सूक्तयः
(1)
युगे युगे च ये धर्माः
तत्र तत्र च ये द्विजाः।
तेषां निन्दा न कर्तव्या
युगरुपा हि ते द्विजाः॥
अर्थात- प्रत्येक युग में जैसा धर्म होता है तदाचारणाचरित द्विज होते हैं, उनकी निंदा नहीं करनी चाहिए क्योंकि प्रति युग के अनुरुप ही द्विज होते हैं। (पराशर स्मृति)
(2)
लोभमूलानि पापानि
संकटानि तथैव च।
लोभात्प्रवर्तते वैरं
अतिलोभात्विनश्यति।।
अर्थात- लोभ पाप और सभी संकटों का मूल कारण है, लोभ शत्रुता में वृद्धि करता है, अधिक लोभ करने वाला विनाश को प्राप्त होता है ।
(3)
अनित्यानि शरीराणि
विभवो नैव शाश्वतः।
नित्य: संनिहितो मृत्युः
कर्तव्यो धर्मसङ्ग्रहः॥
अर्थात् :- शरीर अनित्य है; धन भी शास्वत नही है; और मृत्यु निश्चित है, इसलिए धर्म का संग्रह करना चाहिए ।
(4)
यस्मिन् वंशे समुत्पन्नः तमेव निजचेष्टितैः।
दूषयत्यचिरेणैव धुणकीट इवाधमः॥
अर्थात् :- घुन (उधई) जिस स्थान पर उत्पन्न होता है वहीं अपने दुष्ट आचरण से दूषित कर देता है ठीक वैसे ही अधम मानव जिस कुल में उत्पन्न होता है उसे अपने हि दुष्ट कृत्य से अल्प समय में ही दूषित कर देता है।
(5)
शैले शैले न माणिक्यं
मौक्तिकं न गजे गजे।
साधवो न हि सर्वत्र
चन्दनं न वने वने
अर्थात् - सभी पर्वतोंमें मणियाँ नहीं होतीं, सभी हाथियों के मस्तकमें मोती नहीं होते, साधु पुरुष सभी स्थानोंमें नहीं मिलते और चन्दन सभी वनोंमें नहीं पाया जाता ।
(6)
रत्नाकरधौतपदां
हिमालयकिरीटिनीम्।
ब्रह्मराजर्षिरत्नाढ्याम्
वन्देभारतमातरम्।।
अर्थात् - जिनके पैर समुद्र द्वारा धोये जाते है और जो हिमालय से सुशोभित है, वह जो कई ब्रह्मर्षियो और राज ऋषियों से भरा है, ऐसी मेरी भारत माता को अभिनंदन, वंदन, नमन।
(7)
यस्तु संचरते देशान्
यस्तु सेवेत पण्डितान्।
तस्य विस्तारिता बुद्धि:
तैलबिन्दुरिवाम्भसि॥
अर्थात् - भिन्न देशों में यात्रा करने वाले और विद्वानों के साथ संबंध रखने वाले व्यक्ति की बुद्धि उसी तरह बढ़ती है, जैसे तेल की एक बूंद पानी में फैलती है।
(8)
अनवस्थितकायस्य
न जने न वने सुखम्।
जनो दहति संसर्गाद्
वनं संगविवर्जनात्॥
अर्थात् - जिसका चित्त स्थिर नहीं होता, उस व्यक्ति को न तो लोगों के बीच में सुख मिलता है और न वन में ही ।
लोगो के बीच में रहने पर उनका साथ जलता है तथा वन में अकेलापन जलाता है ।
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