भर्तृहरि का नीतिशतक




         Dr. D.K.MISHRA, 

          HOD SANSKRIT, 

    S K M UNIVERSITY DUMKA, JHARKHAND 


नीतिशतक संस्कृत साहित्य का एक अनुपम ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के रचयिता भर्तृहरि हैं। नीतिशतक जितना विख्यात और प्रचलित ग्रन्थ है इसके रचयिता भर्तृहरि का व्यक्तित्व उतना ही किंवदन्तियों से घिरा अप्रमाणिक और अपुष्ट है। दन्तकथा के अनुसार भर्तृहरि को राजा विक्रमादित्य का बड़ा भाई माना जाता है। कुछ लोग नीतिशतक के रचयिता भतृहरि और वाक्यपदीय के रचनाकार महावैयाकरण भर्तृहरि को एक मानते हैं तो कुछ लोग अलग। कोई पुष्ट प्रमाण नहीं मिलने के कारण इस विषय पर अधिक कहा नहीं जा सकता है। इनके समय के बारे में भी स्पष्टतः कुछ कहा नहीं जा सकता। भतृहरि के सम्बन्ध में एक कथा प्रायः यह कही जाती है कि राजा भर्तृहरि अपनी पत्नी के आचरण से रुष्ट होकर संन्यासी हो गये और अपना राजपाट अपने छोटे भाई विक्रमादित्य को सौंप दिया। नीतिशतककार भर्तृहरि ने तीन शतकग्रन्थों की रचना की है जो श्रृंगारशतक, वैराग्यशतक और नीतिशतक के नाम से प्रसिद्ध है। इनके शतकग्रन्थों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि इनका सम्बन्ध राजघराने से अवश्य था। धार्मिक दृष्टि से भतृहरि को शैव माना जा सकता है क्योंकि वे शिव को ब्रह्मरूप अन्तिम सत्य का उत्कृष्टतम पूर्ण रूप समझते हैं।
 जैसा कि कहा जा चुका है नीतिशतक एक अनुपम ग्रन्थ है। वस्तुतः यह मुक्तक गीतिकाव्य है। इस ग्रन्थ में कवि ने जीवन के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया है जिससे लाभान्वित होकर सामान्य व्यक्ति भी अपने जीवन को सम्यक् और सुचारू रूप से व्यतीत कर सकता है। इस लघुकाय ग्रन्थ में मानवीय मूल्यों की एक श्रृंखला है जो मानव जीवन का पाथेय स्वरूप है। मूर्ख निन्दा, विद्या की महत्ता विनम्रता, न्याय, धैर्य, सुन्दर वाणी, दान का महत्त्व, अनालस्य, उद्यम इत्यादि अनेक मानवीय मूल्यों को सुन्दर सुन्दर गेय पद्यों के द्वारा प्रस्तुत कर भर्तृहरि संस्कृत साहित्य में अमर हो गये हैं। कुछ प्रसिद्ध पद्य द्रष्ट्व्य हैं। यथा - विद्या के बारे में कवि भर्तृहरि का कितना उदात्त विचार है जिसमें वह विद्यारूपी धन को समस्त धनों में उत्तम माना है -
‘‘विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनं
 विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरूः।
  विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतं   विद्या राजसु पूजिता न तु धनं विद्याविहीनः पशुः।।’’

अर्थात् विद्या मनुष्य का सबसे सुन्दर स्वरूप है, छिपा हुआ धन है। विद्या भोग, कीर्ति एवं सुख देने वाली तथा गुरूओं की भी गुरू है। विद्या विदेश में भाई के समान है और परम भाग्य है। विद्या राजाओं में पूजित है न कि धन। विद्या से विहीन मनुष्य पशु के समान होता है।
इसी प्रकार न्यायपथ के बारे में भतृहरि कहते हैं -
‘‘निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु
        लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
    अद्यैव वा मरणमस्तु     युगान्तरे वा
        न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।।’’
 अर्थात् नीतिनिपुण व्यक्ति चाहे निन्दा करें या स्तुति, लक्ष्मी पास आए या दूर चली जाय, मौत आज हो या युगों बाद परन्तु धीर पुरूष न्याय के रास्ते से विचलित नहीं होते।
विनम्रता के बारे में कवि का मन्तव्य द्रष्ट्व्य है कि परोपकारियों का यह स्वभाविक गुण है। कवि के ही शब्दों में -
‘‘भवन्ति नम्रास्तरवः फलोद्गमैः नवाम्बुभिर्भूमिविलम्बिनो घनाः।
अनुद्धताः सत्पुरूषाः समृद्धिभिः।                स्वभाव एवैष परोपकारिणाम्।।’’

अर्थात्  फलों के लगने पर वृक्ष झुक जाते हैं, नए जल से भरा हुआ मेघ भूमि की ओर लटक जाते हैं, सज्जन पुरूष समृद्धि में स्वभावतः विनम्र हो जाते हैं। विनम्रता परोपकारियों का मौलिक स्वभाव है।
दान के बारे में भतृहरि कहते हैं -
‘‘दानं भोगो नाशस्तिस्रो     गतयो भवन्ति वित्तस्य।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति।।’’
अर्थात् धन की तीन ही गति होती है - दान, भोग और नाश। जो व्यक्ति न दान देता है और न उपभोग हीं करता है उसके धन की तीसरी गति होती है अर्थात् धन का नाश होता है।
आलस्य को हेय और उद्यम को उपादेय मानते हुए कवि कहता है -
.  ‘‘आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।
नास्त्युद्यमसमो  बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।।’’
अर्थात् आलस्य मनुष्यों के शरीर में स्थित सबसे बड़ा शत्रु है। परिश्रम के समान कोई बन्धु नहीं, जिसे करने से मनुष्य दुःख नहीं पाता।

       निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि भर्तृहरि का व्यक्तित्व भले ही अन्धकार के काले बादल से ढका हुआ है परन्तु इनकी कविता संस्कृत को उत्कृष्ट रूप प्रदान करती है। इनके नीतिशतक का प्रत्येक पद्य अपने आप में पूर्ण है। इनकी कल्पना उदात्त है। शब्द विन्यास रसानुकूल और पदों में अद्भुत लालित्य। पद्यों में गेयता है। खण्डकाव्य का व्यावहारिक स्वरूप नीतिशतक में दृष्टिगोचर होता है। अन्ततः कहा जा सकता है कि नीतिशतक हर दृष्टि खरा है।

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