‘‘जैन दर्शन - एक परिचयात्मक अध्ययन’’



                                                                                                                                    20190112_074547.png
                                                                                                                                    धनंजय कुमार मिश्र’



                     जैन साहित्य में जैन धर्म और दर्शन का एक विशेष अर्थ है। जैन शब्द ‘जिन’ शब्द से बना है। ‘जिन’ का अर्थ है - जीतने वाला। सभी प्रकार के विकारों को जीत लेने वाला हीं ‘जिन’ कहा जाता है - ‘जिन’ देवता अस्य इति जैनः।’ इन ‘जिनों द्वारा दिया गया उपदेश ही जैन धर्म कहलाता है और जैन धर्म के मूल तत्त्व ही ‘जैन दर्शन’ के नाम से जाना जाता है।
                     जैन अनुश्रुति के अनुसार इस पृथिवी पर चैदह कुलकर (मनु) उत्पन्न हुए। अन्तिम कुलकर ‘नाभिराय’ थे। इनके पुत्र ऋषभदेव हुए जिन्हें जैन धर्म का आदि प्रवर्तक कहा जाता है। इन्हीं के द्वारा जैन-धर्म परम्परा का प्रारम्भ हुआ। भगवान ऋषभदेव को जैन ग्रन्थों के अनुसार जिन या तीर्थंकर कहा जाता है। जैन धर्म के प्रवर्तक महात्माओं को तीर्थंकर कहा जाता है क्योंकि धर्म रूपी तीर्थ का निर्माण करने वाले ज्ञानमनामुनीजन हीं तीर्थंकर कहलाते हैं - ‘‘ तरति संसारमहार्णवं येन निमित्तेन तत् तीर्थमिति।’’    
                   सम्पूर्ण जैनधर्म तथा दर्शन में 24 तीर्थंकरों की वाणी या उपदेश का संकलन है। इन 24 तीर्थंकरों में भगवान् ऋषभदेव प्रथम तथा वर्द्धमान महावीर अन्तिम तीर्थंकर माने जाते हैं। यद्यपि गौतम बुद्ध एवं भगवान् महावीर समकालीन हैं तथापि जैनधर्म बौद्धधर्म से बहुत प्राचीन है परन्तु जैनदर्शन और धर्म का जो रूप चला आ रहा है उसके प्रवत्र्तन का प्रमुख श्रेय अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी को ही है। महावीर स्वामी को ‘निर्ग्रन्थ’, महावीर, वीतराग, अर्हत् आदि कहा जाता है। दिगम्बर रहने के कारण और कर्मबन्धन की ग्रन्थि खोल देने के कारण वे ‘निग्र्रन्थ’ कहलाये। राग-द्वेषादि पर विजय के कारण वे महावीर और वीतराग कहे जाते हैं। सर्वज्ञ सिद्ध पुरूष होने के कारण उन्हें अर्हत् कहते हैं।
              जैन दर्शन मूल रूप से ऐसी विचारधारा है जो ईश्वर और वेद की सत्ता को पूर्णतः नहीं मानता अतएव भारतवर्ष में प्रचलित दार्शनिक विचारधाराओं में इसकी गणना नास्तिक दर्शन के रूप में की जाती है। निश्चय ही यह एक नास्तिक दर्शन है। जैन ग्रन्थों के आधार पर इस दर्शन के कुछ मूलभूत तथ्यों को इस प्रकार कहा जा सकता है -
1.     पदार्थ - जैन दर्शन के अनुसार सात पदार्थ हैं। ये सात पदार्थ जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जर, बन्ध  और मोक्ष  के रूप में जाने जाते हैं।   
2.    प्रमाण -  जैन दर्शन यद्यपि नास्तिक दर्शन है तथापि यह चार्वाक की तरह भोगवादी दृष्टिकोण नहीं अपनाता, इसलिए प्रमाण के मामले में भी यह चार्वाक से भिन्न है। जैन दर्शन दो प्रमाण मानता है - प्रत्यक्ष प्रमाण  और अनुमान प्रमाण।
3.     प्रमुख सिद्धान्त - जैन दर्शन का प्रमुख सिद्धान्त ‘स्याद्वाद’ या ’सप्तभंगीनय’ और एकान्तवाद है। जैन दर्शन का सप्तभंगीनय इस प्रकार है - ‘‘स्यात् अस्ति। स्यात् नास्ति। स्यात् अस्ति नास्ति। स्यात् अव्यक्तम्। स्यात् अस्ति च अव्यक्तम्। स्यात् नास्ति च अव्यक्तम्। स्यात् अस्ति च नास्ति च अव्यक्तम्।’’
4.     ईश्वर/पुरूष या आत्मा - जैन दर्शन नास्तिक है अतएव स्वाभाविक है इस दर्शन में ईश्वर का अभाव है। व्यक्ति विशेष ही काम, क्रोध, लोभ, मोहादि पर विजय प्राप्त कर जिन बन जाते हैं और जिन हीं परमात्मा कहे जाते हैं। आत्मा चेतन, ज्ञानस्वरूप तथा शरीर परिमाणवाला है। जैन दर्शन आत्मा के अस्तित्व को स्वीकारता है।
5.     स्ृष्टि-प्रक्रिया - जैन दर्शन के अनुसार कर्म के कारण आत्मा और पुद्गल के संयोग से सृष्टि या बन्ध होता है। पृथिव्यादि चार भूत एवं स्थावर तथा जंगम के भेद से पुद्गलों की संख्या छः है - ‘‘स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः।’’
6.     कैवल्य या मोक्ष - जैन दर्शन का लक्ष्य मोक्ष है। ज्ञान के प्रभाव से कर्म के निर्मूल होने से मोक्ष होता है। इस दर्शन के अनुसार - ‘‘कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।’’  जैन दर्शन के त्रिरत्न मोक्षप्राप्ति के मार्ग माने गए हैं। त्रिरत्न जैन दर्शन का सर्वस्व है। इसके अन्तर्गत सम्यक् दर्शन अर्थात् श्रद्धा, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र का समावेश है। ‘‘तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्।’’ सम्यक् चरित्र के लिए जैन दर्शन में पंचव्रत का पालन आवश्यक है। ये हैं - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। मुनियों के लिए यह महाव्रत तथा गृहस्थों के लिए अणुव्रत है।
जैन दर्शन के प्रमुख सम्प्रदाय
       जैन दर्शन एक नास्तिक दर्शन है। इसके दो सम्प्रदाय हैं - 1. श्वेताम्बर    ओर     2. दिगम्बर।
                    श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों के दार्शनिक सिद्धान्तों के विषय में मतभेद साधारण है। चरित्र से सम्बद्ध मतभेद अधिकतर है। दिगम्बर आचार पालन में अधिक कठोर हैं जबकि श्वेताम्बर कुछ उदार हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में मुनि श्वेत वस्त्र धारण करते हैं। यह ध्यान देने योग्य है कि यह नियम केवल मुनियों पर लागू होता है, गृहस्थों तथा श्रावकों आदि पर नहीं।
          दिगम्बर सम्प्रदाय के मुनि वस्त्र धारण नहीं करते। दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार मूल आगम ग्रन्थ लुप्त हो चुके हैं, केवल ज्ञान प्राप्त होने पर सिद्ध पुरूष को भोजन की आवश्यकता नहीं रहती, स्त्री-शरीर से मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती किन्तु श्वेताम्बर समुदाय ऐसा नहीं मानता।
             दोनों सम्प्रदाय ज्ञान को मानता है। यह ज्ञान दो प्रकार का है - अपरोक्ष तथा परोक्ष। अपरोक्ष ज्ञान तीन प्रकार के हैं - अवधि, मनःपर्याय और केवल। परोक्ष ज्ञान के दो भेद हैं - मति और श्रुत।
         इोनों सम्प्रदायों में चारित्रिक भेद हीं पर्याप्त हैं दार्शनिक सिद्धान्त के भेद अत्यन्त अल्प।

                                                जैनदर्शन के अनुसार स्याद्वाद एवं सप्तभंगीनय
                जैन-साहित्य में जैनधर्म और दर्शन का एक विशेष अर्थ है। ‘जिन’ शब्द का अर्थ है - जीतने वाला। अर्थात् सभी प्रकार के विकारों को जीतने वाला ही जिन कहा जाता है। जैन धर्म के मूल तत्त्व ही जैनदर्शन के नाम से जाने जाते हैं।
                जैनदर्शन के प्रमुख सिद्धान्तों में ‘स्याद्वाद’ का नाम अत्यन्त श्रद्धा से लिया जाता है। ‘स्याद्वाद’ की अभिव्यक्ति सात प्रकार के वचन-विन्यासों से होता है जिसे ‘सप्तभंगीनय’ कहते हैं। तात्पर्य है कि सात प्रकार के परामर्शों का व्यवहार करते हैं जिससे किसी वस्तु के अनन्त धर्मो की अभिव्यक्ति होती है।
                      सामान्य मानव के लिए सारी वस्तुओं को जानना या एक वस्तु के ही सारे धर्मों को जानना असम्भव है। हम कुछ वस्तुओं को और उनके कुछ धर्मो कोही जान सकते हैं। एक वस्तु के सारे धर्मों को जान लेना सर्वज्ञ होना है। जो एक वस्तु के सारे धर्मों को जानता है, वह सारी वस्तुओं के सारे धर्मों को जानता है - ‘‘एको भावः सर्वथा येन दृष्टः सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः।’’
     हमारा सारा ज्ञान एकांगी, आंशिक, अपूर्ण, सीमित और सापेक्ष होता है तथा हमारे समस्त प्रकथन, परामर्श और न्यायवाक्य भी एकांगी, सीमित और सापेक्ष होते हैं। इस ज्ञानमीमांसीय और तर्कशास्त्रीय सिद्धान्त का नाम ‘स्याद्वाद’ है।
   ‘स्याद्वाद’ ज्ञान की सापेक्षता का सिद्धान्त है। ‘स्यात्’ पद का सामान्य अर्थ ‘सम्भवतः’ या ‘शायद’ है, जिससे संशय झलकता है किन्तु जैन दर्शन में ‘स्यात्’ पद का प्रयोग विशेष अर्थ में किया गया है, जो ज्ञान की सापेक्षता का सूचक है। हमारे ज्ञान के आंशिक और सापेक्ष होने के कारण हमारे सारे प्रकथन और परामर्श -वाक्य भी आंशिक और सापेक्ष होते हैं। ‘स्यात्’ इसी सापेक्ष सत्य का सूचक है -‘‘स्यात्कारः सत्यला´्छनः।’’
             जैन दार्शनिक प्रत्येक ‘नय’ (परामर्श) के साथ ‘स्यात्’ शब्द का प्रयोग करते हैं। नय के साथ स्यात् के प्रयोग से आपेक्षिता का बोध होता है। इसके अन्तर्गत हम किसी वस्तु के स्वरूप को सात प्रकार के नयों या परामर्शो द्वारा अभिव्यक्त कर सकते हैं। जैन दर्शन में सप्तभंगी नय है। ये नय निम्नलिखित हैं -
1.    ‘‘स्यात् अस्ति - सापेक्षतया वस्तु है।
2.     स्यात् नास्ति - सापेक्षतया वस्तु नहीं है।
3.    स्यात् अस्ति नास्ति - सापेक्षतया वस्तु है और नहीं है।
4.    स्यात् अव्यक्तम् - सापेक्षतया वस्तु अव्यक्तव्य  है।
5.     स्यात् अस्ति च अव्यक्तम् - सापेक्षतया वस्तु है और अवक्तव्य है।
6.    स्यात् नास्ति च अव्यक्तम्- सापेक्षतया वस्तु नहीं है और अवक्तव्य है।
7.    स्यात् अस्ति च नास्ति च अव्यक्तम् -  सापेक्षतया वस्तु है, नहीं है और अवक्तव्य भी है।

            साधारणतः न्याय-वाक्य दो प्रकार के माने जाते हैं - अन्वयी (विधानात्मक) औरव्यतिरेकी (निषेधात्मक) । किन्तु जैनमत नय के उपर्युक्त सात प्रकार या भंग स्वीकार करता है अतः इसे सप्तभंगीनय कहते हैं। ये ही स्याद्वाद की व्याख्या करते हैं।
   जैन दर्शन के अनुसार किसी वस्तु का ज्ञान उसके द्रव्य, रूप, देश और काल की दृष्टि से किया जाता है। वस्तु की अपने द्रव्य, रूप, देश और काल की दृष्टि से सत्ता है, किन्तु अन्य द्रव्य, रूप, देश और काल की दृष्टि से सत्ता नहीं है। ज्ञान की इस सापेक्षता के प्रकाशन के लिए प्रत्येक न्याय वाक्य के पूर्व ‘स्यात्’ पद का प्रयोग किया जाता है।
1.     प्रथम भंग है - स्यात् अस्ति। यदि घड़े के विषय में इसे प्रयुक्त करें तो इसका अर्थ है - सापेक्षतया घड़ा है अर्थात् मिट्टी का बना हुआ, गोल आकार का घड़ा इस समय कमरे में विद्यमान है। इस वाक्य में घड़े का अस्तित्त्व का विधान है।
2.    द्वितीय भंग है - स्यात् नास्ति। इसका अर्थ है सापेक्षतया घड़ा नहीं है अर्थात् घड़ा पीतल का नही है, चैकोर नही है, उस कमरे में नहीं है और अन्य समय में नहीं है। इस वाक्य में घड़े के अस्तित्त्व का निषेध है।
3.    तृतीय भंग है - स्यात्  अस्ति नास्ति। इसका अर्थ है - सापेक्षतया घड़ा है भी और नहीं भी है। अर्थात् घड़ा मिट्टी का है पीतल का नही है, गोल है चैकोर नहीं है, इस कमरे में है उस कमरे में नहीं है, इस समय है अन्य समय में नहीं है जैसे उत्पत्ति के पूर्व या विनाश के बाद। इस वाक्य में घड़े के अस्तित्त्व का क्रमशः विधान और निषेध दोदों है, किन्तु दृष्टि-भेद से अर्थात् स्व-द्रव्य-रूप-देश-काल की दृष्टि से विधान और पर-द्रव्य-रूप-देश-काल की दृष्टि से निषेध है।
4.    चतुर्थ भंग है - स्यात् अवक्तव्यम्। इसका अर्थ है कि वस्तु में यद्यपि अस्तित्व और नास्तित्व दोदों एक साथ विद्यमान रहते हैं, तथापि भाषा की सीमा के कारण हम दोनों का विधान एक साथ (युगपत्) नहीं कर सकते। वाणी द्वारा निर्वचन क्रमशः या आनन्तर्य से हीं हो सकता है, युगपत् नहीं। यहाँ ‘अवक्तव्यम्’ का अर्थ है युगपत् निर्वचन की अशक्यता - ‘‘यौगपद्याद् वा स्यादवक्तव्यमेव तत्।’’ अस्तित्व और नास्तित्व इन दोनों धर्मो का युगपत् निषेध भी अवक्तव्य है।
5.    पंचम भंग है - स्यात् अस्ति च अवक्तव्यम्। अर्थात् किसी अपेक्षा घट का अस्तित्व है तथा किसी अपेक्षा से घट अव्यक्तव्य भी है। किसी दृष्टि से द्रव्य, क्षेत्र, कालादि से घट का अस्तित्व है परन्तु जब इनका स्पष्ट निदर्शन न हो तो घट अवक्तव्य है।
6.    षष्ठ भंग है - स्यात् नास्ति अवक्तव्यम्। अर्थात् किसी अपेक्षा से घट नहीं है तथा अवक्तव्य भी है। घट अपने से भिन्न पदार्थ के क्षेत्र, द्रव्य, कालादि की दृष्टि से नहीं है तथा उनका स्पष्ट निर्देश न होने से अवक्तव्य भी है।
7.    सप्त भंग है -स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्यम्। अर्थात् किसी अभिप्राय विशेष से घ्ज्ञट है, नहीं है तथा अवक्तव्य भी है। स्व द्रव्य, काल तथा क्षेत्र आदि की दृष्टि से घट है लेकिन पर द्रव्य, काल तथा क्षेत्र आदि की दृष्टि से नहीं है और उभय रूप विचार करने पर अवक्तव्य भी है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि स्याद्वाद संशयवाद नहीं है अपितु सापेक्षवाद है। सप्तभंगीनय के अन्तिम तीन प्रथम और चतुर्थ, द्वितीय और चतुर्थ तथा तृतीय और चतुर्थ का मिश्रण मात्र है। ये भंग बौद्ध से भिन्न हैं।





’अध्यक्ष संस्कृत-विभाग,
संताल परगना महाविद्यालय,
सिदो-कान्हु मुर्मू विश्वविद्यालय,
दुमका (झारखण्ड) 814101






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