प्रकृति की पूजा है चौरचन पर्व




भादो महीना के शुक्ल पक्ष चतुर्थी  को जहाँ गणेश चतुर्थी का पर्व धूम धाम से मनाया जाता है वहीं मिथिलांचल में आज की तिथि को चौरचन पर्व के रूप में मनाने की काफी पुरानी परंपरा है। मिथिला में चौरचन का त्योहार पूरे धूमधाम से मनाया जाता है। चौरचन को चौठचंद्र भी बोलते हैं। अपभ्रंश भाषा में चोरचण्डा  इसे ही कहते हैं ।मिथिला में मनाया जाने वाला चौठचंद्र ऐसा त्योहार जिसमें चांद की पूजा बड़े धूमधाम से की जाती है। मिथिला के अधिकांश त्योहारों का नाता प्रकृति से जुड़ा होता है। ये व्रत पुत्र की दीर्घायु के लिए किया जाता है। झारखण्ड के  गोड्डा, दुमका, देवघर सहित न केवल संताल परगना में अपितु राँची, बोकारो, धनबाद, जमशेदपुर  आदि शहरों में भी बड़ी संख्या में मिथिलावासी रहते हैं। ऐसे में ये पर्व यहां भी बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। प्रायः यह व्रत महिलाएं ही करती हैं ।

 चौरचन के दिन मिथिला की महिलाएं पूरे दिन उपवास करती हैं। इसके साथ ही शाम को भगवान गणेश की पूजा के साथ चांद की विधि विधान से पूजा कर अपना व्रत तोड़ती हैं। पूजा स्थल पर पिठार (पीसे चावल से) से अरिपन बनाया जाता है। फिर उसी अरिपन पर बांस से बने डाली (पथिया) में फल , पिरुकिया, टिकरी, ठेकुआ, और मिट्टी के मटकुरी में दही जमा कर पूजन सामग्री के साथ घर के सभी लोग चंद्र देव को अर्ध्य देते है।  अर्घ्य के उपरान्त सभी लोग मिलके प्रसाद रूपी खीर पूरी फल मिठाई दही इत्यादि ग्रहण करते है।



ऐसी मान्यता है कि भाद्रपद के चतुर्थी  के दिन भगवान गणेश ने चंद्रमा को शाप दिया था। पुराणोंके अनुसार  कथा है कि चंद्रमा को अपने सुंदरता पर बड़ा घमंड था। उसने भगवान गणेश का उपहास किया। इससे गुस्सा होकर गणेश ने चांद को शाप दे दिया। उन्होंने कहा कि जो भी इस दिन चांद देखेगा उसे कलंक लगने का डर रहेगा। इस शाप से मुक्ति पाने के लिए भादो मास में के चतुर्थी तिथि के दिन चांद ने भगवान गणेश की पूजा अर्चना की। चांद को अपनी गलती का एहसास था इसलिए भगवान गणेश ने उसे वर दिया कि जो भी मेरी पूजा के साथ तुम्हारी पूजा करेगा उसे कलंक नहीं लगेगा।

प्रकृति के आराधना का यह पर्व हमें संदेश देता है कि परिहास में उपहास न हो जाए और मानव जीवन में कलंक न लगे।



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