संस्कृतवाङ्मय में वर्णित चैंसठकलाओं की उपयोगिता




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                                                                                                                       डाॅ0 धनंजय कुमार मिश्र *



           संस्कृत शब्द ‘सम्’ उपसर्गपूर्वक ‘कृ’ धातु से ‘क्त’ प्रत्यय जोड़ने पर बना है जिसका अर्थ है - संस्कार की हुई, परिमार्जित, शुद्ध अथवा परिस्कृत। संस्कृत शब्द से आर्यो की साहित्यिक भाषा का बोध होता है। भाषा शब्द संस्कृत की ‘भाष्’ धातु  से निष्पन्न हुई है। भाष् धातु का अर्थ व्यक्त वाक् (व्यक्तायां वाचि) है। महर्षि पत×जलि के अनुसार - ‘‘व्यक्ता वाचि वर्णा येषा त इमे व्यक्त वाचः ‘‘  अर्थात्- भाषा वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचार दूसरों पर भली भांति प्रकट कर सकता है और दूसरों के विचार स्वयं स्पष्ट रूप से समझ सकता है।
    भाषा मानव की प्रगति में विशेष रूप से सहायता करती है। हमारे पूर्वपुरूषों के सारे अनुभव हमें भाषा के माध्यम से ही प्राप्त हुए हैं। हमारे सभी शास्त्र और उनसे होने वाला सम्पूर्ण लाभ, भाषा का ही परिणाम है। महाकवि दण्डी के शब्दों में -
इदमन्धन्तमः  कृत्स्नं  जायेत  भुवनत्रयम्् ।
यदि शब्दाह्वयं ज्योतिरासंसारं न दीप्यते ।।


अर्थात् यह सम्पूर्ण भुवन अन्धकारपूर्ण हो जाता यदि संसार में शब्द - स्वरूप ज्योति अर्थात् भाषा का प्रकाश न होता। निश्चित रूपेण, विभिन्न अर्थों में संकेतित शब्द-समूह ही भाषा है जिसके द्वारा हम अपने मनोभाव दूसरो के प्रति सरलता से प्रकट करते हैं।
        वाङ्मय शब्द की निष्पत्ति ‘‘वाच् $ मयट्’’ से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ है - शब्दों से युक्त अर्थात् वाणी सम्बन्धी। कहा भी गया है - ‘‘समस्तं वाङ्मयं व्याप्तं त्रैलोक्यमिव विष्णुणा।’’ विशिष्ट अर्थ में वाङ्मय शब्द साहित्य का वाचक है।
             शब्द और अर्थ के सामंजस्य का प्रतीक है - साहित्य। सहितस्य भावः साहित्यम्। वस्तुतः साहित्य ही किसी देश की संस्कृति रूपी कनक को कसने की कसौटी है। यह समाज का दर्पण है। इसमें कोई दो मत नहीें कि संस्कृत भाषा ही हमारी संस्कृति, सभ्यता का मूल स्रोत है जो भारत की ही नहीं अपितु विश्व की प्राचीनतम भाषा है। इसका साहित्य विश्व का प्राचीनतम साहित्य है क्योंकि हम सभी जानते एवं मानते हैं कि ऋ़ग्वेद संसार का आदिम ग्रन्थ है। 
संस्कृत वाङ्मय अत्यन्त व्यापक है। इसमें निहित उपयोगी तत्त्व प्राचीन काल से आज तक अविरल गति से प्रवाहित हो रहे हैं। इसमें आचारशास्त्र, व्याकरणशास़्त्र, राजनीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र, कामशास्त्र, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, चिकित्साशास्त्र, नाट्यशास्त्र, आलोचना शास्त्र, आयुर्वेदशास्त्र, योगशास्त्र, वास्तुशास्त्र, स्थापत्यशास्त्र, संगीतशास्त्र, वनस्पतिशास्त्र, शिक्षाशास्त्र, गद्य-पद्य आदि का अक्षय भण्डार है।
        स्ंास्कृत भाषा में ऋषियों का योगदान अन्यतम है। मन्त्रद्रष्टा ऋषियों ने कायिक, वाचिक और मानसिक शुद्धि के साथ तपोबल से समाधिस्थ होकर वेदों का साक्षात्कार किया है। भारतवर्ष की पुण्यमयी वसुधा पर ही वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् , वेदांग, षड्दर्शन, स्मृति, धर्मशास्त्र, पुराण, रामायण, महाभारत, आयुर्वेद, नीतिशास्त्र, आचारशास्त्र, कामशास्त्र तथा काव्यादि समस्त ग्रन्थ प्रारम्भ में संस्कृत भाषा में ही लिखे गए। जो पूर्णता संस्कृत भाषा में है वह अन्यत्र नहीं। यह उक्ति संस्कृत वाङ्मय के  लिए सर्वथा उपयुक्त है कि - ‘‘यदिहास्ति तदन्यत्र, यन्नेहास्ति न तत् क्वचित् ।’’
          प्रस्तुत पत्र में हमारा ध्येय संस्कृत वाङ्मय में वर्णित ‘‘चतुष्षष्टिकलाः’’ अर्थात् चैंसठ कलाओं पर दृष्टिपात करते हुए उनकी वर्तमान काल में उपयोगिता पर प्रकाश डालना है जिससे आज की पीढ़ी न केवल उससे अवगत हो सके अपितु उसे अंगीकार कर अपना कौशल विकास करते हुए राष्ट्र और अखिल विश्व के कल्याणार्थ अपनी सम्यक् भूमिका का निर्वहण कर सके।
आचार्य भर्तृहरि अपने नीतिशतकम् में कहते हैं कि -
‘‘साहित्यसङ्गीतकलाविहीनः साक्षात् पशुः पुच्छविषाणहीनः।
               तृणं न खादन्नपिजीवमानस्तद् भागधेयं परमं पशूनाम्।।’’

अर्थात् मनुष्य योनि में जन्म लेकर जो साहित्य-संगीत-कला से अपरिचित रहता है, उसका मनुष्य होना ही व्यर्थ है। वास्तव में ऐसा मनुष्य नराकार पशु ही है।
          हमारे धर्मशास्त्रों में भगवान् शिव को कलाधर तथा बुद्धिप्रदायिनी सरस्वती को कला की देवी कहा गया है। पूजा, अर्चणा या यज्ञ करते समय थाली में जो सामग्री रखी जाती है, उसमें कलावा भी होता है। यद्यपि उसे वस्त्र के प्रतीक के रूप में रखा जाता है, किन्तु कच्चे सूत का यह कलावा हमें कला की महत्ता का भी स्मरण कराता है। कलावा को कलाई में बाँधकर हम कलापूर्ण होना सीखते हैं। एक व्रत लेते हैं तथा संकल्प करते हैं कि जीवन में हम आगे बढ़ेंगे।
          भारतीय मनीषियों ने मन, वचन और कर्म को श्रेष्ठता के क्रम से रखा है। करमूल यानी कलाई हमारे हाथों का आधार सिद्ध होती है। हमारे अन्दर छिपी कला के भावों को मूर्त रूप देने में सहायक बनती है।  प्राचीन काल में भारतवर्ष विश्वगुरू की महती उपाधि से विभूषित था इसके पीछे एक महत्त्वपूर्ण कारण यहाँ की उन्नत और व्यापक शिक्षा व्यवस्था भी थी। भारतीय प्राचीन शिक्षा व्यव्स्था अत्यन्त व्यापक थी। शिक्षा के अन्तर्गत सिर्फ शास्त्रीय ज्ञान ही नहीं अपितु जीवनोपयोगी लौकिक ज्ञान का भी सम्यक् समावेश था। लोकोपयोगी ज्ञान के अन्तर्गत शिक्षा में कलाओं की शिक्षा भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती थी। आर्षग्रन्थों यथा रामायण, महाभारत के अतिरिक्त पुराणों और काव्यग्रन्थों में अनेक कलाओं का वर्णन प्राप्त होता है। कलाएँ अनन्त हैं। सबके नाम भी नहीं गिनाये जा सकते। संस्कृत वाङ्मय में कलाओं की चैंसठ संख्या के बारे में अनेक विद्वानों का मत है कि ऋग्वेद आठ अष्टकों में विभाजित है और प्रत्येक अष्टक में आठ-आठ अनुवाक हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण ऋग्वेद चैंसठ अनुवाकों में विभक्त होने के कारण और उसकी महत्ता प्रकट करने की दृष्टि से कलाओं की संख्या चैंसठ ही मानी गई है। भाव यह है कि जिस प्रकार सम्पूर्ण ऋग्वेद 64 अनुवाकों (भागों) में विभक्त है उसी प्रकार समस्त कलाएँ 64 ही हैं। विस्तृत रूप से शुक्राचार्य के ‘‘नीतिसार’’ और वात्स्यायन मुनि के ‘‘कामसूत्र’’ में चैंसठ कलाओं का वर्णन प्राप्त होता है। आचार्य वात्स्यायन ने कामसूत्र में जिन चैंसठ कलाओं का उल्लेख किया है, उन सभी कलाओं के नाम यजुर्वेद के तीसरे अध्याय में भी मिलते हैं। तन्त्रग्रन्थों में भी चैंसठ कलाओं का उल्लेख है। बौद्ध ग्रन्थ ‘‘ललितविस्तर’’ में पुरूषकला के रूप में छियासी और कामकला के रूप में चैंसठ कलाओं का उल्लेख है। ललितविस्तर में जिन कलाओं का उल्लेख है, कामसूत्रादि में प्रतिपादित कलाएँ संख्या और स्वरूप में उनसे भिन्न हैं। प्रबन्धकोश में कलाओं की संख्या बहत्तर निर्दिष्ट हैं। संस्कृत के प्रसिद्ध कवि और आलोचक क्षेमेन्द्र ने ‘‘कलाविलास’’ नामक ग्रन्थ में कलाओं की सर्वाधिक संख्या दी है। उसमें चैंसठ कलाएँ लोकोपयोगी हैं। जिनमें बत्तीस कलाएँ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरूषार्थचतुष्टय की हैं जबकि अन्य बत्तीस कलाएँ शील, स्वभाव, मात्सर्य और मान की हैं। इनके अतिरिक्त पश्यतोहरों (सुनारों) की चैंसठ कलाएँ, वेश्याओं की नागरिकों को रिझाने की चैंसठ कलाएँ, भेषज से सम्बन्धित दस कलाएँ और कायस्थों के लेखन-कौशल और उनसे सम्बन्धित सोलह कलाएँ हैं। ज्योतिषियों अर्थात् गणकों से सम्बन्धित कलाओं का भी उल्लेख क्षेमेन्द्र ने किया है। वास्तव में क्षेमेन्द्र ने कलानिरूपण में परम्पराओं का मात्र निर्वहण किया है। क्षेमेन्द्र के अनुसार कलाओं का मुख्य उद्देश्य धर्मादि पुरूषार्थचतुष्ट्य का साधनमात्र था। जैनग्रन्थ ‘कल्पसूत्र’ की टीका में भी चैंसठ कलाओं का उल्लेख है, जिन्हें ‘‘महिलागुण’’ कहा गया है। चैंसठ कलाओं की उत्पत्ति का आख्यान ‘‘कालिकापुराण’’ नामक जैनग्रन्थ में वर्णित है।
       नीतिसार के  चैथे अध्याय के तीसरे प्रकरण के अनुसार 64 कलाएँ हैं - गायन, वादन, नर्तन, नाट्य, आलेख्य (चित्रकला), विशेषक, अल्पना, पुष्पशय्यानिर्माण, अंगरागादिलेपन, पच्चीकारी, शयनरचना, उदकवाद्य, जलाघात, रूपबनाना, मालागूँथना, मुकुट बनाना, वेश बदलना, कर्णाभूषण बनाना, जादुगरी, असुन्दर को सुन्दर बनाना, हस्तलाघव, पाककला, आनानक, सुचीकर्म, पहेली बुझाना, पुस्तकवाचन, नाट्याख्यायिका-दर्शन, काव्यसमस्यापूत्र्ति, बेंत की बुनाई, तुर्ककर्म, बढ़ईगिरि, वास्तुकला, रत्नपरीक्षा, धातुकर्म, रत्नों की रंग परीक्षा, आकरज्ञान, उपवनविनोद, पक्षी लड़ाना, पक्षियों की बोली सिखाना, मालिशकरना, केश मार्जन कौशल, गुप्तभाषा ज्ञान, विदेशी कलाओं का ज्ञान, देशी भाषाओं का ज्ञान, भविष्य कथन, कठपुतली नर्तन, कठपुतली के खेल, सुनकर दोहरा देना, आशुकाव्य क्रिया, भाव को उल्टा कहना, छलिकयोग, वस्त्रगोपन, द्यूतविद्या, आकर्षण क्रीड़ा, बालक्रीड़ाकर्म, शिष्टाचार, वशीकरण और व्यायाम।
    श्रीमद्भागवत पुराण के टीकाकार श्रीधरस्वामी ने भी दशम स्कन्ध के 43वें अध्याय के 64 वें श्लोक की टीका में अनेक प्रकार की कलाओं का नामोल्लेख किया है परन्तु इसमें कुछ ही नीतिसार में वर्णित कलाओं से मिलती हैं शेष भिन्न हैं। संस्कृत का प्रसिद्ध वाङ्मय ‘‘शिवतत्त्वरत्नाकर’’ में जिन चैंसठ कलाओं का वर्णन मिलता है वे भी नीतिसार में निर्दिष्ट कलाओं से कुछ अलग ही हैं। शिवतत्त्वरत्नाकर के अनुसार चैंसठ कलाएँ इस प्रकार हैं - इतिहास, आगम, काव्य, नाटक, अलंकार, गायकत्व, कवित्व, कामशास्त्र, दुरोदर, देशभाषालिपिज्ञान, लिपिकर्म, वाचन, गणक, व्यवहार, स्वरशास्त्र, शाकुन, सामुद्रिक, रत्नशास्त्र, गज-अश्व-रथ कौशल, मल्लशास्त्र, सूपकर्म, भूरूहदोहद, गन्धवाद, धातुवाद, रत्नसम्बन्धी खनिवाद, बिलवाद, अग्निसंस्तम्भक, जलसंस्तम्भक, वाचःस्तम्भन, वयःस्तम्भन, आकर्षण, मोहन, विद्वेषण, उच्चाटन, मारण, कालवंचन, स्वर्णकार, परकायप्रवेश, पादुकासिद्वि, वाक्सिद्धि, गुटिकासिद्धि, ऐन्द्रजालिक, अंजन, परदृष्टिवंचन, स्वरवंचन, मणि-मन्त्र औषधादिकीसिद्धि, चैरकर्म, चित्रक्रिया, लौहक्रिया, अश्मक्रिया, मृत्क्रिया, दारूक्रिया, वेणुक्रिया, चर्मक्रिया, अम्बरक्रिया, अदृश्यकरण, दन्तिकरण, मृगयाविधि, वाणिज्य, पाशुपाल्य, कृषि, आसवकर्म और लावकुक्कुट मेषादियुद्धकारक कौशल।
       आचार्य वात्स्यायन मुनि प्रणीत कामसूत्र और इस पर लिखित जयमंगलाटीका में वर्णित कलाओं पर दृष्टिपात करने पर चैंसठ कलाओं की सम्यक् स्थिति स्पष्ट होती है। कामसूत्र के  साधारण अधिकरण के तृतीय अध्याय के विद्यासमुद्देश्य प्रकरण में चैंसठ कलाओं और इनकी शिक्षा का वर्णन मिलता है। वात्स्यायन मुनि चैंसठ कलाओं को चतुःषष्टिविद्या कहते हैं। उनके अनुसार गीत, नृत्य, वाद्य, आलेख्य, विशेषच्छेद, तण्डुलकुसुमावलिविकार, पुस्पास्तरण, दशनवसनांगराग, मणिभूमिकाकर्म, शयन-रचना, उदक-वाद्य, उदकाघात, चित्रयोग, माल्यग्रन्थन, शेखरकापीडयोजना, नेपथ्य प्रयोग, कर्णपत्रभंग, गन्धयुक्ति, भूषणयोजना, ऐन्द्रजालयोग, कौचुमार-प्रयोग, हस्तलाघव, विचित्रशाकयूषभक्ष्यविकारक्रिया, पानकरसरागासवयोजन, सूचीवान कर्म, सूत्रक्रीडा, वीणाडमरूवाद्य, प्रहेलिका, प्रतिमाला, दुर्वाचकयोग, पुस्तकवाचन, नाटकाख्यायिकादर्शन, काव्यसमस्यापूर्ति, पट्टिकावेत्रवान्, तक्षकर्म, तक्षण, वास्तुविद्या, धातुवाद, रूप्यपरीक्षा, मणिरागाकरज्ञान, वृक्षायुर्वेद, मेषकुक्कुटलावकयुद्ध, शुकसारिका-प्रलापन, उत्साह-संवाहन-केशमर्दन, अक्षरमुष्टिकाकथन, म्लेच्छितविकल्प, देशभाषाविज्ञान, पुष्पकटिका, निमित्तज्ञान, यन्त्रमातृका, धारणमातृका, सम्पाठ्य, मानसीकाव्यक्रिया, अभिधानकोश, छन्दोविज्ञान, क्रियाकल्प, छलितकयोग, वस्त्रगोपन, द्यूतविशेष, आकर्षक्रीडा, बालक्रीडनक, वैनयिकी विद्याज्ञान और व्याायामिकी विद्या चतुःषष्टिविद्या या चैंसठ कलाएँ हैं। वाभ्रव्य के मतानुसार चैंसठ कलाएँ इस प्रकार हैं 6 - स्पृश्टक, विद्धक,उद्धृष्टक, पीडितक, लतावेष्टितक, वृक्षाधिरूढक, तिलतण्डुलक, क्षीर-नीरक, निमित्तक, स्फुरितक, घट्टितक, सम, तिर्यक्, उद्भ्रान्त, आपीडित, अवपीडितक, आच्छुरितक, अर्धचन्द्र, मण्डल, रेखा, व्याघ्रनख,मयूरपदक, शशप्लुतक, उत्पलपत्रक, गूढक, उच्छूनक, बिन्दु, प्रवालमणि, मणिमाला, बिन्दुमाला, खण्डाभ्रक, वराहचर्वित, उत्फुल्लक, विजृम्भितक, इन्द्राणी, सम्पुटक, पीडितक, वेष्टितक, बाडवक, अपहस्तक, प्रसृतक, मुष्टि, समतल, कीला, कत्र्तरी, विद्धा, सन्दंशिका, उपसृप्त, मन्थन, हुल, अवमर्दन, निर्घात, वराहघात, वृषाघात, चटकविलसित, सम्पुट, निमित्त, पाश्र्वतोदष्ट, बहिःसन्दंश, अन्तःसन्दंश, चुम्बितक, परिमृष्टक, आम्रचूषितक और संगर। वाभ्रव्य के द्वारा कही गई ये चैंसठ कलाएँ कामकलाओं के अन्तर्गत आती हैं।
   स्पष्ट हो चुका है कि चैंसठ कलाओं के अन्तर्गत दो प्रकार की कलाओं का निर्देश मिलता है। संगीतादि चैंसठ कलाएँ, जिनका उपयोग किसी कन्या या स्त्री के सुगृहिणी बनने के लिए उपयोगी कहा गया है जबकि चैंसठ कामकलाएँ जिनका उपयोग दाम्पत्यपीवन में परमसुख या आनन्द की प्राप्ति के लिए  कहा गया है।
    यहाँ हमारा विवेच्य मात्र संगीतादि चैंसठ कलाओं  और वर्तमान काल में इनकी उपयोगिता पर ही है।
     प्राचीन काल से भारत में जिन चैंसठ कलाओं का उल्लेख है वे पुरूषार्थ चतुष्टय के अन्तर्गत तृतीय पुरूषार्थ ‘‘काम’’ की अंगभूत विद्यााएँ हैं। स्त्री-पुरूष दोनों के लिए ये विद्याएँ उपयोगी हैं अतः दोनों को इन्हें सीखने-पढ़ने का निर्देश दिया गया है। ये विद्याएँ पुरूषार्थ चतुष्टय की साधिका हैं। व्यावहारिक जीवन की अभ्युन्नति एवं सफलता के लिए इन विद्याओं का अध्ययन आवश्यक माना जाता रहा है। इन कलाओं की व्यापक उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए ही सामाजिक जीवन के लिए राज्य की ओर से अनेक कला-केन्द्रों की व्यवस्था की जाती थी। आज भी ऐसे केन्द्र प्रचलन में हैं। अनेक ग्रन्थों में ऐसा उल्ल्ेख मिलता है कि प्राचीन काल में कला के इच्छुक स्त्री-पुरूषों को सुयोग्य आचार्यो द्वारा विविध कलाओं की शिक्षा दी जाती थी। कई ऐसे कला-केन्द्र थे जहाँ स्त्री-पुरूष व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से कलाओं की शिक्षा ग्रहण करते थे और अपनी कलाओं का उत्कृष्ट प्रदर्शन किया करते थे। सामाजिक जीवन में कलाओं का व्यापक प्रभाव, सम्मान एवं प्रचार था।
   वर्तमान काल में भी संगीतादि चैंसठ कलाओं की उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता हैं। संक्षेप में संगीतादि चैंसठ कलाओं पर दृष्टिपात करते हुए इनकी उपयोगिता को समझने में  सहायता मिल सकती है। कालक्रम में चैंसठ कलाओं में वर्णित कुछ कलाएँ अप्रासंगिक और व्यर्थ लग सकती है परन्तु गम्भीरता पूर्वक सोचने पर समस्त चैंसठ कलाएँ आज भी सफल जीवन के सूक्ष्मसूत्र हैं। चैंसठ कलाओं में से प्रत्येक पर हम ध्यान दें और इनकी उपयोगिता - अनुपयोगिता पर विचार करें। यथा:-
1.    गीतम् (गायन ैपदहपदह ):- यह चैंसठ कलाओं में सर्वप्रथम गणित है। प्राचीन टीकाकार कहते हैं कि ‘‘गीतवाद्यनृत्यालेख्यानि चत्वारि प्रायः स्वशास्त्रविहितप्रपञ्चानि तथापि संक्षेपतः कथ्यन्ते-‘‘स्वरगं पदरगं चैव तथा लयगमेव च। चेतोवधानगं चैव गेयं ज्ञेयं चतुर्विधम्। ’’ यह कला आज अत्यन्त उपयोगी है। कौशल विकास की दृष्टि से यदि देखा जाय तो गायन के क्षेत्र में अनेक विश्वविख्यात हस्तियों को उदाहरणार्थ हम रख सकते हैं। शिक्षा संस्थानों के साथ-साथ पारम्परिक रूप से भी इस कला की शिक्षा भारत सहित सम्पूर्ण विश्व में प्रचलित है। यह कला चिर काल से उपयोगी है इसमें मतभिन्नता की संभावना नहीं हो सकती।
2.    वाद्यम् (वादन च्संलपदह वद डनेपबंस प्देजतनउमदजे ) :- चतुष्षष्टिकलाओं में द्वितीय कला के रूप में वर्णित यह कला भी अत्यन्त उपयोगी है। सम्पूर्ण संसार में इस कला की कद्र है। चारों प्रकार के वाद्यों का वादन इसके अन्तर्गत आता है। कहा भी गया है- ‘‘घनं च विततं वाद्यं ततं सुषिरमेव च। कांस्यपुष्करतन्त्रीभिर्वेणुना च यथाक्रमम्। ’’
3.    नृत्यम् (नृत्य क्ंदबपदह ):- चैंसठ कलाओं में इस कला का भी महत्त्व सर्वविदित है। वर्तमान काल में शास्त्रीय और लोक नृत्य के रूप में यह देखा जाता है। पूर्वोक्त दो कलाओं के साथ इसका संगम भी प्रसिद्ध है। सम्पूर्ण संसार इस कला से परिचित है। इसकी उपयोगिता को ध्यान में रखकर आज भी अनेक शिक्षा केन्द्रों में यह कला सिखाने की परम्परा प्रचलित है। शास्त्रों में कहा गया है- ‘‘करणान्यङ्गहाराश्च विभावो भाव एव च। अनुभावो रसाश्चेति संक्षेपान्नृत्यसंग्रहः।’’
4.    आलेख्यम् (चित्रकला क्तंूपदह ) :-  आलेख्य को सामान्यतः हम चित्रकला के रूप में जान सकते हें। इसकी उपयोगिता इसके वैविघ्य के कारण भी है। यह वर्तमान काल में भी उतना ही उपयोगी है जितना अतीत में। चित्रकला की चर्चा करते हुए संस्कृत साहित्य में कहा गया है - ‘‘रूपभेदाः प्रमाणानि भावलावण्ययोजनम्। सादृश्यं वर्णिकाभङ्ग इति चित्रं षडङ्गकम्।।’’ इति। एतानि परानुरागजननान्यात्मविनोदार्थानि च।
5.    विशेषकच्छेद्यम् (मस्तक पर श्रृंगार कला ज्ंजजववपदह ) :- संस्कृत वाङ्मय में वर्णित यह कला अतीत से आज तक थोडे़ - बहुत परिवर्तन के साथ उपयोगी रहा है। प्राचीन काल में जहाँ यह कला महिलाओं के लिए सीखने योग्य हुआ करती थी वहीं आजकल यह कला कुछ परिवर्तन के साथ सबके लिए उपयोगी है। इस कला को सीख कर और इसके सम्यक् उपयोग से रोजगार के रूप में आज इसका उपयोग किया जा रहा है। संस्कृत शास्त्रों में इस कला पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि -   विशेषकस्तिलको यो ललाटे दीयते, तस्य भूर्जादिपत्रमयस्यानेकप्रकारं छेदनमेवच्छेद्यम्। पत्रच्छेद्यमिति वक्तव्यम्। वक्ष्यति च -‘पत्रच्छेद्यानि नासाभिप्रायाकृतानि प्रेषयेत्’ इति। सत्यम्। विशेषकग्रहणमादरार्थम्, विलासिनीनामतिप्रियत्वात्।
6.    तण्डुलकुसुमवलिविकाराः (चावलों को रंगकर फर्श सजाना ।ततंदहपदह ंदक ंकवउपदह ंद पकवस व िसिववत ूपजी तपबम ंदक सिवूमते ) :- यह कला आज भी प्रासंगिक और प्रचलित है। पर्व-त्यौहारों एवं उत्सवों में रंगोली आदि का निर्माण इस कला का आधुनिक रूप कहा जा सकता है। इस कला की उपयोगिता कालान्तर से चली आ रही है। शास्त्रों में इस कला के बारे में कहा गया है कि - ‘‘अखण्डतण्डुलैर्नानावर्णैः सरस्वतीभवने कामदेवभवने वा मणिकुट्टिमेषु भक्तिविकाराः। तथा कुसुमैर्नानावणैग्र्रथितैः शिवलिङ्गादिपूजार्थं भक्तिविकाराः। अत्र ग्रथनं माल्यग्रथन एवान्तर्भूतम्। भक्तिविशेषणावस्थापनं कलान्तरम्।’’
7.    पुष्पास्तरणम़् (फूलों का सेज बिछाना ैचतमंकपदह ंदक ंततंदहपदह इमके ूपजी सिवूमते ) :- चैंसठ कलाओं में यह कला न केवल गृहिणियों के लिए अपितु व्यवसाय के रूप में भी उपयोगी है। कई ऐसे उत्सवों तथा कार्यों में सजावट के लिए इस कला का उपयोग प्रचलित है। इस प्राचीन कला के बारे में कहा गया है कि - यन्नानावर्णैः पुष्पैः सूचीवानादिबद्धैरभ्यस्यते तदेव, वासगृहोपस्थानमण्डपादिषु यस्य पुष्प्शयनमित्यपरा संज्ञा।
8.    दशनवसनांगरागः (शरीर, केश, नाखून, दन्त तथा वस्त्र आदि को रंगने तथा सजाने की कला ब्वसवनतपदह जीम इवकपमेए ींपतए दंपसेए जममजी ंदक हंतउमदजे पण्म ेजंपदपदहए कलमपदहए बवसवनतपदह ंदक चंपदजपदह जीमउ ):-  यह शास्त्रों में वर्णित चैंसठ कलाओं में  एक उपयोगी कला है। इस कला का उपयोग आजकल भी प्रचलित है। शास्त्रों में इसके बारे में कहा गया है - ‘‘रागशब्दः प्रत्येकं योज्यते। तत्राङ्गरागोऽङ्गमाष्र्टिः कुङ्कुमादिना। रञ्जनविधिरिति वक्तव्ये दशनादिग्रहणमादरार्थम्। विलासिनीनां दशनादिसंस्कारस्यात्यन्ताभीष्टत्वात्। इति।’’
9.    मणिभूमिकाकर्म (फर्श को रंगीन रत्नों और पत्थरों से सजाना थ्पगपदह ेजंपदमक हसंेे पद ं सिववत)ः- यह कला आज व्यवसाय का रूप ले चुका है। प्राय‘ हर मकान में फर्श पर पत्थर, टाइल्स, मार्बल आदि लगाने की प्रथा गाँव एवं छोटे कस्बों तक पहुँच चुकी है। निःसन्देह इस कला की उपयोगिता बरकरार है। शास्त्रों में इस प्राचीन कला के बारे में कहा गया है कि - ’’मणिभूमिका कृतकुट्टिमा भूमिः, ग्रीष्मे शयनापानकार्थं तस्यां मरकतादिभेदेन करणम्।’’
10.    शयनरचनम् (सेज शय्या सजाना जीम ंतज व िउंापदह इमके ):- यह कला भी उपयोगी है। इसका उपयोग न केवल प्रतिदिन घरों में होता है अपितु होटलों आदि में भी इस कला का उपयोग देखा जा सकता है। निश्चित रूप से यह कला उपयोगी है। इस सुन्दर कला के बारे में संस्कृत के शास्त्र कहते हैं कि -शयनीयस्य कालापेक्षया रक्तविरक्तमध्यस्थाभिप्रायादाहारपरिणतिवशाच्च रचनम्।
11.    उदकवाद्यम् (जलवाद्य) :-  इस कला का प्रयोग सांस्कृतिक कार्यक्रमों, पार्कों आदि में होने वाली विशिष्ट अवसरों में देखा जा सकता है। मूलतः यह संगीत कला से ही सम्बन्धित है। जलतरंग आदि वाद्यों का प्रयोग  मनोरंजन के लिए होता है। यह कला संगीत के क्षेत्र में उपयोगी है। कहा भी गया है - उदके मुरजादिवद्वाद्यम्।
12.    उदकाघातः (जलक्रीडा कला च्संलपदह वद उनेपबंस हसंेेमे पिससमक ूपजी ूंजमत ):- यह भी एक उपयोगी कला है। यह भी मूलतः संगीत से जुड़ी हुई कला है। संस्कृत के ग्रन्थों में इस कला के बारे में कहा गया है कि - हस्तयन्त्रमुक्तैरूदकैस्ताडनम्। तदुभयं जलक्रीडाङ्गम्।
13.    चित्राश्वयोगाः (चित्रयोग अर्थात् मन्त्र, तन्त्र एवं औषधियों के प्रयोग की कला):- यह प्राचीन कला है। इसका प्रयोग चिकित्सा के क्षेत्र में किया जाता है। यह कला भी समाज में उपयोगी है। कहा भी गया है - नानाप्रकारदौर्भाग्यैकेन्द्रियपलितीकरणादयः, ईष्र्यया परातिसन्धानार्थाः, तानौपनिषदिके वक्ष्यति। एते च कौचुमारयोगेषु नान्तर्भवन्तीति पृथगुक्ताः। कुचुमारेण तेषामनुक्तत्वात्।
14.    माल्यग्रथनविकल्पाः (फूल मालाएँ गूँथने तथा उनके आभूषण बनाने की कला  ैजतपदहपदह व ितवेंतपमेए  दमबासंबमे ंदक ूमंजीे ):- यह कला एक व्यवसाय का रूप धारण कर चुकी है। जीविकोपार्जन के लिए इस कला का उपयोग आसानी से देखा जा सकता है। प्राचीन शास्त्रों में कहा गया है कि - माल्यानां मुण्डमालादीनां देवतापूजनार्थं नेपथ्यानां ग्रथनविकल्पाः।

15.    शेखरकापीडयोजनम् (शेखरापीड़योजन कला):-  इस कला का उपयोग सजावट के रूप में देखा जा सकता है। उत्सवों के अवसर पर सजावट के लिए इस कला का उपयोग व्यवसाय के रूप में भी होता है। कहा गया है - ग्रथनविकल्प एवायम् किन्तु योजनं कलान्तरम्, तत्र शेखरकस्य शिखास्थानेऽवलम्बनन्यासेन परिधापनात्। आपीडस्य च मण्डलाकारेण ग्रथितस्य काष्ठिका योगेन परिधापनात्। नानावर्णैः पुष्पैर्विरचनं योजनम्। तदुभयं नागरकस्य प्रधानं नेपथ्याङ्गम्।
16.    नेपथ्यप्रयोगाः ( नेपथ्य कला):- यह कला भी सजावट के रूप में प्रचलित है। यह भी उपयोगी है। कहा गया है कि - देशकालापेक्षया वस्त्रमाल्याभरणादिभिः शोभार्थं शरीरस्य मण्डनाकाराः।
17.    कर्णपत्रभंगाः (कर्णपत्र भंग कला):-  इस कला का उपयोग शोभावर्द्धन के लिए किया जाता है। यह भी उपयोगी है। शास्त्रों में वर्णित है कि - दन्तशंखादिभिः कर्णपत्रविशेषा नेपथ्यार्थाः।
18.    गन्धयुक्तिः (सुगन्धित द्रव्य बनाने की कला):- इस कला का उपयोग व्यक्तिगत और औद्योगिक दोनों दृष्टि से उपयोगी है। इत्र, अगरवत्ती आदि के निर्माण में इसका उपयोग है। कहा गया है कि - स्वशास्त्रविहितप्रपंचा प्रतीतप्रयोजनैव।
19.    भूषणयोजनम् (आभूषण धारण करने की कला):-  यह कला प्राचीन है। शारीरिक शोभा में वृद्धि के लिए अलंकारों का प्रयोग प्राचीन काल से होता आ रहा है। इस कला का उपयोग नूतन रूप में भी हो रहा है। शास्त्रों में इसे अलंकारयोग कहा गया है। इति अलंकारयोगः। स द्विविधः - संयोज्योऽसंयोज्यश्च। तत्र संयोज्यस्य कण्ठिकेन्द्रच्छन्दादेर्मणिमुक्ताप्रवालादिभिर्योजनम्। असंयोज्यस्य कटककुण्डलादेर्विरचनं योजनम्। तदुभयं नेपथ्यांगम्। न तु शरीरे भूषणयोजनम्। तस्य नेपथ्यप्रयोगा इत्यनेनैव सिद्धत्वात्।
20.    ऐन्द्रजालाः ( इन्द्रजाल की कला ):- चैंसठ कलाओं में इस कला का उपयोग जादू के रूप में होता है। प्राचीनकाल की यह एक प्रसिद्ध कला है। वर्तमान में कम ही सही पर प्रयोग मिलता है। शास्त्रों के अनुसार - इन्द्रजालादिशास्त्रप्रभवा योगाः। सैन्यदेवालयादिदर्शनादहंभावविस्मापनार्थाः।
21.    कौचुमाराश्चयोगाः (कुचुमार के द्वारा बताये सौन्दर्यवर्धन आदि के प्रयोगों की कला):-  कहा गया है कि -कुचुमारस्यैते सुभगंकरणादयः उपायान्तरासिद्धसाधनार्थाः। वर्तमान में सौन्दर्यवर्द्धक कलाओं के रूप में प्रयोग होता है।
22.    हस्तलाघवम् ( जादूगरी की कला ):-  इस कला का उपयोग मनोरंजन के साधन के रूप में किया जाता है। हाथ की सफाई अचरज में डालने वाली होती है। इस कला के बारे में कहा गया है कि - सर्वकर्मसु लघुहस्तता, कालातिपातनिरासार्थम्। द्रव्यहानिषु वा लाघवं क्रीडार्थं विस्मापनार्थं च।
23.    विचित्रशाकयूषभक्ष्यविकारक्रिया (पाकशास्त्र कला):- नाना प्रकार के साग-सब्जी, जूस और भोजन बनाने की कला के रूप में यह कला घर से लेकर व्यवसाय के क्षेत्र में अत्यन्त उपयोगी है। कई लोग इस कला के जानकार इसे अपने रोजगार के रूप में प्रयोग कर आजीविका चला रहे हैं। यह कला सार्वकालिक और सार्वदेशिक होने के साथ साथ अत्यन्त उपयोगी है।
24.    पानकरसरागासवयोजनम् (पानक रस, लेह्य पदार्थ, आसव बनाने की कला):-यह कला चैंसठ कलाओं में अत्यन्त ही उपयोगी कला है। आहार से सम्बन्धित इस कला में पेय पदार्थ यथा शरबत, शिकंजी आदि के बनाने की कला, चटनी आदि लेह्य पदार्थ बनाने की कला और अचार, मुरब्बा आदि बनाने की कला का समावेश है। इस कला का उपयोग कुशल गृहिणियाँ भारत में प्राचीनकाल से करती आ रही है। आजकल यह कला कुटीर उद्योग के रूप में विकसित हो चुकी है। यह कला निश्चय ही उपयोगी है। प्राचीन शास्त्रों में इस कला के सम्बन्ध में कहा गया है -  चतुर्विधः आहारः, भक्ष्यभोज्यलेह्यपेयमिति। तत्र भोज्यम् -भक्तव्यंजनयोव्र्यञ्जनराधनं प्रायशो न सुज्ञानमिति व्यंजनाग्र्यस्य शाकस्योपादानेन दर्शयति। तत्र शाकं दशविधम्। यथोक्तम् - ‘‘मूलपत्रकरीराग्रफलकाण्डप्ररूढकम्। त्वक्पुष्पं कण्टकं चेति शाकं दशविधं स्मृतम्।।’’ पेयं द्विविधम्- अग्निनिष्पाद्यमितरच्च। तत्र पूर्वं यूषाख्यम्। तच्च द्विविधम् - मुद्गादिनिर्यूहकृतं क्वाथरसं च। भक्ष्यं खण्डखाद्यादि। एषां नानाप्रकाराणां क्रिया पाकविधानेन निष्पादनम्। यदनग्निनिष्पादनं पेयं तद्द्विविधम्- सन्धानकृतमितरच्च। तत्राद्यं द्रावितमद्रावितं च। तत्र यद्गुडतिन्तिडिकादिजलेन संयोज्य क्रियते तद्द्रावितं पानकाख्यम्। यदद्रावकौषधेन तालमोचाफलानि संयोज्य निष्पाद्यते तदद्रावितं रसाख्यम्। आसवग्रहणेनसन्धानमुपलक्षयति। तन्मृदुमध्यतीक्ष्णसन्धानयोजनात्तथाविधमेव निष्पाद्यते। रागग्रहणं लेह्यं सूचयति। तस्य त्रैविध्यात्। तथा चोक्तम् - ‘‘रागो रागविधानज्ञैर्लेह्यश्चूर्णो द्रवः स्मृतः। लवणाम्लकटुस्वाद ईषन्मधुरसंयुतः।’’ इति। एतच्चतुर्विधमास्वाद्यकलायाः प्रपंचितं शरीरस्थित्यर्थम्। योगविभागोऽग्निजानग्निजकर्मदर्शनार्थः। पत्र पाकेन शाकादिक्रिया विना पाकेन पानकादियोजनम्। अन्यथा ह्यास्वाद्यविधिरित्युक्तं स्यात्। तस्मात्कर्मभेदादास्वाद्यविधानज्ञोऽपि द्विविधः, तद्वशादेकापि कला द्विधाकृत्योक्ता।
25.    सूचीवानकर्माणि (सीने-पिरोने की कला):- यह कला सर्वविदित है। सम्पूर्ण संसार इस कला से परिचित है। कुटीर उद्योग के रूप में इस कला का प्रयोग होता है। स्थान-स्थान पर इस कला को सिखाने का काम भी होता है। प्राचीन संस्कृत वाङ्मय में इस कला के बारे में कहा गया है कि - सूच्या यत्सन्धानकरणं तत्सूचीवानं त्रिविधम् - सीवनम्, ऊतनम्, विरचनम्, तत्राद्यं कंचुकादीनाम्। द्वितीयं त्रुटितवस्त्राणाम्। तृतीयं कुथास्तरणादीनाम्। इयं प्रतीतार्थैव।
26.    सूत्रक्रीडा (कढ़ाई-बुनाई की कला):- यह कला भी प्रसिद्ध है। वर्तमान काल में भी यह कला उपयोगी है। शास्त्रों में कहा गया है कि - नालिकासंचारनालादिसूत्राणामन्यथान्यथा दर्शनम्। छित्त्वा दग्घ्वा च पुनरच्छित्त्वादग्ध्वा दर्शनम्, तच्चांगुलिन्यासात्। देवकुलादिदर्शनम्। इत्येवं प्रकारा क्रीडार्थैव।
27.    वीणाडमरूकवाद्यानि (वीणा और डमरू बजाने की कला):- यह कला प्राचीन वाद्य से सम्बन्धित है। वीणा तन्त्री के अन्तर्गत आता है जबकि डमरू आनद्ध के अन्तर्गत। वीणा का वादन अन्य वाद्ययन्त्रों की अपेक्षा कठिन है। संगीत के क्षेत्र में इस कला का उपयोग अतीत से आज तक होते आ रहा है। भारतीय समाज में वीणा और डमरू का सम्बन्ध वाग्देवी सरस्वती और महादेव शिव से सम्बन्धित होने के कारण चिर काल से प्रतिष्ठित है। संस्कृत के ग्रन्थों में कहा गया है कि - वादित्रान्तर्गतत्वेऽपि तन्त्रीवाद्यं प्रधानम्। तत्रापि वीणावाद्यम्। डमरूकवाद्यमावश्यकार्थम्, बालोपक्रमहेतुत्वाद् दुर्विज्ञेयत्वाच्च। ततो ह्यक्षराणि स्पष्टान्युच्चार्यमाणानि श्रूयन्ते।
28.    प्रहेलिका ( पहेली बुझाने की कला):-  बौद्धिक कलाओं में इसकी गणना होती है। यह कला बुद्धि के विकास में उपयोगी है। प्राचीन काल से ही यह एक उपयोगी कला के रूप में लोकप्रिय है। इस कला के बारे में कहा भी गया है - लोकप्रतीता क्रीडार्था वादार्था च।
29.    प्रतिमाला (अन्त्याक्षरी की कला) :- यह कला भी बौद्धिक कलाओं के अन्तर्गत आती है। इसकी उपयोगिता सर्वविदित है। इस कला से वाक्पटुता के साथ साथ मनोरंजन भी होता है। कहा गया है कि - यस्या अन्त्याक्षरिकेति प्रतीतिः। सा क्रीडार्था वादार्था च। यथोक्तम् -‘प्रतिश्लोकं क्रमाद्यत्र सनयाक्षरमन्तिमम्। पठेतां श्लोकमन्योन्यं प्रतिमालेति सोच्यते।।’’
30.    दुर्वाचकयोगाः (कठिन रचना के निर्माण की कला) :- यह एक प्राचीन कला है। कविगण इस कला के सफल प्रयोक्ता रहे हैं। संस्कृत साहित्य में एक-एक अक्षरों से पद्य बनाने की कुशलता कवियों में देखी गई है। शब्दों के खिलाड़ी या शब्दों के जादूगरों के साथ साथ सामान्य जन के लिए भी यह उपयोगी कला है। कहा गया है कि - शब्दोऽर्थतश्च दुःखेनोच्यत इति दुर्वाचकम्। तस्य प्रयोगाः क्रीडार्था वादार्थाश्च। यथा- काव्यादर्शे- दंष्ट्राग्रद्ध्र्या प्राग्यो द्राक्क्ष्मामम्ब्वन्तः स्थामुच्चिक्षेप। देवध्रुट्क्षिद्ध्यृत्विक्स्तुत्यो युष्मान्सोऽव्यात्सर्पात्केतुः।।
31.    पुस्तकवाचनम् (ग्रन्थ-वाचन की कला):-  चैंसठ कलाओं में एकतीसवीं कला के रूप में कथित पुस्तकवाचनम् सदैव एक उपयोगी कला है। शिक्षा जगत् में यह एक प्रतिष्ठित कला है। छात्रों, अध्यापकों के साथ साथ समस्त बुद्धिजीवियों के लिए यह कला उपयोगी है। प्राचीन ग्रन्थों में इस कला के सम्बन्ध में कहा गया है कि - भरतादिकाव्यानां पुस्तकस्थानां श्रृंगारादिरसापेक्षया गीततः स्वरेण वाचनम्। अनुरागजननार्थमात्मविनोदार्थं च।
32.    नाटकाख्यायिकादर्शनम् (नाटक और आख्यायिका का ज्ञान):- साहित्य से सम्बन्धित यह कला अत्यन्त उपयोगी है। नाटकों, काव्यों तथा कथा-कहानियों की सूक्ष्म एवं पारिभाषिक शब्दावलियों के ज्ञान से सम्बन्धित यह कला सर्वदा उपयोगी है। प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में कहा गया है कि - काव्येषु गद्यपद्येषु नाटकस्य बहुप्रपंचत्वात्, आख्यायिकायाश्च प्रधानगद्यत्वाद्दर्शनं परिज्ञानमिति। आदरार्थं विशेषाभिधानम्, काव्यदर्शनमिति नोक्तम्।
33.    काव्यसमस्यापूरणम् (समस्यापूर्ति की कला):- यह साहित्य से सम्बन्धित प्राचीन कला है। छात्रों, अध्येताओं तथा कवियों के लिए यह एक उपयोगी कला है। इस कला के बारे में कहा गया है कि - समस्यते संक्षिप्त इति समस्या। काव्यस्य श्लोकस्य समस्या पाद इत्यर्थः। तस्याः पूरणं क्रीडार्थं वादार्थं च।
34.    पट्टिकावानवेत्रविकल्पाः (वेंत से आसन-चटाई आदि बनाने की कला):- यह कला कुटीर उद्योगों में उपयोगी है। इस कला का उपयोग जीविकोपार्जन के लिए सामान्य जन कर सकते हैं। चटाई, आसनी आदि बनाना मुख्यतः इस कला के अन्तर्गत आता है। कहा गया है कि - पट्टिका छुरिका। पट्टिकाया वानविकल्पाः खट्वाया आसनस्य च वेत्रैर्वानविकल्पाः प्रतीतार्थाः।
35.    तक्षकर्माणि (खरादने एवं मीनाकारी अर्थात् नक्काशी की कला):- यह प्राचीन कला आज भी उपयोगी है। कौशल विकास में इसकी उपादेयता है। इसके बारे में कहा गया है कि - कुन्दकर्माण्यद्रव्यार्थानि।
36.    तक्षणम् (बढ़ईगीरी की कला):- इस कला से सभी परिचित हैं। भारत ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व में इस कला का प्रयोग और उपयोग लकड़ी के सामान बनाने में किया जाता है। यह एक ऐसी कला है जिसका प्रयोग वर्तमान में आजीविका चलाने में कुशल तक्षक करते हैं। इस कला के जानकार लोगों की माँग हमेशा रही है। शिक्षण संस्थानों अभियांत्रिकी के छात्रों को भी यह कला सिखाई जाती है। इस कला के बारे में कहा गया है कि - वर्धकिकर्म। शयनासनाद्यर्थम्।
37.    वास्तुविद्या (मकान बनाने की कला)ः- यह कला एक प्रसिद्ध विद्या के रूप में भारत सहित अधिकांश देशों मे जानी जाती है। मकान बनाना भले ही राजमिस्त्री का काम हो पर इसके अन्तर्गत सम्पूर्ण सिविल इन्जीनियरिंग आती है। यह सदा उपयोगी रही है। कहा गया है - गृहकर्मोपयोगिनी।
38.    रूप्यपरीक्षा (रत्न-परीक्षण कला):- यह कला जौहरी से सम्बन्धित है। विभिन्न प्रकार के रत्नों के परीक्षण से सम्बन्धित यह कला उपयोगी है। कहा गया है कि - रूप्यमाहतद्रव्यं दीनारादि, रत्नं वज्रमणिमुक्तादि, तेषां गुणदोषमूल्यादिभिः परीक्षा व्यवहारांगम्।
39.    धातुवादः (धातुओं के पातन, शोधन, मेलन की कला):-  यह कला प्राचीन है। आज इस कला का उपयोग भूवैज्ञानिक तथा अभियान्त्रिकी के लोग करते हैं। इस कला को शास्त्रों में ‘क्षेत्रवादः’ भी कहा गया है। प्राचीन काल में एक विशेष वर्ग के लोग इस कला का माहिर हुआ करते थे। इसके बारे में कहा गया है कि - ’’स हि मृत्प्रस्तररत्नधातूनां पातनशोधनमेलनादिज्ञानहेतुरर्थार्थः।’’
40.    मणिरागाकरज्ञानम् (पद्मराग आदि मणियों के रंगने एवं खान जानने की कला) :- यह चैंसठ कलाओं में रत्नों से सम्बन्धित कला है। अखिल विश्व में इस कला के जानकार लोगों की माँग है। मानव समाज सदियों से इस कला का अनुरागी रहा है। स्फटिकमणीनां रंजनविज्ञानमर्थार्थं भूषणार्थं च। पद्मरागादिमणीनामत्पत्तिस्थानज्ञानमर्थार्थम्।
41.    वृक्षायुर्वेदयोगाः (वृक्षों के रोपण वर्द्धन आदि की चिकित्सा का ज्ञान) :- यह कला कृषि कर्म से सम्बन्धित एक उपयोगी कला है। इसकी उपयोगिता सर्वविदित है। इसके बारे में प्राचीन ग्रन्थों में कहा गया है कि - रोपणपुष्टिचिकित्सावैचित्र्यकृतो गृहोद्यानार्थाः।
42.    मेषकुक्कुटलावकयुद्धविधिः( भेड़, मुर्गा एवं बटेर की युद्धकला ) :- यह कला मनोरंजन से सम्बन्धित है। ग्रामीण इलाकों में आज भी इस कला का जीवन्त रूप देखा जा सकता है। भारत के आदिवासी समाज में यह कला आज भी प्रचलित है। विदेशों में भी इस कला का प्रयोग देखा गया है। संस्कृत शास्त्रों में इस कला के बारे में कहा गया है कि - ‘‘ सजीवद्यूतविधानमेतम्। तत्रोपस्थानादिभिश्चतुरंगैर्युद्धविधानं क्रीडार्थं वादार्थं च।"

43.    शुकसारिकाप्रलापनम् (तोता-मैना को रटाने-पढ़ाने की कला):- यह कला मनोरंजन से सम्बन्धित है। तोता-मैना को भाषा सिखाने अर्थात् रटाने की कला भारत वर्ष में प्राचीन काल से होते आ रही है। यद्यपि यह कला अभी भी प्रचलित है परन्तु ग्रामीण इलाकों तक ही सीमित होकर रह चुकी है। प्राचीन शास्त्रों में इस कला के बारे में प्रायः चर्चा मिल जाती है। इसके बारे में जयमंगला टीका में कहा गया है - ‘‘ शुकसारिका हि मानुषभाषया प्रलापिताः सुभाषितं पठन्ति सन्देशं च कथयन्ति।’’
44.    उत्सादने संवाहने केशमर्दने च कौशम् (उबटन, मालिश और केश मर्दन की कला) :- यह कला अतीत से आज तक अपने विभिन्न रूपों में प्रचलित है। आज कल शहरों में भी इस कला को रोजगार के रूप में प्रयोग करते हुए आसानी से देखा जा सकता है। इसकी उपयोगिता अनेक विध है। इस कला के बारे में कहा गया है - मर्दनं द्विविधम् -पादाम्यां हस्ताभ्यां च। तत्र पादाभ्यां यन्मर्दनं तदुत्सादनमुच्यते। हस्ताभ्यां यच्छिरोऽभ्यंगकर्मतत्केशमर्दनम्। केशानां तत्र मृद्यमानत्वात्तैरेव तद्व्यपदेशः। शेषांगेषु मर्दनं संवाहनम्। केशग्रहणमत्रादरार्थम्। तत्र कौशलं पराधनार्थम्।
45.    अक्षरमुष्टिकाकथनम् (सांकेतिक कथन की कला):- यह एक बौद्धिक कला है। सांकेतिक कथन या कोड वर्ड के रूप में इस कला को कहा जा सकता है। यह कला सर्वदा उपयोगी रही है। कहा गया है कि -  अक्षराणां मुष्टिरिव मुष्टिका गुप्तिरिति। सा साभासा निराभासा च। तत्र साभासा अक्षरमुद्रेत्युच्यते। तथा कथनं गूढवस्तुमन्त्रणार्थं ग्रन्थसंक्षेपार्थं च। तस्या आचार्यरविगुप्तेन चन्द्रप्रभाविजयकाव्ये प्रकरणं पृथगुक्तम्। द्वितीयेन राशीनां लग्नात्प्रभृति मूर्तिधनसहजबान्धवसुतशत्रुकलत्रनिधनधर्मकर्मायव्यया इति विशेषसंज्ञाः। इतरार्धेन फाल्गुनादयो मासा इति। निराभासा (भूत) मुद्रेत्युच्यते।
46.    म्लेच्छितविकल्पाः (गुप्त भाषा का ज्ञान) :- आधुनिक युग में इस कला का ज्ञान काफी लाभप्रद है। सेना, पुलिस सहित गुप्तचर संस्थाएँ इस ज्ञान पर काम करती हुई आसानी से अपने लक्ष्य को हासिल कर लेती हैं। यह प्राचीन कला उपयोगी है। शास्त्रों में कहा गया है - यत्साधुशब्दोपनिबद्धमप्यक्षरविन्यासादस्पष्टार्थं तन्म्लेच्छितं गूढवस्तुमन्त्रार्थम्। तस्य विकल्पा बहवः पूर्वाचार्योक्ताः।
47.    देशभाषाविज्ञानम् (विभिन्न देश की भाषाओं के ज्ञान की कला):- विश्व में लगभग चार हजार के आस - पास भाषाएँ  बोली जाती हैं। बालियों की संख्या का सिर्फ अनुमान ही किया जा सकता है। सामान्य व्यक्ति तीन-चार भाषाओं के अतिरिक्त अन्य भाषा समझ भी नहीं सकता। इसी प्रकार नौ-दस बोलियों के बाद बस हो जाता है। विभन्न देश की भाषाओं का ज्ञान की कला सर्वथा उपयोगी है। भाषा के ज्ञान से देश-विदेश में न केवल काम करने में आसानी होती है अपितु वहाँ की संस्कृति, संस्कार और साहित्य से भी परिचय मिलता है। निश्चय ही यह उपयोगी कला है। इस कला के बारे में प्राचीन ग्रन्थ कहते हैं - अप्रकाश्यवस्तुज्ञापनार्थं तद्देशीयैव्र्यवहारार्थं च।
48.    पुष्पशकटिका (फूलों से रथ, गाड़ी, पालकी आदि सजाने की कला):- पुष्पशकटिका नामक यह कला आज कल आसानी से एक नूतन रोजगार के रूप में विकसित हो चुकी है। उत्सवों में गाड़ी, घर आदि फूलों से सजाने का रिवाज आज भी है। शादी-व्याह में इस कला का प्रयोग आसानी से देखा जा सकता है। इसके बारे में कहा गया है कि -  पुष्पाणि निमित्तीकृत्याहं प्रणीता।
49.    निमित्तज्ञानम् (शकुन-अशकुन के ज्ञान की कला):- भारतीय समाज में शुभाशुभ की चर्चा प्राचीनकाल से होते आयी है। कब, क्या, कहाँ और कैसे क्या शुभ है और क्या अशुभ इसका ज्ञान आवश्यक माना गया है। इस पर अनेक शास्त्र उपलब्ध होते हैं। वैदिकों और पौराणिकों के साथ साथ बौद्धों एवं जैनियों के यहाँ भी इस कला की कद्र होती है। इस्लाम में भी कहीं कहीं यह देखा गया है। प्राचीन वाङ्मय में इस कला के बारे में कहा गया है कि - ‘‘निमित्तं धर्मक्षमावर्गेऽन्तर्गतं शुभाशुभादेशपरिज्ञानफलम्। तत्र च प्रष्टुरभिज्ञानार्थम्, एवं रूपया स्त्रिया तव सम्प्रयोग इति कामोपहसितप्राया आदेशा इति। निमित्तज्ञानमिति सामान्येनोक्तम्।’’
50.    यन्त्रमातृका (यन्त्र निर्माण कला):- यह कला भी उपयोगी कलाओं में से एक है। कहा गया है कि - सजीवानां निर्जीवानां यन्त्राणां यानोदकसंग्रामार्थं घटनाशास्त्रं विश्वकर्मप्रोक्तम्।
51.    धारणमातृका (स्मरणशक्ति बढाने की कला):-यह कला भी बौद्धिक है। सुनी हुई बातों को याद रखने की यह कला प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध है। इस कला के लिए सुश्रुषा, श्रवण, ग्रहण की प्रक्रिया के बाद धारण की अवस्था आती है। शास्त्रों में इस कला के बारे में कहा गया है कि - ‘‘श्रुतस्य ग्रन्थस्य धारणार्थं शास्त्रम्। यथोक्तम् -‘वस्तु कोषस्तया द्रव्यं लक्षणं केतुरेव च। इत्येते धारणादेशाः पंचांगरूचिरं वपुः।।’’
52.    सम्पाठ्यम् (सामूहिक पाठन की कला)  -  यह कला भी बौद्धिक कला से सम्बन्धित है। सामूहिक पाठन अपने आप में एक सराहनीय कला है। शास्त्रों में इस प्रसिद्ध कला के बारे में कहा गया है - सम्भूय क्रीडार्थं वादार्थं च। तत्र पूर्वधारितमेको ग्रन्थं पठति, द्वितीयस्तमेवाश्रुतपूर्वं तेन सह तथैव पठति।
53.    मानसीकाव्यक्रिया (आशु काव्य कला) :- चैंसठ कलाओं में गणित यह कला बौद्धिक कला से सम्बन्धित है। जो साहित्य और समाज दोनों जगह उपयोगी है। निश्चय ही आशु काव्य करने की कला ज्ञान तथा प्रत्युत्पन्नमतित्व से सम्बन्धित है।  इस कला के बारे बताते हुए शास्त्रों में कहा गया है कि -   मनसि भवा चिन्ता। दृश्यादृश्यभेदविषया द्विधा। तत्र कश्चिद्वयंजनाक्षरैः पद्मोत्पलाद्याकृतिभिर्यथास्थितानुस्वारविसर्जनीययुतैः श्लोकमनुक्तार्थं लिखति। अन्यश्च मात्रासन्धिसंयोगासंयोगच्छन्दोविन्यासादिभिरभ्यासादतीवाक्षरं पठति। इति दृश्यविषया। यदा तु तथैव तानि यथाक्रममाख्यातानि श्रुत्वा पूर्ववदुन्नीय पठति, तदा दृश्यविषया न भवति। सा चाकाशमानसीत्युच्यते। तदुभयं क्रीडार्थं वादार्थं च। काव्यक्रियेति। संस्कृतप्राकृतपभ्रंशकाव्यस्य करणं प्रतीतप्रयोजनम्।
54.    अभिधानकोशः (शब्द-कोश निर्माण कला):- यह कला भी बौद्धिक कला से सम्बन्धित है। विभिन्न प्रकार के उपयोगी शब्दकोशों के निर्माण की कला हमेशा से ही ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में उपयोगी रहा है। वैसे प्राचीन शास्त्रों में इसकी व्याख्या में कहा गया है कि - उत्पलमालादिः।
55.    छन्दोज्ञानम् (छन्द निर्माण कला):- यह कला बौद्धिक विकास से सम्बन्धित है। वैदिक काल से ही इस कला का प्रयोग भारतवर्ष में हो्रते आ रहा है। वैदिक छन्दों के बाद लौकिक छन्दों का प्रयोग प्रारम्भ हुआ। छन्द का ज्ञान काव्य रचना के लिए आवश्यक है। काव्य रचना में यह सदैव लाभप्रद है। न केवल संस्कृत में अपितु अन्य भाषाओं में छन्द का ज्ञान कवियों, लेखकों और बुद्धिजीवियों के लिए उपयोगी है। इस कला के बारे में प्राचीन ग्रन्थों में कहा गया है - पिंगलादिप्रणीतस्यच्छन्दसो ज्ञानम्।
56.    क्रियाकल्पः (काव्यालंकारशास्त्र के ज्ञान की कला) :- यह एक साहित्यिक कला है। इस कला का ज्ञान कवियों, लेखकों के साथ साथ वर्तमान युग में पत्रकारिता के क्षेत्र में उपयोगी है। यह बौद्धिक विकास में साधक है। प्राचीन शास्त्रों में कहा गया है - काव्यकरणविधिः काव्यालंकार इत्यर्थः। त्रितयमपि काव्यक्रियांगम् परकाव्यावबोधार्थं च।
57.    छलितकयोगाः (वेष बदलकर छलने की कला) :-  इस कला की उपयोगिता वेष बदलकर मनोरंजन करने, छलने आदि में किया जाता है। कहा भी गया है - परव्यामोहनार्थाः।
58.    वस्त्रगोपनानि (वस्त्रगोपन कला):- चैंसठ कलाओं में यह कला विशेष रूप प्रशंसनीय है। शास्त्रों में कहा गया है - वस्त्रेणाप्रकाश्यदेशस्य संवरणं यथा तद्भूयमानमपि तस्मान्नापैति। त्रुटितस्यात्रुटितस्येव परिधानम्। महतो वस्त्रस्य संवरणादिनाल्पीकरणम्। इति गोपनानि।
59.    द्यूतविशेषः (विभिन्न प्रकार की द्यूतक्रीड़ा की कला):- यह प्राचीन कला है। इसका उपयोग आजकल विभिन्न प्रकार के उत्सवों में मनोरंजनार्थ किया जाता है। प्राचीन ग्रन्थों में इसके बारे कहा गया है कि - निर्जीवद्यूतविधानमेतत्। तत्र ये प्राप्त्यादिभिः पंचदशभिरंगैर्मुष्टिक्षुल्लकादयो द्यूतविशेषाः प्रतीतार्थाः।
60.    आकर्षक्रीडा (पासा फेंकने-खलने आदि की कला):- यह कला खेल से सम्बन्धित है। लूडो, शतरंज, रस्साकस्सी, चैसर आदि खेलों में इस कला का उपयोग किया जाता है। शास्त्रों में इसे पाशकक्रीडा कहा गया है।
61.    बालक्रीडनकानि (बच्चों के खिलौने बनाने की कला)ः- इस कला की उपयोगिता आज भी है। प्राचीन काल में जहाँ इस कला का उपयोग बच्चों के लिए छोटे-छोटे खिलौने बनाने से सम्बन्धित थी वहीं आज यह कला एक बड़े बाजार पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर चुकी है। मशीन के आने से इस कला को विकास ही मिला है। ग्रामीण क्षेत्रों में पारम्परिक रूप से अभी भी इस कला का उपयोग किया जाता है। कहा भी गया है - गृहकन्दुकपुत्रिकादिभिर्यानि बालानां क्रीडनानि तानि बालोपक्रमार्थानि।
62.    वैनयिकीनाम् (विनय को सिखाने वाली कला):-  यह सर्वजन से सम्बन्धित कला है। इसकी उपयोगिता जीवन जीने की कला के रूप में है। सम्भाषण से सम्बन्धित यह कला अपनी बात को प्रभावोत्पादक ढंग से प्रस्तुत कराना सिखाती है। अनुशासन और विनम्रता के साथ अपनी बात को सहज रूप से रखने का ज्ञान देने वाली इस कला के बारे में कहा गया है -  स्वपरविनयप्रयोजनाद्वैनयिक्य आचारशास्त्राणि हस्त्यादिशिक्षा च।
63.    वैजयिकीनाम् (विजय दिलाने वाली विद्या के ज्ञान की कला):- यह एक प्राचीन कला के रूप में प्रसिद्ध हैं। सैन्य-संगठनों के लिए यह उपयोगी कला है। शास्त्रों में कहा गया है - विजयप्रयोजना वैजयिक्यः। दैव्यो मानुष्यश्च। तत्र दैव्योऽपराजितादयः। मानुष्यो याः सांग्रामिक्यः शस्त्रविद्याः।
64.    व्यायामिकी (कई प्रकार के खेल, आखेट और कसरत करने की कला ज्ञदवूसमकहम व िहलउदंेजपबे):- चैंसठ कलाओं में अंतिम कला के रूप में इस कला का नाम लिया जाता है। यह कला उत्यन्त ही उपयोगी है। इस कला का वर्तमान काल में उपयोग खेल के रूप में दिखाई देता है। साथ ही सर्कस आदि में यह कला जीविकोपार्जन के लिए उपयोगी है। शास्त्रों में कहा गया है - व्यायामप्रयोजना व्यायामिक्यो मृगयाद्याः। एतास्तिस्र आत्मोत्कर्षरक्षणार्था जीवार्थाः।
       हमारे शास्त्रों के अनुसार कुछ भी न बोल पाने वाला गूँगा व्यक्ति भी जिसे करने में समर्थ हो जाए, उसे कला कहते हैं। ऐसा हमारे प्राचीन ग्रन्थों में कहा गया है। जीवन को सुखपूर्वक जीने के लिए, जिन्दगी को बेहतर बनाने के लिए हुनर व कौशल की आवश्यकता होती है। यह कला बुद्धि, विवेक व अभ्यास से आती है। धन-सम्पदा, साधन-सुविधाएँ उसके उपार्जन में सहायक तो हो सकती हैं किन्तु सब कुछ नहीं। इसीलिए कलाहीन को असभ्य कहा जाता है। ऐसा व्यक्ति कल्पनाहीन होता है, रूचिसंपन्न नहीं होता।

             मन पर संयम, पूर्ण स्वास्थ्य और सच्ची प्रसन्नता के लिए जीने की कला का जानना जरूरी है। भोगमात्र को जीवन का लक्ष्य मानने वाले यह कला नहीं सीख सकते। जीवन जीने की कला का सीधा सम्बन्ध अपने अन्दर व समाज में सद्वृत्तियों के संवर्धन व दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन से होता है। हमारे हर काम में उत्कृष्टता हो, हमारे हर ख्याल में बेहतरी हो ताकि जिन्दगी को प्रसन्नता पूर्वक जिया जा सके।


उपर्युक्त वर्णित इन चैंसठ कलाओं को मुख्यतः पाँच वर्गों 71 में विभाजित किया जा सकता है -
1.    चारू (ललितकला):- नृत्य, गीत, वाद्य, चित्रकला, प्रसाधन आदि कलाएँ चारू अर्थात् ललितकला के अन्तर्गत आती हैं।
2.    कारू (उपयोगी कलाएँ):- नाना प्रकार के व्यंजन बनाने की कला, कढ़ाई, बुनाई, सिलाई की कला तथा कुर्सी, चटाई आदि बुनने की कलाएँ ‘‘कारू’’ वर्ग के अन्तर्गत आती हैं।
3.    औपनिषदिक कलाएँ:- औपनिषदिक कलाओं के अन्तर्गत वाजीकरण, वशीकरण, मारण, मोहन, उच्चाटन, यन्त्र, मन्त्रों एवं तन्त्रों के प्रयोग, जादू-टोना आदि से सम्बन्धित कलाओं का परिगणन किया जा सकता है।
4.    बुद्धिवैचक्षण्य कलाएँ - इसके अन्तर्गत पहेली बुझाना, अन्त्याक्षरी, समस्यापूत्र्ति, क्लिष्ट काव्य रचना, शास्त्रज्ञान, भाषाज्ञान, वाक्पटुता, भाषणकला, भेड़-मुर्गा-तीतर-बटेर आदि को लड़ाने की कला, तोता-मैनादि पक्षियों को बोली सिखाने की कला आदि का समावेश होता है।
5.    क्रीड़ा-कौतुक:- क्रीड़ाकौतुक के अन्तर्गत द्यूतक्रीड़ा, शतरंज, व्यायाम, नाट्यकला, जलक्रीड़ा, आकर्षक्रीड़ा आदि से सम्बन्धित कलाओं का परिगणन किया जा सकता है।

          निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि विभिन्न संस्कृत वाङ्मयों में वर्णित चैंसठ कलाएँ न केवल प्राचीन काल में उपयोगी रही हैं अपितु वर्तमान काल में भी इसकी उपयोगिता और आवश्यकता बरकरार है। यद्यपि चैंसठ कलाओं की शिक्षा प्राचीन कालीन ग्रन्थों में महिलाओं के लिए विशेष उपयोगी कहा गया पर आज के दौर में यह लिंग, वर्ण, स्थान, जाति की सीमा को तोड़ते हुए सर्व सामान्य के लिए उपयोगी है। साथ ही भारतवर्ष की इन प्राचीन कलाओं को विशिष्ट रूप से संरक्षित करते हुए भावी पीढ़ी को इसे सिखाने की जिम्मेदारी भी हमारी बनती है। कला हमारे अन्दर कर्मण्यता का भाव जगाती है। हमें कर्मशील बनाती है। इसलिए कर्म को पूजा का पर्याय कहा जाता है। जीवन को कर्मक्षेत्र कहा जाता है। इसलिए जीवन जीने के लिए शैली, नियमों एवं नीति की आवश्यकता होती है। उचित उपाय और तरीके हमारे जीवन को सुन्दर तथा सफल बनाते हैं, बशर्ते हम वह कला जानते हों, जो जीवन जीने के लिए जरूरी है। यदि शिक्षा, ज्ञान, अनुभव तथा नया व अच्छा सीखने की ललक हो तो जीवन जीने की कला आसानी से समझ में आती है, सीखी जा सकती है। इसके लिए सद्गुणों व सदाचरण की आवश्यकता पड़ती है। दुर्गुणों से दूर रहकर व्यसनों को तिलांजलि देनी पड़ती है। सुजीवन का अभिलाषी बनकर सद्बुद्धि बनाए रखने को सजग सचेष्ट रहना पड़ता है।


                                                                 -----------इति शुभम् ---------

                                                                                                              *अध्यक्ष संस्कृत विभाग
                                                                                                                          सह
                                                                                                   अभिषद् सदस्य (सरकार नामित)
                                                                                                   सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय,
                                                                                                        दुमका (झारखण्ड) 814101

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