वेदांग का सामान्य परिचय

Dr. D.K.MISHRA
HOD SANSKRIT 
S K M UNIVERSITY DUMKA
JHARKHAND 814110


        विश्व की समस्त भाषाओं में संस्कृत अत्यन्त प्राचीन और समृद्ध भाषा है। प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति का अक्षुण्ण भण्डार इसी भाषा में निहित है। मुख्यतः यह भाषा दो रूपों में प्राप्त होती है - वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत। पाणिनि के व्याकरण से अनुशासित भाषा लौकिक संस्कृत है जबकि आर्ष परम्परा वैदिक भाषा में है। वैदिक भाषा में ऋक्, यजुः, साम व अथर्व चारों वेद, ब्राह्मण-ग्रन्थ, आरण्यक और उपनिषद् निबद्ध हैं।
     वैदिक वाङ्मय को समझने के लिए जिन ग्रन्थों की रचना की गई, वह वेदांग कहलाया। वेदांग वेद या वेद के भाग नहीं हैं अपितु वेदों के अर्थों के अनुशीलन में सहायक हैं। वस्तुतः वेदांग एक अलग शास्त्रीय परम्परा है, जिनकी छः धारााएँ हैं। इसके अन्तर्गत शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, ज्योतिष और छन्द-शास्त्र का समावेश है-
‘‘शिक्षा कल्पोऽथ व्याकरणं निरूक्तं छन्दसा च यः।
ज्योतिषामयनं चैव वेदाङ्गानि षडैव तु।।’’
इसे वेद पुरुष का अंग कहा गया है। इनमें वेद के पैर छन्द हैं, हाथ कल्प हैं, नेत्र ज्योतिष हैं, कान निरूक्त है, नासिका शिक्षा है और मुख व्याकरण है। अंगों सहित वेदों का अध्ययन करके ही व्यक्ति ब्रह्मलोक में महिमा को प्राप्त करता है -
‘‘छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते।
ज्योतिषामयनं चक्षुः निरूक्तं श्रोत्रमुच्यते।।
शिक्षा घ्राणं तु वेदस्यमुखं व्याकरणस्मृतम्।
तस्मात्साङ्गमधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते।।’’
     संक्षेप में वेदांगों को हम इस प्रकार समझ सकते हैं -

1.    शिक्षा:- इसमें उच्चारण की प्रक्रियाओं और विशेषताओं को बताया गया है। प्रत्येक वेद के लिए अलग-अलग शिक्षा-ग्रन्थों की रचना की गयी थी। उपलब्ध शिक्षा ग्रन्थों में ‘‘याज्ञवल्क्य शिक्षा’’ यजुर्वेद के लिए, ‘‘नारदीय शिक्षा’’ सामवेद के लिए तथा ‘‘माण्डूकी शिक्षा’’ अथर्ववेद के लिए उपलब्ध होती है। ‘‘पाणिनीय शिक्षा’’ सभी वेदों के अध्ययन के लिए सहायक है।

2.    कल्पः- इसमें वैदिक कर्मकाण्डों, यज्ञ के अनुष्ठानों आदि का विवेचन है। वेदांग साहित्य में इसका बहुत अधिक महत्त्व है। कल्प को कल्पसूत्र भी कहा जाता है। कल्प शब्द का अर्थ है - विधि, नियम, न्याय, कर्म और आदेश। कल्पसूत्रों को चार भागों में विभक्त किया गया है - श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र, धर्मसूत्र और शुल्बसूत्र। सूत्र ग्रन्थों में प्रतिपादित नियम आज भी सनातन समाज की आधारशिला है तथा उसको नियंत्रित करने में मुख्य भूमिका का निर्वहन करते हैं।
3.    व्याकरण:- इसमें शब्दों के स्वरूप, रचना आदि का बोध होता है। वेदों के अर्थों को समझने के लिए व्याकरण का ज्ञान अनिवार्य है। षड् वेदांगों में व्याकरण सबसे प्रमुख है, अतः इसे वेद पुरुष का मुख कहा गया है। व्याकरण के पाँच मुख्य प्रयोजन हैं - रक्षा, ऊह, आगम, लघु और असन्देह। ध्यान देने योग्य बात यह है कि वैदिक व्याकरण की रचना पाणिनि से बहुत पहले हो चुकी थी और व्याकरण से तात्पर्य यहाँ वैदिक व्याकरण से है।

4.    निरूक्त:- वेदांगों में चौथा नाम ‘निरूक्त’ का आता है। इसमें शब्दों की व्युत्पत्ति (निर्वचन) और उनके अर्थों को समझाया गया है। निरूक्त पर अनेक ग्रन्थ लिखे गये, परन्तु वत्र्तमान में एक मात्र ‘यास्क’ रचित निरूक्त ही उपलब्ध है। यह वैदिक कठिन शब्द संग्रह ‘निघण्टु’ पर आधारित है।

5.    छन्द:- वेदों का पाँचवाँ अंग छन्द है। इसमें वैदिक छन्दों की विवेचना की गई है। वेद मन्त्रों के शुद्ध पाठ के लिए एवं अर्थों को जानने के लिए छन्दों को जानना अनिवार्य है। ऋग्वेद और सामवेद के सभी मन्त्र छन्दों में निबद्ध हैं। यजुर्वेद और अथर्ववेद के अधिकांश भाग भी छन्दों में ही हैं। प्रमुख वैदिक छन्द गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप् और जगती हैं। इसमें क्रमशः 24, 28, 32, 36, 40, 44 और 48 अक्षर होते हैं। कात्यायन की सर्वानुक्रमणी में छन्दों के सम्बन्ध में विस्तार से बताया गया है। पिंगल का छन्दशास्त्र इस वेदांग का प्रतिनिधि ग्रन्थ है।

6.    ज्योतिष्:- वेदांगों में छठा एवं अन्तिम वेदांग ज्योतिष् है। इसमें समय, नक्षत्र आदि की गणना की जाती है। वेदांग ज्योतिष् शास्त्र के रूप में लगध रचित वेदांग ज्योतिष् उपलब्ध है। वेदांग ज्योतिष् में समय की गणना 27 नक्षत्रों के आधार पर की गई है। इसमें राशियों का उल्लेख नहीं है।
     निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि वेदांग साहित्य उत्तर वैदिक युग की देन है। समस्त वेदांग साहित्य 1500 ई0पूर्व से 500ई0पूर्व में रचित है। वेदों के स्वरूप की रक्षा करने के लिए और उनके अर्थों को समझने के लिए भारतीय ऋषियों का यह अमूल्य उपहार है।
                                     


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