मीमांसा दर्शन


               भारतीय षड् आस्तिक दर्शनों में महर्षि जैमिनि रचित मीमांसासूत्र  ‘‘मीमांसादर्शन’’  का आधार है। अतः इसे जैमिनी दर्शन भी कहते हैं। मीमांसा अनीश्वरवादी दर्शन है, किन्तु यह वेदों की नित्यता को स्वीकार करता है। यह दर्शन वेद-विश्वासी होने के कारण ही आस्तिक है। वेद और उसके वाक्य की नित्यता प्रतिपादन करना इस दर्शन का प्रमुख उद्देश्य है। इस दर्शन में मन्त्र की सŸाा सर्वोपरि मानी गई है। कर्म और कर्मफल के अतिरिक्त किसी बात को बताने में यह दर्शन एकदम मौन है। मीमांसा दर्शन के अनुसार कर्म और उसके प्रतिपादक वचनों के अतिरिक्त न तो कोई देवता है और न कोई ब्रह्म-सŸाा।
           मीमांसक ‘शब्द’ को नित्य मानते हैं। वेदों की प्रामाणिकता पर विश्वास करते हैं। उनकी दृष्टि में वेद कल्पान्त में भी अविनश्वर हैं। मीमांसा दर्शन के सिद्धान्तों की आाधारभूमि श्रुति है। वैदिक साहित्य के कर्मकाण्ड के प्रतिनिधि ग्रन्थों की कर्मभावना को लेकर मीमांसादर्शन की रचना हुई।
              मीमांसादर्शन दो भागों में विभक्त है - पूर्वमीमांसा और उŸारमीमांसा। पूर्वमीमांसा को यज्ञप्रधान दर्शन होने के कारण यज्ञविद्या, कर्मप्रधान दर्शन होने के कारण कर्ममीमांसा  तथा द्वादश अध्यायी होने के कारण द्वादशलक्षणी भी कहा गया है जबकि उŸारमीमांसा को वेदान्त कहते हैं। मीमांसा दर्शन में प्रायः पूर्वमीमांसा की बात होती है।
                परा और अपरा नामक दो विद्याओं में अपरा विद्या का प्रतिपादक दर्शन पूर्वमीमांसा है जबकि परा विद्या का प्रतिपादक दर्शन उŸार मीमांसा है।
                       मीमांसा बहुत्ववादी वस्तुवाद है। इस जगत् के जड़ पदार्थ तथा अनेक जीवात्मा, बद्ध और मुक्त सब सत्य हैं। इस जगत् की न तो सृष्टि हुई है और न इसका प्रलय होगा। जगत् के विभिन्न पदार्थ और व्यक्ति आते-जाते और बदलते रहते हैं, किन्तु यह जगत् सदा वैसे हीं चलता रहेगा -‘‘न कदाचिदनीदृशं जगत्।’’
               मीमांसा में नित्य और अपौरूषेय वेद का महŸव है। ईश्वर के लिए मीमांसा में कोई स्थान नहीं है। बाद के कुछ मीमांसक ईश्वर की सŸाा मानते हैं। कुछ परमाणुवाद को मानते हैं जबकि कुछ परमाणुवाद को मानते हैं कुछ परमाणु संघात निर्मित जगत् को स्वीकार करते हैं। मीमांसा में धर्म का, कर्मवाद का, अपूर्व का, स्वर्ग का, मोक्ष का विवेचन प्राप्त होता है।
                     मीमांसा में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, परतन्त्रता, शक्ति, सादृश्य और संख्या - ये आठ पदार्थ माने गए हैं।
                      धर्म मीमांसा का जिज्ञासा विषय है। जैमिनी ने अपने प्रथम सूत्र में इसे हीं सूचित करते हुए कहा है - ‘‘अथातो धर्मजिज्ञासा।’’  धर्म क्रियात्मक वचन या विधि वाक्य द्वारा लक्षित अर्थ है। वेद क्रियापरक विधिवाक्य है। जो वेद भाग स्पष्टतः क्रियापरक नहीं है वह अर्थवाद है। कर्म तीन हैं - नित्य, नैमिŸिाक और वेदविहित।
                  निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि प्रारम्भ में मीमांसा का आग्रह धर्म पर था और लक्ष्य था प्राप्य स्वर्ग। बाद में स्वर्ग के स्थान पर मोक्ष या अपवर्ग को जीवन का चरम पुरूषार्थ स्वीकार किया गया। प्रभाकर और कुमारिल भट्ट दोनों ने मोक्ष को चरम पुरूषार्थ माना है। मूल भाव इस प्रकार है -
‘‘विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदीदिव्यचक्षुषे।
श्रेयः प्राप्तिनिमिŸााय नमः सोमार्धधारिणे।।’’

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