“उन्नत भारत में उच्च शिक्षा”


                                       
                        डॉ. धनञ्जय कुमार मिश्र*

               भारतीय शिक्षा का बीजारोपण यद्यपि आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व वैदिक काल में हुआ तथापि उसके सुसम्बद्ध स्वरूप के दर्शन ‘ब्राह्मणीय शिक्षा’ और ‘बौद्ध शिक्षा’ में मिलते हैं। वेद में शिक्षा शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया गया है; यथा - विद्या, ज्ञान, बोध, विनय आदि। व्यापक अर्थ में शिक्षा का तात्पर्य व्यक्ति को सभ्य और उन्नत बनाना है, जो आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है। चरित्र का निर्माण, व्यक्तित्व का विकास, नागरिक एवं सामाजिक कत्र्तव्य पालन की भावना का समावेश, सामाजिक कुशलता की उन्नति और राष्ट्रीय संस्कृति के संरक्षण एवं प्रसार  के साथ धार्मिकता का समावेश ही प्राचीन काल से शिक्षा के आदर्श एवं उद्देश्य रहे हैं। बौद्ध कालीन शिक्षा ने भारत की अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति को न केवल बढ़ाया अपितु उच्च शिक्षा में अपनी दक्षता से कोरिया, चीन, तिब्बत और जावा जैसे सुदूर देशों के छात्रों को अपनी ओर आकर्षित किया। नदिया, वल्लभी, विक्रमशिला, तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालय भारतीय शिक्षा के ऐसे प्रसिद्ध केन्द्र रहे हैं जो आज भी भग्नावशेष के रूप में अपनी गाथा बयान कर रहे हैं। भारत अपनी सुदृढ़ शिक्षा-व्यवस्था के कारण ही विश्व गुरू के उच्चतम सिंहासन पर आरूढ़ होकर कीर्ति पताका फहराता रहा है।
                कालक्रम में जब प्राचीन भारतीय शिक्षा, यवनों द्वारा पदाक्रान्त की जा चुकी थी और मुस्लिम शिक्षा अपने संरक्षकों के अभाव में डगमगा रही थी तब अंग्रेजी मिशनरियों ने एक नवीन शिक्षा-प्रणाली का सूत्रपात करके भारत की जनता के प्रति हित ही किया। मिशनरियों के प्रयत्नों का ही परिणाम था कि 19वीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में भारत में शिक्षा की एक नवीन पद्धति का आविर्भाव हुआ। यद्यपि उस समय भी प्राच्य-पाश्चात्य विवाद सामने आया। 10 जून 1834 को लाॅर्ड मैकाॅले ने गवर्नर-जनरल की कौंसिल के कानून-सदस्य के रूप में भारत में पदार्पण किया। मैकाले शिक्षा द्वारा भारत में ऐसे लोगों का निर्माण करना चाहता था जो रंग-रूप में तो भारतीय हों परन्तु वेशभूषा, बातचीत, चिन्तन तथा विचारों में अंग्रेज हों। लार्ड बैंटिक ने मैकाले को बंगाल की लोक शिक्षा समिति का सभापति नियुक्त कर भारत में शिक्षा का रूप-रंग ही बदल दिया। बाद के दिनों में 1833 से 1853 तक की अवधि भारत में शिक्षा के अंग्रेजीकरण की अवधि कहा जा सकता है। 1853 के अन्त तक भारत में अंग्रेजों के माध्यम से अंग्रेजी शिक्षा का आधिपत्य स्थापित हो गया। इस अवधि में शिक्षा-छनाई सिद्धान्त का बोलबाला रहा। जन-शिक्षा असम्भव गिनी गई एवं देशी शिक्षा कुचल दी गई। पाश्चात्य शिक्षा का आदर बढ़ा। प्राच्य विद्या निरर्थक मानी गई। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी हो गया। सांस्कृतिक एवं लोकभाषाएँ निकम्मी ठहराई गईं। 19 जुलाई 1854 को कम्पनी के संचालकों ने एक आदेश पत्र में अपनी भारतीय शिक्षा की नीति का प्रकाशन किया। कम्पनी के तात्कालीन बोर्ड आॅफ कन्ट्रोल का सभापति चाल्र्स वुड के नाम पर इसे वुड आदेश पत्र, 1854 के नाम से सभी जानते हैं। इस आदेश पत्र में अन्य बातों के अलावे एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि भारतीयों को उच्च शिक्षा प्रदान करने के लिए मद्रास, बम्बई और कलकत्ता में विश्वविद्यालय स्थापित करने की आज्ञा दी गई और  लन्दन विश्वविद्यालय को आदर्श मानने का फरमान जारी हुआ। 1857 में मद्रास, बम्बई और कलकत्ता में विश्वविद्यालयों का शिलान्यास किया गया परन्तु 1857 के गदर के फलस्वरूप कम्पनी के हाथों से शासन निकल गया। 1858 में ब्रिटिश पार्लियामेण्ट ने इंग्लैण्ड की रानी विक्टोरिया को भारत की सम्राज्ञी घोषित कर दिया। फिर कालक्रम में हण्टर कमीशन (1882), लाॅर्ड कर्जन के शिक्षा-सम्बन्धी सुधार (1898-1905) सामने आए। स्वतन्त्रता संग्राम के दिनों में राष्ट्रीय शिक्षा की माँग प्रबल होती गई। महात्मा गाँधी ने यंग इण्डिया में अपने लेख प्रकाशित करके भारतीय शिक्षा के विदेशी स्वरूप पर प्रचण्ड प्रहार किए। भारतीयों के लिए इस शिक्षा को अनौचित्यपूर्ण सिद्ध करते हुए कहा कि यह शिक्षा अन्यायपूर्ण शासन से सम्बन्धित है। यह शिक्षा विदेशी संस्कृति पर आधारित है और इसमें भारतीय संस्कृति का कोई स्थान नहीं। इस शिक्षा में हस्तकार्यों के लिए कोई स्थान नहीं है और यह हृदय को प्रभावित नहीं करती। अंग्रेजी माध्यम वाली यह शिक्षा वास्तविक ज्ञान प्रदान नहीं कर सकती है। उसके बाद ही आजादी के दीवानों ने, भारतीय शिक्षाविदों और नेताओं ने राष्ट्रीय शिक्षा की माँग शुरू की जिस शिक्षा पर भारतीय नियंत्रण हो।  शिक्षा में  भक्ति, ज्ञान एवं नैतिकता के भारतीय आदर्श और भारतीय धार्मिक भावना का समावेश हो। मातृभूमि के लिए प्रेम, राष्ट्रीय चरित्र का विकास, ब्रिटिश आदर्शो की समाप्ति, भारतीय भाषाओं पर बल, व्यावसायिक शिक्षा पर बल और साथ हीं पाश्चात्य ज्ञान पर भी बल देने की बात की गई।
        दुःख के साथ कहना है कि  आजादी के सात दशक बाद भी उन्नत भारत में दिखाई देने वाली उच्च शिक्षा की व्यवस्था अंग्रेजों की देन है और उसका हमारे देश की प्राचीन परम्परा से कोई सम्बन्ध नहीं है। अपने वर्तमान रूप में उच्च शिक्षा राष्ट्र का सर्वांगीण विकास तो दूर अपने सामान्य उद्देश्य को भी पूर्ण करने में असमर्थ सिद्ध हो रहा है। यद्यपि भारत में उच्च शिक्षा की पद्धति विश्व में सबसे बड़ी पद्धतियों में से एक है तथापि इसके क्षेत्र में विस्तार और विकास एक समान नहीं है। विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में अवस्थापना से सम्बन्धित सुविधाएँ बहुत अलग हैं जिसकी वजह से अध्यापन और अनुसंधान की कोटि में विभिन्नता है। विश्वविद्यालयों द्वारा प्रदान किये गये पाठ्यक्रम परम्परागत रहने के कारण रोजगार और वातावरण के अनुकूल नहीं हो पाते। मूल्यांकन पद्धति की विश्वसनीयता संदिग्ध है। प्रशासन की दृष्टि से दो प्रकार के विश्वविद्यालय केन्द्रीय विश्वविद्यालय और राज्य विश्वविद्यालय में व्यापक अन्तर है। निजी विश्वविद्यालय की बहुल स्थापना अदूरदर्शी ही है। संगठन के अनुसार भारतीय विश्वविद्यालयों के तीन वर्ग सम्बद्धक, एकात्मक और संघात्मक भी अपनी डफली अपना राग अलापते हैं। 28 दिसम्बर 1953 को अस्तित्व में आया विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की कार्यशैली आज तक निष्पक्ष और पारदर्शी नहीं रही। 1986 की शिक्षा नीति की कार्य योजना से अस्तित्व में आया एकेडमिक स्टाफ काॅलेज शिक्षकों के स्तर को सुधारने में नाकामयाब ही रहा। हाँ ! इसका नाम बदलकर मानव संसाधन विकास केन्द्र जरूर हो गया। पिछले कुछ वर्षों में उच्च शिक्षा में व्यापक सुधार के लिए मानव संसाधन विभाग प्रयासरत है। संभावना है आमूल सुधार हो। शिक्षकों की समस्याओं के निराकरण के लिए सरकार को समुचित कदम उठाना चाहिए। योग्यता की कसौटी का मानदण्ड उच्च हो।
                   राष्ट्र के सर्वांगीण विकास में उच्च शिक्षा महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकती है परन्तु इसके लिए छात्र, शिक्षक, समाज और सरकार शिक्षा के इन चारों स्तम्भों को मजबूती से अपने दायित्व का निर्वहण करना होगा। नवीन ज्ञान की खोज के साथ विकास की नई धारा बहानी होगी। उत्साह और निर्भयता से छात्र-शिक्षक-समाज और सरकार इन चारों को कार्य करना होगा। राष्ट्रीय चेतना विकसित करने के लिए सतत प्रयत्नशील होना होगा। समानता और सामाजिक न्याय को प्रोत्साहित करना होगा। प्राचीन ज्ञान  एवं प्राचीन विश्वासों की नवीन खोजों एवं नवीन आवश्यकताओं के आलोक में व्याख्या करनी होगी। समाज को उसकी आवश्यकता के अनुसार कला, कृषि, विज्ञान, चिकित्सा, प्रौद्योगिकी एवं अन्य अनेक व्यवसायों के लिए योग्य एवं प्रशिक्षित स्त्री-पुरुष प्रदान करना ही उच्च शिक्षा का मुख्य दायित्व निर्धारित करना होगा। राष्ट्र एवं जनता के कल्याणार्थ विश्वविद्यालय को अपने कत्र्तव्यों का समुचित रूप से पालन करना होगा। उच्च शिक्षा के केन्द्रों में अनुशासन बनाए रखने की समस्या प्रतिदिन अधिक गम्भीर होती जा रही है। इस समस्या के समाधान के लिए प्रशासन और सरकार को निष्पक्ष होना होगा। उच्च शिक्षा चाहे और कुछ करे या न करे, उसे कम से कम युवकों एवं युवतियों में सभ्य व्यवहार के मानदण्डों को सीखने और प्रयोग करने की क्षमता उत्पन्न करने का प्रयास अवश्य करे। समयानुकूल उचित पाठ्यक्रम का प्रयोग होना चाहिए। निर्देशन एवं परामर्श की उचित व्यवस्था होनी चाहिए। परीक्षा प्रणाली को चुस्त-दुरूस्त करने के साथ पारदर्शी बनानी चाहिए। शिक्षण स्तर में हो रही गिरावट को दूर करना होगा। योग्य शिक्षकों के अभाव को दूर करने के लिए समान कार्य समान वेतन लागू करना होगा। शिक्षकों को समय-समय पर प्रशिक्षित करना होगा। शिक्षकों की नियुक्ति प्रक्रिया पारदर्शी एवं उच्च मानदण्डों वाली करनी चाहिए। कौशल विकास के साथ-साथ रोजगारोन्मुखी शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए। पर्यावरण-संतुलन, समाज-सेवा, सैन्य-सेवा, उदात्त राजनैतिक भावना का विकास करना होगा। इतिहास का पुनर्लेखन आवश्यक और अपरिहार्य है। आज भ्रामक इतिहास के कारण कहीं न कहीं राष्ट्रीयता की भावना कुण्ठित हो रही है। वास्तविकता से आँख चुराना उन्नत भारत के लिए अभिशाप होगा। वास्तविकताकी धरातल पर स्वर्णिम भविष्य का ताना-बाना सही मायने में विश्वगुरू की परिकल्पना को साकार कर सकता है। एक हाथ में कम्प्यूटर और दूसरे हाथ में कुरान का सिद्धान्त निश्चित रूप से विज्ञान और आध्यात्म का संगम कराने में सफल हो सकता है। वर्तमान केन्द्र सरकार की मंशा पर सन्देह नहीं किया जा सकता है पर सरकार को भी सबका साथ  सबका विकास को सर्वतः चरितार्थ करना होगा। जनसामान्य को भी उग्रता को त्याग कर सौम्यता के मार्गका अनुसरण करना चाहिए। उन्नत भारत में गुणवŸाापूर्ण शिक्षा के लिए भ्रष्टाचार रूपी दानव का समूल संहार करना होगा।
           अन्ततः कहा जा सकता है कि राष्ट्र के सर्वांगीण विकास में उच्च शिक्षा का योगदान बहुमूल्य तभी साबित हो सकता है जब उपर्युक्त उपायों पर गंभीरतापूर्वक विचार करते हुए क्रियान्वयन किया जाय अन्यथा सर्वांगीण विकास कोरी कल्पना और आकाश कुसुम ही साबित होगा क्योंकि किसी भी देश की शिक्षा का राष्ट्रीय स्वरूप उसकी सांस्कृतिक मान्यताओं, आकांक्षाओं, आवश्यकताओं, विचारधाराओं आदि के द्वारा निर्धारित किया जाता है। भूतपूर्व प्रधान मन्त्री स्व0 श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने इसी ओर इंगित करते हुए राष्ट्रीय शिक्षा-सम्मेलन, सेवाग्राम के उद्घाटन भाषण में कहा था - ‘‘ हमारी शिक्षा हमारे राष्ट्रीय जीवन की वास्तविकताओं से जुड़ी हुई नहीं है। इस शिक्षा से देश का मामूली हित भी नहीं हुआ है। नये गुणों का विकास तो दूर रहा, जो गुण तथा क्षमताएँ मनुष्य सहज रूप से अपने परिवार, समाज तथा देश की परम्पराओं से प्राप्त एवं विकसित करता है, उन्हें भी यह शिक्षा कायम नहीं रहने देती। देश के करोड़ों युवकों एवं युवतियों को यह शिक्षा अभारतीय, अमानवीय तथा अवैज्ञानिक बना रही है। न उनका चित्त भारतीय रह जाता है, न उनकी प्रेरणाएँ मानवीय हो पाती हैं और न उनका मस्तिष्क ही वैज्ञानिक रह पाता है।’’

प्रस्तुति
डाॅ0 धनंजय कुमार मिश्र
अभिषद् सदस्य
सिदो कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय दुमका
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