संस्कृत साहित्य में गद्य विकास की रूप रेखा


    
                                                                                                                                 20190413_124949.jpg

                                                                                                                          धनंजय कुमार मिश्र*
                   
                               
                       संस्कृत गद्य का आरम्भ ब्राह्मण-ग्रन्थों और उपनिषदों के गद्य में देखा जा सकता है। बहुत दिनों तक सरल स्वाभाविक शैली में गद्य लिखने की परम्परा  चलती रही। समय के साथ गद्य में भी काव्य के उपादानों को प्रविष्ट कराने की प्रवृत्ति  पनपी। आरम्भिक शिलालेखों में गद्य-काव्य प्राप्त होते हैं। रूद्रदामन का गिरनार-शिलालेख (150 ई0) तथा हरिषेण रचित समुद्रगुप्त-प्रशस्ति (360 ई0) महत्वपूर्ण गद्य काव्य के श्रेष्ठ उदाहरण हैं।
                           संस्कृत में गद्य-काव्य की रचना बहुत कम हुई है। पद्य की अपेक्षा अधिक श्रम, आलोचकों की उपेक्षा तथा ऊँचा मानदण्ड ये तीन मुख्य कारण हैं जिसके चलते गद्य की ओर कवि अभिमुख नहीं होते थे। उपर्युक्त बातों को यह उक्ति पुष्ट करती है-
‘‘गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति।’’
                        उपर्युक्त परेशानियों के वावजूद भी संस्कृत साहित्य में गद्य-काव्य की रचना हुई। यह रचना प्रायः छठी-सातवीं शताब्दी में गद्य काव्य के त्रिरत्न - दण्डी, सुबन्धु एवं बाण्भट्ट के द्वारा की गई। दण्डी का दशकुमारचरितम्, सुबन्धु की वासवदत्ता एवं बाणभट्ट की कादम्बरी तथा हर्षचरितम् संस्कृत साहित्य के उत्कृष्टतम गद्य काव्य हैं। लगभग 1200 वर्ष बाद उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध  में पण्डित अम्बिकादत्त व्यास ने ‘शिवराजविजयम्’ लिखकर बीच के खालीपन को दूर करने का प्रयास किया। इनके अतिरिक्त गद्य रचना विभिन्न कालों में प्रायः बाण का अनुकरण ही प्रतीत होता है। यहाँ हम मुख्यतः इन्हीं चार गद्य लेखकों  द्वारा विकास यात्रा पर ध्यान देना समीचीन समझते हैं-
       (1) दण्डी - आचार्य दण्डी ने ‘दशकुमारचरितम्’ के रूप में एक अद्भुत कथा-काव्य संस्कृत साहित्य को प्रदान किया है। अधिकांश विद्वान् छठी-शताब्दी में इनका काल निर्धारण करते हैं। आचार्य दण्डी के नाम से तीन रचनाएँ मिलती हैं- ‘‘दशकुमारचरितम्’’, ‘‘काव्यादर्श’’ एवं ‘‘अवन्तिसुन्दरीकथा’’ । ‘दशकुमारचरितम्’ आचार्य दण्डी की प्रामाणिक कृति है। इसके तीन भाग हैं- पूर्वपीठिका, मूलकथा एवं उत्तरपीठिका। पूर्वपीठिका पाँच उच्छ्वासों में है। मूल भाग में आठ कुमारों की कथा का वर्णन आठ उच्छ्वासों में है। उत्तरपीठिका में एक उच्छ्वास की कथा है। कुल चौदह उच्छ्वास है। कथा पूर्ण है। तीनों भागों की शैली में थोड़ा भेद है।
       दण्डी की सबसे बड़ी विशेषता सरल और व्यावहारिक किन्तु ललित पदों से युक्त गद्य लिखने में है। लम्बे समास, कठोर ध्वनि एवं शब्दाडम्बर से दूर रहना दण्डी की मुख्य विशेषता है। भाषा के प्रयोग में अपूर्व स्वाभाविकता है। दण्डी गद्य-कवियों में बेजोड़ हैं। रोमांचक घटनाएँ, विपुल वर्णन, सामान्य पात्र-चित्रण आदि इनकी मौलिक विशेषता है। सरल विषयों पर परिहास मुद्रा में तथा दुःखान्त एवं महŸवपूर्ण विषयों पर गम्भीर मुद्रा में ललित पद-विन्यास से प्रभावित होकर आलोचकों की यह उक्ति जगत्प्रसिद्ध है - ‘‘दण्डिनः पदलालित्यम्।’
                           अन्ततः हम कह सकते हैं कि गद्य-साहित्य में दण्डी का महत्त्वपूर्ण  स्थान है। इन्होंने ‘दशकुमारचरितम्’ नामक कथा-काव्य की रचना की। इसके अतिरिक्त काव्यादर्श नामक शास्त्रीय-ग्रन्थ एवं अवन्तिसुन्दरीकथा  की भी रचना दण्डी ने की। इनका गद्य सरल एवं रोचक शैली में निबद्ध है। ‘दशकुमारचरितम्’ की कथा रोमांचकारी उपन्यास की तरह चित्ताकर्षक  है। निःसन्देह दण्डी एक सफल गद्य कवि हैं।

(2) सुबन्धु -  गद्य-काव्य लेखकों में सुबन्धु का  नाम संस्कृत-समाज में प्रतिष्ठा से लिया जाता है। सुबन्धु संस्कृत के प्रतिष्ठित कवि बाणभट्ट के पूर्ववर्ती हैं। बाणभट्ट ने अपने हर्षचरित की प्रस्तावना में सुबन्धु की वासवदत्ता को कवियों का दर्पभंग करने वाली रचना कहा है -                     
                   कवीनामगलद्दर्पो     नूनं वासवदत्तया ।
                   शक्त्येव पाण्डुपुत्राणां गतया कर्णगोचरम्।।
सुबन्धु ने वासवदत्ता नामक गद्य काव्य की रचना की है। इसमें राजकुमार कन्दर्पकेतु और राजकुमारी वासवदत्ता का प्रणय चित्रित है। वासवदत्ता में सर्वत्र श्लेष के द्वारा कवि ने अनेक अर्थाें को रखकर अपने काव्य को चमत्कारी बनाया है।
              सुबन्धु का श्लेष उत्तम  कोटि का है। कथा के अक्षर-अक्षर में श्लेष का दावा है। अन्य अलंकारों भी प्रचूर प्रयोग है। कवि को अपनी शैली का चमत्कार दिखाने का सुन्दर अवसर प्राप्त हुआ है। लम्बे समासों का प्रयोग, अनुप्रासों का उपयोग, समासों में स्वर माधुर्य, अनुप्रास में संगीत सुबन्धु की विशेषता है। निःसंदेह सुबन्धु ने वासवदत्ता में अपने युग के अनुरूप चमत्कार-प्रदर्शन किया है। सचमुच ‘‘प्रत्यक्षरश्लेषमयप्रबन्धम्’’ - यह उक्ति वासवदत्ता पर अक्षरशः प्रमाणित होती है।

    (3) बाणभट्ट - संस्कृत गद्य-साहित्य में सर्वाधिक प्रतिभाशाली गद्यकार ‘बाण’ हैं। बाणभट्ट ने परम्परा से हटकर अपनी रचना में अपना पूर्ण परिचय दिया है। बाणभट्ट हर्षवर्द्धन के दरबार में रहते थे। अतः बाण का समय वही है जो इतिहास में हर्षवर्द्धन का अर्थात् 607ई0 से 648ई0। बाणभट्ट वात्स्यायन-गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम चित्रभानु था। विद्वान् परिवार में जन्म लेने के कारण इन्होंने सभी विद्याओं का अभ्यास किया। बचपन में हीं अनाथ हो गए बाणभट्ट ने युवावस्था में मित्रों की मण्डली बनाकर पर्याप्त देशाटन किया। अनुभव सम्पन्न होकर अपने ग्राम ‘प्रीतिकूट’,शोण के तट पर लौटे। राजा हर्षवर्द्धन के बुलावे पर यह उनके दरबार में गए और उनकी कृपा से वहीं रहने लगे।
                  बाणभट्ट ने दो गद्य-काव्यों की रचना की - हर्षचरितम् और कादम्बरी। हर्षचरितम् एक आख्यायिका है। यह आठ उच्छ्वासों में विभक्त है। प्रारंभिक दो - तीन उच्छ्वासों में बाण ने अपने वंश का एवं अपना परिचय दिया है। इसके बद राजा हर्षवर्द्धन के पूर्वजों का वर्णन किया है। पुनः प्रभाकरवर्द्धन, राज्यवर्द्धन, हर्षवर्द्धन तथा राज्यश्री इन तीन भाई-बहन के जन्म का भी रोचक वृतान्त दिया है। प्रभाकरवर्द्धन की मृत्यु , राज्यश्री का विधवा होना, राज्यवर्द्धन की हत्या, राज्यश्री का विन्ध्याटवी में पलायन, हर्षवर्द्धन द्वारा उसकी रक्षा - ये सभी घटनाएँ क्रमशः वर्णित हैं। दिवाकर मित्र नामक बौद्ध संन्यासी के आश्रम में हर्षवर्द्धन व्रत लेता है कि दिग्विजय के बाद वह बौद्ध हो जाएगा। यहीं हर्षचरितम् की कथानक समाप्त हो जाता है।
               विस्तृत-वर्णन सजीव-संवाद, सुन्दर-उपमाएँ, झंकार करती शब्दावली तथा रसों की स्पष्ट अभिव्यक्ति -ये सारी बातें बाण की गद्य शैली में प्रचूरता से मिलती है। कहीं आनन्द आौर उल्लास का सजीव वर्णन है तो कहीं मृत्यु का अत्यन्त मार्मिक रूप वर्णित है।
                           बाणभट्ट की दूसरी रचना कादम्बरी है। यह कवि-कल्पित कथानक पर आश्रित होने के कारण कथा नामक गद्य-काव्य है। इसमें अध्याय या उच्छ्वास आदि में विभाजन नहीं है। पूरी कथा का पचहत्तर प्रतिशत भाग ही बाणभट्ट  ने लिखा है शेष उनके पुत्र ने पूरा किया है। काव्यशास्त्र के सभी उपादानों रस, अलंकार, गुण, रीति आदि का औचित्यपूर्ण प्रयोग करने के कारण कादम्बरी बाण की उतकृष्ट गद्य रचना है। विषय की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए वर्णन-शैली अपनाई गई है। इसे पाञ्चाली शैली कहा जाता है जिसमें शब्द और अर्थ का समान गुम्फन है। पात्रों का सजीव निरूपण है। रस का समुचित परिपाक हुआ है। मानव जीवन के सभी पक्षों को दर्शाया गया है। आलोचकों ने मुक्त कण्ठ से इसकी प्रशंसा की है तथा कह दिया है कि बाण ने पूरे संसार को जूठा कर दिया है- ‘‘बाणोच्छिष्टं जगत्सर्वम्।’’ उनके वर्णन से कुछ भी बचा नही है।
                         निःसंदेह बाणभट्ट का हर्षचरितम् एवं कादम्बरी संस्कृत गद्य साहित्य के दो गगनचुम्बी ईमारत हैं जिसके शिखर तक पहुँचना आसान नहीं है।
    (4) पण्डित अम्बिकादत्त व्यास - पण्डित अम्बिकादत्त व्यास रचित ‘शिवराजविजयम्’ एक आधुनिक गद्यकाव्य है जो महान् देशभक्त शिवाजी के जीवन की प्रमुख घटनाओं पर आश्रित आधुनिक उपन्यास की शैली में लिखा गया है। पण्डितजी का समय 1858ई0 से1900ई0 है। पण्डित अम्बिकादत्त व्यास मूलतः जयपुर(राजस्थान) के निवासी थे किन्तु उनका कार्य क्षेत्र बिहार था। ऐतिहासिक कथानक कमो कल्पना के चादर में लपेटे ‘शिवराजविजयम्’ उत्कृष्ट काव्य है। घटनाएँ गतिशील और प्रभावशाली हैं। प्रसाद की तरलता विद्यमान है। भारतीय आदर्श, संस्कृति एवं राष्ट्रशक्ति के रक्षक के रूप में शिवाजी को प्रस्तुत किया गया है। पूरी रचना बारह निःश्वासों में विभक्त है। यह आधुनिक गद्य-साहित्य का गौरव ग्रन्थ है।
अन्य गद्य काव्य -   उपर्युक्त गद्य काव्यों के अतिरिक्त विभिन्न कालों में कई कवियों ने गद्य काव्य की रचना की परन्तु वे सिर्फ बाणभट्ट का अनुकरण ही प्रतीत होती है। जैसे- 10वीं शताब्दी में धारा के जैन कवि धनपाल द्वारा रचित तिलकमञ्जरी , 11वीं सदी में गुजरात के सोढ्ढल की उदयसुन्दरीकथा आदि। आधुनिक काल में पण्डिता क्षमाराव (1890-1954ई0) की कथाूुक्तावली, विचित्रपरिषद्यात्रा इत्यादि सुन्दर गद्य काव्य हैं।
                   निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि ब्राह्मण काल से प्रारम्भ हुई गद्य साहित्य की परम्परा आज तक अनवरत चली आ रही है परन्तु दण्डी, सुबन्धु, बाण एवं व्यास इसके अनमोल धरोहर हैं जिनकी रचनाएँ सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक सिद्ध हैं।

             ------------------------------------

*विभागाध्यक्ष-संस्कृत, एस0पी0 काॅलेज
                    सिदो-कान्हु मुर्मू विश्वविद्यालय, दुमका
                                 (झारखण्ड)

Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी

गीतिकाव्य मेघदूतम्