजतरंगिनी की परम्परा को आगे बढ़ाने का कार्य किया। इन तीनों ने अनपे-अनपे समय का इतिहास प्रस्तुत किया। अकबर को राजतरंगिनी से बड़ा प्रेम था, उसने इसका फारसी में अनुवाद कराया। फारसी में इसके तीन अनुवाद मिलते हैं।
       संस्कृत में ऐतिहासिक महाकाव्य की परम्परा आगे भी चली। जल्हण ने सोमपालविलास में सुस्सल द्वारा विजित राजपुरी के राजा का विवरण लिखा। हेमचन्द्र (1088ई0 - 1172ई0) ने चालुक्य नरेश कुमारपाल से सम्बद्ध कुमारपालचरित लिखा। 13वीं शताब्दी में कवि सोमेश्वर ने कीर्Ÿिाकौमुदी नामक महाकाव्य में गुजरात के राजा वस्तुपाल का वर्णन किया है। राजा वीसलदेव के सभापण्डित अरिसिंह ने 11 सर्गो का संस्कृत संकीर्Ÿान नामक महाकाव्य लिखा। नयचन्द्रसूरि ने 14 सर्गो में रणथम्भौर के राजा हम्मीर का वर्णन किया है। एक अज्ञात लेखक का पृथिवीराजविजय नामक ऐतिहासिक महाकाव्य अपूर्ण रूप से 12 सर्गों में प्राप्त हुआ है। काशीनाथ मिश्र ने कर्णाटराजतरंगिनी में मिथिला के कर्णाट राजवंश पर ऐतिहासिक महाकाव्य आधुनिक काल में लिखा है।
                निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि भारतवर्ष में ऐतिहासिक महाकाव्य लिखने की परम्परा काफी पुरानी है। संस्कृत में अनेक ऐतिहासिक महाकाव्य हैं। रातरंगिनी, विक्रमांकदेवचरितम नवसाहसांकचरितम् आदि श्रेष्ठ ऐतिहासिक महाकाव्य ग्रन्थ हैं। हमें अपनी इस परम्परा पर गर्व है।

प्रस्तुति - धनंजय कुमार मिश्र,
  अध्यक्ष, संस्कृत विभाग,
 संताल परगना महाविद्यालय, 
सिदो-कान्हु मुर्मू विश्वविद्यालय,
 दुमका (झारखण्ड) 814101

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