सबके स्वामी भगवान् पशुपतिनाथ शिव

भगवान शिव की महिमा अपरम्पार है । भगवान शिव असीम हैं, अनंत हैं। शिव रूप रहित हैं । सृष्टि के कण-कण में विराजमान हैं । वेद- पुराण शिव का गान करते हैं । स्कन्ध पुराण के माहेश्वर खण्ड में शिव की अनेक कथाएँ मिलती हैं । शिव में परस्पर विरोधी भावों का सामंजस्य देखने को मिलता है ।मस्तक पर एक ओर चन्द्रमा है जो अमृत का प्रतीक है तो दूसरी ओर गले में विषधर सर्प। अर्धनारीश्वर होते हुए भी कामजित हैं । गृहस्थ होते हुए भी वीतरागी व श्मशानवासी हैं । आशुतोष और सौम्य होते हुए भी भयंकर और रुद्र हैं । इनके आस पास भूत-प्रेत , नंदी-सिंह,  मयूर-सर्प-मूषक का समभाव देखने को मिलता है । शिव स्वयं द्वन्दों से रहित सह-अस्तित्व के महान् विचार के परिचायक हैं । शिवलिंग सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का प्रतीक है ।
शिव के अनंत नाम हैं । इन्हीं नामों में एक नाम है  - पशुपति। समस्त पशु-पक्षियों तथा जीवात्माओं के स्वामी होने के कारण भगवान शिव पशुपति कहलाते हैं । पशुपति का अर्थ होता है पशुओं अर्थात् जीवों के स्वामी । पशुपति समस्त प्राणियों के स्वामी हैं । सम्पूर्ण जैव जगत् के स्वामी हैं । सम्पूर्ण व्यवस्था के प्रथम गुरु हैं । समस्त देवों में मुख्य हैं । सम्पूर्ण सृष्टि के उत्पत्ति कर्त्ता भगवान पशुपति ही हैं । पशु शब्द समस्त सृष्टि का भी वाचक है इसलिए ब्रह्मा से  लेकर स्थावर तक समस्त पदार्थों के स्रष्टा पशुपति ही हैं । जो केवल जैव स्तर पर इन्द्रिय भोगों में लिप्त रहता है वह पशु है। इस प्रकार समस्त जीव पशु हैं । समस्त जीवों के एकमात्र सहारा एवं सबके स्वामी पशुपति ही हैं । पशुपति शिव ने बिना किसी बाहरी कारण, साधन या सहायता के इस संसार का निर्माण किया है । इस प्रकार शिव जगत् के स्वतंत्र कर्त्ता हैं । हमारे कार्यों के मूल कर्त्ता भी शिव ही हैं । समस्त कार्यों के कारण भी हैं । विषय वासना संसार के मल हैं । यही विषय वासना जीवों का पाश अर्थात् बन्धन है। इस पाश अथवा  बन्धन से मुक्ति शिव की कृपा से ही होती है । परमैश्वर्य की प्राप्ति और समस्त दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति पशुपति शिव की कृपा से ही जीव को मिलता है ।
यद्यपि निराकार रूप में पशुपति शिव  समस्त जीवों के अधिपति हैं  
तथापि उनके साकार रूप का वर्णन भी नेपाल माहात्म्य और हिमवतखंड  में मिलता है । इसके  अनुसार एक बार भगवान शिव कृष्णमृग का रूप धारण कर बागमती नदी के किनारे मृगस्थली में जाकर घोर निद्रा में चले गए । देवताओं ने बेचैनी से उन्हें ढूंढ़ना शुरू किया और अंत में शिव को मृगरूप में सोया देख आश्चर्य चकित हुए । देवताओं ने भगवान शिव को काशी लाने का प्रयास किया पर मृगरूपधारी शिव ने बागमती नदी के दूसरे किनारे पर छलांग लगा दी । इस कारण मृग  का सींग चार टुकड़ों में टूट गया । भगवान पशुपति चतुर्मुख लिंग के रूप में प्रकट हुए । आज भी बागमती नदी के किनारे देवपाटन (काठमाण्डू, नेपाल) में भगवान पशुपति का चतुर्मुखलिंग पशुपतिनाथ मंदिर में विराजमान है ।

प्रस्तुति: डॉ धनंजय कुमार मिश्र
अध्यक्ष स्नातकोत्तर संस्कृत  विभाग 
एस पी कालेज दुमका

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