आधुनिक युग में स्वामी विवेकानन्द की प्रासंगिकता


                                                                                                                       धनंजय कुमार मिश्र*

इस संसार में मनुष्य योनि से बढ़कर और कुछ भी नहीं। मनुष्य प्रयास से अपने अन्दर दैवी गुणांे को समाहित करने मंे समर्थ है तथा पाश्विक वृत्ति को स्वीकार कर वह समस्त ब्रह्माण्ड मंे खुद को पतित सिद्ध कर सकता है। मूल्य परायण सुसंस्कृत व्यक्तित्व का निर्माण मनुष्य का लक्ष्य होता है जो परिवार से विश्व तक सुख-शांति और समृद्धि का वातावरण प्रशस्ततर करता है। जबतक मूल्य के स्वरूप का बोध नहीं होता है, कार्य रूप मंे स्वीकार नहीं किया जाता, अपने अन्दर उसे गुम्फित न किया जाता तब तक सुसंस्कृत व्यक्तित्व का निर्माण असंभव है।
            मानव मन की दो गतियाँँ होती हैं - प्रवृत्ति और निवृत्ति। इन दोनों मंे निवृत्ति श्रेष्ठ होती है परन्तु यदि प्रवृत्ति लोकपरायणा या लोकोपकारिका हो तो वह भी श्रेयस्करी समझी जाती है। खुद को छोड़ परोन्मुखी भाव हीं मानवीय चेतना होती है। महान ऋृषि-मुनि तपस्वी महात्मा जीवन के सम्यक् संचालन के लिए जिस मार्ग को स्वीकार करते हैं वही आजतक हमारे आदर्श मानवमूल्य और अक्षयनिधि हैं क्योंकि “महाजनो येन गतः सः पन्था” अर्थात् महापुरूषांे के अपनाए मार्ग हीं हमारेे जीवन को लक्ष्य प्राप्त कराने वाले पथ हैं।
                   भारतवर्ष धर्मप्राण देश है और भारतीय संस्कृति धार्मिक भावनाओं से ओत-प्रोत है। भारतीय धर्म का आधारपीठ है- आस्तिकता, सर्वशक्तिशाली भगवान की जागरूक सŸाा में अटूट विश्वास। धर्म के प्रमुख चार अंग या विषय हैं। प्रथम अंग आचार विषयक है तो द्वितीय व्यवहार सम्बन्धी। तीसरा विषय प्रायश्चित और चैथा कर्मफल।
                 आज भारतवर्ष को स्वतन्त्रता प्राप्त किये छः दशक बीत गये।वैज्ञानिक प्रगति के साथ-साथ भौतिक प्रगति भी हुई परन्तु कहीं न कहीं धार्मिक भावना का हªास हुआ फलस्वरूप चारित्रिक पतन यत्र-तत्र-सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। हिंसा, अपहरण, उत्कोच, भ्रष्टाचार, व्यभिचार इत्यादि घटनाओं का अम्बार लगा है। युवाशक्ति के विवेक का जागरण आवश्यक है। एतदर्थ वैश्वीकरण के आधुनिक युग में स्वामी विवेकानन्द की प्रासंगिकता और भी बढ़  जाती है।
     प्रस्तुत शोध-पत्र में स्वामी विवेकानन्द के विचारों के आधार पर विभिन्न मानवीय मूल्यों की प्रासंगिकता पर विचार किया गया है। साथ हीं उपनिषद् वाक्य  ‘‘उŸिाष्ठत जाग्रत प्राप्यवरान्निबोधत’’  सहित स्वामीजी द्वारा बताये गये राष्ट्र की महŸवपूर्ण आवश्यकता शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, आध्यात्म, धर्म आदि के सन्दर्भ में  विभिन्न ग्राह्य तŸवों पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।
                     सर्वविदित है कि स्वामी विवेकानन्द (1862-1902) का मूल नाम नरेन्द्र दŸा था और वे कलकŸाा विश्वविद्यालय के स्नातक थे। आध्यात्मिक जिज्ञासा के कारण हीं वे श्री रामकृष्ण के सम्पर्क में आए और उनसे प्रभावित होकर उनके शिष्य बन गए। मन्दिर के पुजारी उनके गुरू स्वामी राकृष्ण परम हंस परम्परागत तरीके से संन्यास, ध्यान और भक्ति के द्वारा मोक्ष प्राप्त करने में विश्वास रखते थे। भारतीय आस्तिक दर्शनों में उनकी अपार श्रद्धा थी और समस्त धर्मो की मौलिक एकता में अटूट विश्वास। वे मानव सेवा को ईश्वर की सेवा मानते थे। अपने गुरू के प्रकाशलीन होने के बाद विवेकानन्द ने संन्यास धारण कर लिया और धार्मिक ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया।
                 स्वामी विवेकानन्द के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। स्वामी जी के विचारों के अन्तस्तल में जाने से पूर्व हमें यह समझना होगा कि स्वामी जी को द्वन्द्व की स्थिति से निकालने वाले उनके गुरू ‘रामकृष्ण’ मूŸिापूजक थे और उसे शाश्वत, सर्वशक्तिमान ईश्वर को प्राप्त करने का एक साधन मानते थे। कर्मकाण्ड की अपेक्षा आत्मा पर अधिक बल देते थे। ईश्वर प्राप्ति के लिए उसके प्रति निःस्वार्थ और अनन्य भक्ति में विश्वास रखते थे। तान्त्रिक, वैष्णव और अद्वैत तीनों प्रकार की साधना करने वाले परमहंस ने निर्विकल्पक समाधि की स्थिति को प्राप्त कर ली थी। स्वाभाविक है कि स्वामी विवेकानन्द के विचार अपने गुरू से प्रभावित थे। इसकी झलक बार-बार दिखाई पड़ती है।
                          1893 में ‘शिकागो’ में हुई ‘पार्लियामेन्ट आॅफ रिलीजन्स’ में अपनी विद्वतापूर्ण विवेचना के द्वारा उन्होंने पूरी दुनियाँ का ध्यान अपनी ओर खींचा और उनके अद्वितीय ताŸिवक विवेचन के सारे लोग क़ायल हुए। उस भाषण का मूल तŸव था कि मानव को भौतिकवाद तथा अध्यात्मवाद के बीच एक स्वस्थ संतुलन स्थापित करना है। सम्पूर्ण संसार के लोगों को प्रसन्नता तभी प्राप्त होगी जब पश्चिम के भोैतिकवाद और पूरब के अध्यात्मवाद का उनके जीवन में मिश्रण नीर-क्षीरवत् हो। सामंजस्यपूर्ण सम्मिश्रण ही विश्व के लिए कल्याणप्रद हो सकता है। उपनिषद् का आर्ष वाक्य ‘‘तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः’’ की नई एवं प्रभावकारी व्याख्या जो स्वामीजी के द्वारा प्रसूत इुई, निःसन्देह आज भी अनेक समस्याओं के निराकरण में प्रभावकारी भूमिका अदा कर सकती है।
                         स्वामी विवेकानन्द ने अपने लेखों एवं भाषणों के जरिए जो विचार प्रस्तुत किया है उसमें मुख्यतः ‘‘आत्मविश्वास’’ ‘‘आत्मगौरव की भावना’’ एवं ‘‘भारतीय संस्कृति में नूतन विश्वास’’ पर काफी बल दिया है। उनके इन्हीं तथ्यों को देखकर कहा जा सकता है कि  स्वामी जी पक्के ‘‘राष्ट्रवादी’’ थे। इसी कारण महान् स्वतन्त्रता सेनानी सुभाष चन्द्र बोस ने स्वामी विवेकानन्द को आधुनिक राष्ट्रीय आन्दोलन का ‘‘आध्यात्मिक पिता’’ कहकर सम्बोधित किया। विवेकानन्द के विचारों  के तथ्य शाश्वत हैं और आज भी आत्मसात करने योग्य हैं। स्वामी जी का लक्ष्य समाज में समताभाव को स्थापित करना था, अतएव वे दलितों, गरीबों, शोषितों के प्रति अत्यन्त संवेदनशील थे। आज भी समाज एवं राष्ट्र का एकांगी विकास हीं दिखाई दे रहा है। समाज और राष्ट्र के सर्वांगीण विकास के लिए दलितों, गरीबों, शोषितों के प्रति समाज के धनाढ्य कुबेरों  को अपनी मानसिकता बदलने की जरूरत है। स्वामीजी का यह कथन कि दरिद्र ही देवता हैं, नर सेवा हीं नारायण सेवा है आदि राष्ट्र में विषमता की खाई को पाटने में महŸवपूर्ण योगदान दे सकता है। ‘‘मानवता की सेवा’’ ही हमारे धर्म का मूल है अतएव उसे अपनाना हीं श्रेयष्कर होगा। नक्सवाद, उग्रवाद एवं भष्टाचार के उन्मूलन में यह विचारधारा कारगर सिद्ध हो सकती है। हमें मनसा-वाचा-कर्मणा स्वामी जी के इस उद्देश्य को अंगीकार करना पडे़गा तभी समाज, राष्ट्र और अखिल विश्व का कल्याण सम्भव है।
                       विवेकानन्द प्रबल मानवतावादी थे। इन्हीं भावनाओं से अभिभूत होकर उन्होंने कहा - ‘‘एकमात्र भगवान जिसमें मैं विश्वास करता हूँ वह है सभी आत्माओं का कुल योग और सबसे पहले मेरे भगवान सभी जातियों के कुष्ठपीड़ित, दरिद्र हैं।’’ इसी सन्दर्भ में उन्होंने कहा - ‘‘जब तक करोड़ों लोग भूख और अज्ञान से पीड़ित हैं तब तक मैं उस हर व्यक्ति को देशद्रोही समझूँगा जो उनके खर्च से शिक्षित बनकर उनके प्रति तनिक भी ध्यान नहीं देता।’’
                       स्वामी जी ने अपनी मानवतावादी विचार धारा के कारण हीं ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की। आज भी मिशन के कार्य सराहनीय हैं। मेरी मान्यता है कि सम्पूर्ण राष्ट्र में मानवतावादी विचारधारा को बल मिलना चाहिए तभी भारतवर्ष विकसित कहा जा सकता है।
                           स्वामी जी का इहलौकिक धर्म आत्म-सहायता एवं पौरूष-शक्ति के निर्माण पर बल देने वाला है। उनका कथन - ‘‘ आज हमारे देश को आवश्यकता है लोहे के स्नायुओं एवं इस्पात की नाड़ियों की।’’  यह कथन क्या आज प्रासंगिक नहीं है? मित्रो! अक्षरशः प्रासंगिक है। विल्कुल प्रासंगिक है। ‘दद्रिनारायण’ की परिकल्पना विषमता को दूर करने वाली है। इसे अपनाना आज का ‘राष्ट्र धर्म’ और ‘राज धर्म’ दोनों होना चाहिए। स्वामी जी का यह कथन -‘‘ निम्न वर्गो को मत भूलो, उन्हें मत भूलो जो अज्ञानी, दरिद्र और अनपढ़ हैं - मोची और मेहतर हैं, वे भी तुम्हारे हीं रक्त-मांस हैं, तुम्हारे हीं बन्धु हैं।’’ उनकी यह उक्ति माननीय सांसदों, विधायकों और तथाकथित जनप्रतिनिधियों को हीं नहीं प्रख्यात उद्योगपतियों, पूँजीपतियों एवं बुद्धिजीवियों को भी अपनाना होगा अन्यथा जो वर्Ÿामान में हो रहा है वह कितना दुःखद है, यह किसी से छिपा नहीं। स्वार्थ को त्यागना और परमार्थ पर चलना ही आज भी श्रेयष्कर है।
                              अन्ततः कहा जा सकता है कि स्वामी जी के विचार आज न केवल प्रासंगिक हैं वरन् उपादेय भी हैं। भारतवर्ष का स्वर्णिम भविष्य इन्हीं मार्गो से होकर गुजरता है, अतएव विवेकानन्द के पथ का हमें अनुगामी बनना पड़ेगा। निश्चय ही इस पथ पर चलकर  हम वर्Ÿामान समस्याओं से निज़ात पा सकते हैं क्योंकि भारतीय संस्कृति भी यही उपदेश करती है -
‘‘ अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।’’

इस पर चलकर ही हम गर्व से कह सकते हैं -
‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः            सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु   मा कश्चिद् दुःखभाग भवेत्।।’’

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*विभागाध्यक्ष                               
संस्कृत विभाग, एस0पी0 काॅलेज,                                    
सिदो-कान्हु मुर्मू विश्वविद्यालय,                                    

दुमका, झारखण्ड - 814101                                        

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