महाशक्ति दुर्गा ही परब्रह्म परमात्मा

 


डॉ धनंजय कुमार मिश्र

विभागाध्यक्ष संस्कृत

एस के एम यू दुमका 

महाशक्ति दुर्गा ही परब्रह्म हैं, जो विविध रूपों में विभिन्न लीलाएं करती हैं। इन्हीं की शक्ति से ब्रह्मा विश्व की सृष्टि, विष्णु विश्व का पालन और शिव जगत् का संहार करने में सक्षम हैं। वस्तुत: यही आद्या शक्ति सृजन, पालन और संहार करने वाली हैं। यही परा शक्ति नवदुर्गा व दश महाविद्या हैं। इनके अतिरिक्त दूसरा कोई भी सनातन या अविनाशी तत्त्व नहीं है।


भारतीय संस्कृति में सर्वव्यापी चेतनसत्ता अर्थात् अपने उपास्यकी उपासना मातृरूप से, पितृरूपक्षसे अथवा स्वामिरूप से करने की परम्परा है।  उपासना किसी भी रूप से की जा सकती है, किंतु वह होनी चाहिये भावपूर्ण।


 इस लोक में सम्पूर्ण जीवों के लिये मातृभाव की महिमा विशेष है। व्यक्ति अपनी सर्वाधिक श्रद्धा स्वभावतः मां के चरणों में अर्पित करता है; क्योंकि माँ की गोद में ही सर्वप्रथम उसे लोक दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होता है। इस प्रकार माता ही सबकी आदिगुरु है और उसी की दया तथा अनुग्रह पर बालकों का ऐहिक एवं पारलौकिक कल्याण निर्भर करता है। इसीलिये 'मातृदेवो भव।' मंत्र से सर्वप्रथम स्थान माता को ही दिया गया है।

 जो भगवती महाशक्तिस्वरूपिणी हैं , जो देवी समष्टिरूपिणी हैं  और सारे जगत् की माता हैं, वे ही  समस्त संसार के लिये कल्याण- पथ-प्रदर्शिका ज्ञान-गुरु हैं।

  ये ही अन्नपूर्णा, जगद्धात्री, कात्यायनी एवं ललिताम्बा हैं। गायत्री भुवनेश्वरी, काली, तारा, बगला, षोडशी, त्रिपुरा धूमावती , मातङ्गी, कमला, पद्मावती, दुर्गा आदि इन्हीं के रूप हैं। यही शक्तिमती और शक्ति हैं। 


शास्त्रों में भगवती देवी की उपासना के लिये विभिन्न प्रकार वर्णित है। मान्यता है कि भगवती की साधना से सद्यः फल की प्राप्ति होती है। पराम्बा भगवती राजराजेश्वरी अपने भक्तों को भोग और मोक्ष दोनों एक साथ प्रदान करती हैं, जबकि सामान्यतः दोनों का साहचर्य नहीं देखा जाता। जहाँ भोग है वहाँ मोक्ष नहीं, जहाँ मोक्ष है वहाँ भोग नहीं रहता; फिर भी शक्तिसाधकों के लिये दोनों एक साथ सुलभ है अर्थात् संसारके विभिन्न भोगों को भोगता हुआ वह परमपद मोक्ष का अधिकारी हो जाता है।

तात्पर्य यह कि परमात्मरूपा महाशक्ति ही विविध शक्तियोंके रूप में सर्वत्र क्रीडा कर रही हैं-'शक्तिक्रीडा जगत्सर्वम्।'

 जहाँ शक्ति नहीं, वहाँ शून्यता ही है। शक्तिहीन का कहीं भी समादर नहीं होता। ध्रुव और प्रह्लाद भक्ति-शक्ति के कारण पूजित हैं, गोपियाँ प्रेमशक्ति के कारण जगत्पूज्य हुई हैं, हनुमान् और भीष्म की ब्रह्मचर्यशक्ति, व्यास और वाल्मीकि को कवित्वशक्ति भीम और अर्जुन की शौर्यशक्ति हरिचन्द्र और युधिष्ठिरको सत्यशक्ति, प्रताप और शिवाजी की वीरशक्ति दधीचि और रन्तिदेव की   दानशक्ति ही श्रद्धा और समादर का पात्र बनाती है। सर्वत्र शक्ति की ही प्रधानता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है' समस्त विश्व महाशक्ति का ही विलास है।'

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