धर्मशास्त्र और नीतिशास्त्र के आलोक में बाल्मीकि के राम


                                                                                                                         *धनंजय कुमार मिश्र
                                     
      धर्मशास्त्र उस शास्त्र को कहते हैं जिसमें राजा-प्रजा के अधिकार, कर्Ÿाव्य, सामाजिक आचार-विचार, व्यवस्था, वर्णाश्रम धर्म, नीति, सदाचार और शासन सम्बन्धी नियमों की व्यवस्था का वर्णन होता है।
                      संस्कृत के काव्य साहित्य की कुछ कृतियों में नीति विषयक सूक्तियों की प्रधानता तथा उपदेशात्मक सूक्तियों भी सम्मिलित हैं। इन पर धर्म और दर्शन दोनों का प्रभाव है। सामाजिक सद्भाव, मैत्री भावना का निर्माण, धर्म, दर्शन, सदाचार और राजनीति जैसे गम्भीर विषयों का सरल काव्यमयी भाषा में प्रतिपादन महŸवपूर्ण विषय हैं। ऐसे ग्रन्थों को नीतिशास्त्र की श्रेणी में रखा जाता है।


                      रामायण अपने विशिष्ट गुणों के कारण धर्मशास्त्र भी है और नीतिशास्त्र भी। आदिकवि बाल्मीकि रचित रामायण संस्कृत साहित्य की एक अमूल्य निधि है। बाल्मीकि रचित रामायण चरित्रों की एक विशाल मन्जुषा है जिसमें चरित्र रूपी अनेकानेक पत्र रखे हुए हैं। रातायण एक अथाह सागर है तो इसके पात्र बहुमूल्य रत्न।
         जिस पात्र की भारतीय जनमानस पर सबसे अधिक छाप है वह पात्र मर्यादा पुरूषोŸाम श्रीराम के सिवा कौन हो सकता!                          राम भारतीय संस्कृति में परमात्मा के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित हैं परन्तु संस्कृत वाङ्मय के एक पात्र के रूप में राम प्रतीक बन गए हैं मर्यादा के, उच्च आदर्श के।  भारतीय मूल्यों में जो सर्वोच्च आदर्श हैं वे सब राम के चरित्र रूपी माला में  मोतियों के समान पिरोये हुए हैं। राम एक आदर्श राजा, आदर्श पति,  आदर्श पुत्र,   आदर्श भाई के रूप में मर्यादापालक हैं। उनकी कुछ चारित्रिक विशेषताएँ हैं जो युगों युगों तक लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करती हैं -
* मातृभक्ति - बाल्मीकि के राम की सर्वप्रथम चारित्रिक विशेषता के रूप में उनकी मातृभक्ति का नाम लिया जा सकता है। श्रीराम की मातृभक्ति बड़ी हीं आदर्श थी। माता कौसल्या की बात हीं क्या, माता कैकेयी के द्वारा कठोर से कठोर व्यवहार किए जाने पर भी उनके प्रति श्रीराम का व्यवहार हमेशा भक्ति और सममानपूर्ण हीं रहा। माता कौसल्या के महल से लौटते समय कुपित हुए भाई लक्ष्मण से माता कैकेयी के प्रति कहते हैं -

यस्या  मदभिषेकार्थे           मानसं परितप्यते।
माता नः सा यथा न स्यात् सविशङ्का तथा कुरू।।
तस्याः शङ्कामयं दुःखं          मूहुर्तमपि नोत्सहे।
मनसि प्रतिसंजातं            सौमित्रेऽहमुपेक्षितुम्।।
अर्थात् हे लक्ष्मण! मेरे राज्याभिषेक के कारण जिसके चिŸा में संताप हो रहा है, उस हमारी माता कैकेयी को जिससे मेरे ऊपर किसी प्रकार का संदेह न हो वही काम करो। उनके मन में संदेह के कारण उत्पन्न हुए दुःख की मैं एक क्षण के लिए भी उपेक्षा नहीं कर सकता। कितनी उदाŸा मातृभक्ति है श्रीराम की।

* पितृभक्ति - मातृभक्ति की भांति हीं श्रीराम की पितृभक्ति भी अद्भुत थी। बाल्मीकि रामायण के पाठक इस बात से परिचित हैं कि श्रीराम के मन में पितृभक्ति का कितना उत्साह, साहस और दृढ़निश्चय है। माता कैकेयी से वार्Ÿाालाप करते समय श्रीराम का यह कथन पितृभक्ति की पराकाष्ठा है -
अहं हि वचनाद् राज्ञः पतेयमपि पावके।
भक्षयेयं विषं तीक्ष्णं पतेयमपि चार्णवे।।
अर्थात् मैं महाराज पिता दशरथ के कहने से आग में कूद सकता हूँ, तीव्र विष का पान कर सकता हूँ और समुद्र में भी गिर सकता हूँ।  आगे श्रीराम कहते हैं -
न ह्यातो धर्मचरणं किञ्चिदस्ति महŸारम्।
यथा पिताि शुश्रुषा तस्य वा वचनक्रिया।।
क्योंकि पिता की सेवा और उनकी आज्ञा का पालन करने से बढ़कर संसार में कोई दूसरा धर्म नहीं है। इतना ही नहीं जब माता कौसल्या राम को समझाती हैं तब राम कहते हैं -
                  नास्ति शक्तिः पितुर्वाक्यं समतिक्रमितुं मम।
 प्रसादये त्वां शिरसा गन्तुमिच्छाम्यहं वनम्।।
हे मातः! मैं चरणों में सिर रखकर आपसे प्रसन्न होने के लिए प्रार्थना करता हूँ। मुझमें पिता के वचन टालने की शक्ति नहीं है। अतः मैं वन को हीं जाना चाहता हूँ।
                      उपर्युक्त प्रसंग नाम मात्र हीं है।सम्पूर्ण रामायण राम की पितृभक्ति से ओतःप्रोत है।

* एकपत्नीव्रत - श्रीराम का एक पत्नीव्रत भी बड़ा हीं आदर्श है। श्रीराम ने स्वप्न में भी कभी श्रीजानकी जी के सिवा दूसरी स्त्री का वरण नहीं किया। सीता को वनवास देने के बाद यज्ञ में स्त्री की आवश्यकता होने पर उन्होंने सीता की स्वर्णमयी मूर्ति से काम चलाया। यदि वे चाहते तो कम से कम उस समय तो दूसरा विवाह कर हीं सकते थे। राम एक पत्नीव्रत का आदर्श स्थापित करना चाहते हैं। यद्यपि उस समय बहुविवाह की प्रथा राजाओं में प्रचलित थी।राजा दशरथ की तीन पटरानियाँ और 350 रानियाँ थी। एक पत्नीव्रत के आदर्श की रक्षा करने के लिए हीं उन्होंने दूसरा विवाह नहीं किया। उनके इसी गुण को स्पष्ट करने के लिए महाकवि भवभूति ने कहा है -
व्रजादपि कठोराणि मृदुनि कुसुमादपि।
लोकोŸाराणां चेतांसि को हि विज्ञातुमर्हति।।
निश्चय हीं श्रीराम का एकपत्नीव्रत आदर्श युगों तक स्मरणीय है।

* भ्रातृप्रेम - श्रीराम का भ्रातृप्रेम अतुलनीय है। बचपन से हीं श्रीराम भाईयों के साथ बड़ा प्रेम करते थे। सदा उनकी रक्षा करते और उन्हें प्रसन्न रखने की चेष्टा रखते थे। यद्यपि श्रीराम के मन में  सभी भाईयों  के साथ समान भाव से हीं पूर्ण प्रेम था तथापि लक्ष्मण का लगााव राम के प्रति विशेष था। लक्ष्मण पल भर के लिए भी राम से अलग होना नहीं चाहते थे। जब युद्ध भूमि में लक्ष्मण मूर्छित हो जाते हैं तब राम भी लक्ष्मण के लिए अपने शरीर त्यागने की बात करते हैं -
यथा मां विपिनं यान्तमनुयाति महाद्युतिः।
अहमप्यनुयास्यामि तथैवैनं समक्षयम्।।

राम भरत के प्रति भी अपार प्रेम रखते हैं। भरत , शत्रुघ्न के बारे में सीता से कहते हैं -  
         भ्रातृपुत्रसमौ चापि दृष्ट्व्यौ च विशेषतः।
त्वया भरतशत्रुघ्नौ प्राणैः प्रियतरौ मम।।

भाईयों के बारे में उनका विचार है -

देशे-देशे कलत्राणि देशे-देशे च बान्धवाः।
तं तु देशं न पश्यामि यत्र भ्राता सहोदराः।।
निश्चय हीं राम आदर्श भाई के रूप में रामायण में चित्रित हैं।


*मर्यादापालक - धर्म की मर्यादा का पालन राम के चरित्र का एक अभिन्न अंग है। रावण वध के बाद उनके दाह कर्म को करने के लिए विभीषण के सिवा कोई नहीं बचता है। दुष्ट शत्रु का दाह-संस्कार कौन करे? विभीषण भी इस काम से हिचक अनुभव करता है किन्तु राम उसे समझाते हुए कहते हैं -
मरणान्तानि वैराणि निवृतं नः प्रयोजनम्।
क्रियतामस्य संस्कारो ममाप्येष यथा तव।।
मृत्यु के साथ सारे वैर-विरोध समाप्त हो जाते हैं। इसका विधिपूर्वक संस्कार हमारा कर्Ÿाव्य है। राम विभीषण को रावण का अंतिम-संस्कार करने का आग्रह करते हैं।

* सख्यप्रेम - श्रीराम अपने मित्रों के साथ अतुलनीय प्रेम का च्यवहार करते थे। मित्रों के छोटे से छोटे कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा किया करते थे। अयोध्या में अपने राज्याभिषेक के बाद वानरों को विदा करते समय राम कहते हैं -
सुहृदो मे भवन्तश्च शरीरं भ्रातरस्तथा।
युष्माभिरूद्धृतश्चाहं व्यसनात् काननौकसः।।
धन्यो राजा च सुग्रीवो भवद्भिःसुहृदां वरैः।।
वनवासी वानरो! आपलोग मेरे मित्र हैं, भाई हैं तथा शरीर हैं।आपलोगों ने मुझे संकट से उबारा है , अतः आप सरीखे श्रेष्ठ मित्रों के साथ राजा सुग्रीव धन्य हैं।

* शरणागतवत्सलता - श्रीराम की शरणागतवत्सलता का वर्णन बाल्मीकि रचित रामायण में स्थान-स्थान पर आया है,किन्तु जिस समय रावण से अपमानित होकर विभीषण राम की शरण में आया है, वह प्रसंग हृदय को भाव-विभोर कर देता है। विभीषण के आगमन ने वानर सेना में भूचाल ला दिया। सुग्रीव ने राम को सचेत कर दिया परन्तु राम शरणागतवत्सल थे। उन्होंने कहा -
मित्र भावेन सम्प्राप्तं न त्येजयं कथञ्चन।
दोषो यद्यपि तस्य स्यात् सतामेतद्गर्हितम्।।
मित्र भाव से आए हुए विभीषण का  मैं कभी त्याग नहीं कर सकता। यदि उसमें कोई दोष भी हो तो उसे आश्रय देना सज्जनों के लिए निन्दित नहीं है। हे वानरगणाधीश यदि कोई शत्रु भी हाथ जोड़कर दीनभाव से शरण में आकर अभय याचना करे तो दयाधर्म का पालन करने के लिए उसे नहीं मारना चाहिए। मैंने इसे अभय दे दिया है अतः तुम इसे ले जाओ। चाहे यह विभीषण हो या स्वयं रावण हीं क्यों न हो -
आनयैनं हरिश्रेष्ठ        दŸामस्याभयं मया।
विभीषणो वा सुग्रीव यदि वा रावणः स्वयम्।।
   निश्चय हीं बाल्मीकि के राम शरणागतवत्सल हैं।
* कृतज्ञता - श्रीरामकी चारित्रिक विशेषताओं में उनकी कृतज्ञता को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। राम एपकारी के प्रति कृतज्ञ हैं। जटायु और हनुमान का प्रसंग उनके इस चारित्रिक विशेषता को प्रकट करता है। राम के हीं शब्दों में -
एकैकस्योपकारस्य प्राणान् दास्यामि ते कपे ।
शेषस्येहोपकाराणां भवामि ऋणिनो वयम्।।
हे बन्धु ! तुम्हारा एक-एक एपकार ऐसा है जिसका बदला शायद प्राण देकर हीं चुकाया जा सके और प्राण एक हीं बार दिए जा सकते हैं। अतः मैं सदा तुम्हारा ऋणी रहूँगा। ईश्वर न करे उनका बदला चुकाने की नौबत आए क्योंकि वह नौबत तब आती है जब दूसरे पर कोई संकट हो और उस समय बदला चुकाया जा सके। मैं स्वप्न में भी नहीं सोच सकता कि तुम पर कोई मुसीबत आए।

मदङ्गं जीर्णतां यातु यŸवयोपकृतं कपे।
नरः प्रत्युपकाराणामापत्स्वायाति पात्रताम्।।

                  इससे पता चलता है कि श्रीराम के चरित्र में कृतज्ञता का भाव कितना उच्च कोटि का था।
* प्रजानुरंजकता - प्रजा को हर तरह से प्रसन्न रखने का गुण राम में कूट-कूट कर भरा हुआ था। बाल्मीकि रामायण में आरंभ से लेकर अन्त तक प्रजा के छोटे-बड़े सभी स्त्री-पुरूषों का श्रीराम में बड़ा हीं अद्भुत प्रेम था। राम अपनी प्रजा से पुत्रवत् प्रेम करते थे। श्रीराम जिस सीता के वियोग में पागल की तरह विलाप करते थे उसी निर्दोष और पति-परायणा सीता को भी प्रजा की प्रसन्नता के लिए त्याग दिया। उŸाररामचरितम् नाटक के रचयिता भवभूति ने राम के इसी प्रजानुरंजकता गुण को दिखाते हुए कहा है -
‘‘ स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि।
                 आराधनाय लोकानां मुंचतो नास्ति मे व्यथा।। ’’

* अतुलनीय पराक्रमशाली -  श्रीरामचन्द्र के बल, पराक्रम, वीरता और कौशल के विषय में कहना हीं क्या है? सम्पूर्ण बाल्मीकि रामायण में इसका वर्णन भरा-पड़ा है। विश्वामित्र के यज्ञरक्षा का प्रसंग हो या जनकपुर में शिव धनुष भंजन का प्रश्न हो, उनकी वीरता और पराक्रम देखते ही बनता है। परशुराम को निस्तेज करना हो या खर-दूषण का नाश। राम का पराक्रम युद्धकाण्ड में तो अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया है। बाली जैसे पराक्रमी को एक हीं बाण में मार डालना हो या समुद्र को भयभीत करना यह राम का हीं पराक्रम है। रावण, कुम्भकर्ण आदि की तो बात हीं क्या? वह पराक्रम तो सारा संसार जानता है।
(11) क्षमाशीलता - क्षमाशीलता का गुण श्रीराम के हृदयरूपी समुद्र में  लहरों  के समान हिलोरें लेता है। वे स्वभाव से हीं क्षमाशील हैं। वे अपने प्रति किये गये किसी भी अपराध को अपराध नहीं मानते। जहाँ कहीं भी क्रोध और युद्ध की लीला का वर्णन है वह तो सिर्फ अपने आश्रितों की रक्षा के लिए तथा दुष्टों को मुक्ति प्रदान करने के लिए।


  श्रीराम का चरित्र तथा उनके असंख्य आदर्श गुणों का लेखनी द्वारा वर्णन करना समुद्र को छोटी नाव से पार करने के समान  कठिन है। बाल्मीकि रामायण में जगह-जगह यह कहा गया है कि वे साक्षात् पूर्णब्रह्म परमात्मा भगवान विष्णु के अवतार थे। राम की स्तुति करते हुए परशुराम का यह कथन इस बात की पुष्टि करता है -
        ‘‘ अक्षय्यं मधुहन्तारं जानामि त्वां सुरेश्वरम्।
          धनुषोऽस्य परामर्शात् स्वस्ति तेऽस्तु परंतप।।’’
                              निश्चय हीं श्रीराम सद्गुणों के समुद्र थे। सत्य, सौहार्द, दया, क्षमा, मृदुता, धीरता, वीरता, गंभीरता, अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान, पराक्रम, निर्भयता, विनय, शान्ति, तितिक्षा,उपरति, संयम, निःस्पृहता, नीतिज्ञता, तेज, प्रेम, त्याग, मर्यादासंरक्षण, एकपत्नीव्रत, प्रजानुरंजकता, ब्राह्मण भक्ति, मातृ-पितृ-गुरू भक्ति, भ्रातृप्रेम, मैत्री, शरणागतवत्सलता, सरलता, व्यवहारकुशलता, साधुरक्षण, प्रतिज्ञापालन, दुष्टदलन, निर्वेदता, लोकप्रियता, अपिशुनता, बहुज्ञता, धर्मज्ञता, धर्मपरायणता,पवित्रता आदि-आदि समस्त गुणों का मर्यादा पुरूषोŸाम श्रीराम के चरित्र में पूर्ण विकास हुआ है। निश्चय हीं राम भारतवर्ष के हीं नहीं अपितु सम्पूर्ण जगत् के आदर्श हैं।

           प्रस्तुति: धनंजय कुमार मिश्र, अध्यक्ष संस्कृत विभाग, संताल परगना महाविद्यालय, दुमका

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