योग ; सामान्य परिचय



           भारतीय दर्शन में ‘षड् दर्शन’ की प्रसिद्धि जगत् में विख्यात् है। ‘दर्शन’ शब्द ‘दृश्’ धातु से बना है जिसका अर्थ है - देखना। परन्तु यहाँ दर्शन शब्द का अभिप्राय ‘‘रहस्य का साक्षात्कार’’ अथवा ‘‘निराकार प्रतीति’’ से है। दार्शनिक विचार-धाराओं की चर्चा में दर्शन शब्द ‘‘विश्व के रहस्य का साक्षात्कार’’ से सम्बन्धित है। संक्षेप में हम तŸव ज्ञान के साधन को दर्शन कह सकते हैं। भारतीय दर्शनों का विभाजन श्रुतिसापेक्ष (वैदिक) और श्रुतिनिरपेक्ष (अवैदिक) दर्शनों के रूप में किया जाता है। श्रुतिसापेक्ष या आस्तिक या वैदिक दर्शनों में सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त ये छः प्रमुख हैं। इन छः दर्शनों को युगल रूप में भी प्रस्तुत किया जाता है और उन्हें एक-दूसरे का पूरक बताया जाता है। इस रूप में सांख्य और योग, न्याय और वैशेषिक तथा मीमांसा और वेदान्त का युगल प्रसिद्ध है। सभी भारतीय दर्शन संसार को दुःखमय मानते हैं और उससे आत्यन्तिक निवृŸिा को जीवन का चरम लक्ष्य। इस दृष्टि से भारतीय दर्शन ‘‘मोक्ष-शास्त्र’’ भी हैं।
           सांख्य दर्शन के प्रवर्तक आचार्य कपिल, योग के पतंजलि, न्याय के गौतम, वैशेषिक के कणाद, मीमांसा (पूर्व मीमांसा) के जैमिनी तथा वेदान्त (उŸार मीमांसा) के बादरायण व्यास हैं। यहाँ हमारा विवेच्य ‘‘योग-दर्शन’’ है।
        योग शब्द युज् धातु से बना है।यह धातु दो अर्थों का वाचक है - युजिर् योगे एवं युज् समाधौ। युजिर् योगे का अर्थ है जोड़ना युज् समाधौ का अर्थ है - चिŸावृŸिायों को रोकना। योग दर्शन में इस शब्द का अर्थ है - ‘‘मन को परमात्मा या ईश्वर के चिन्तन में लगाना’’ अथवा ‘‘मन को वाह्य विषयों से हटाना’’। योग दर्शन का मुख्य विषय साधना है। यह दर्शन सांख्य द्वारा प्रतिपादित व्यवस्था को ही अपना आधार मानता है, अतः सांख्य और योग युगल दर्शन के रूप में विख्यात हैं। सांख्य दर्शन ईश्वर की सŸाा को नहीं मानता परन्तु योग दर्शन ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करता है, इसलिए योग दर्शन को ‘‘सेश्वर-सांख्य’’ भी कहा जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता में सांख्य और योग को एक बताया गया है। यहाँ सांख्य का अर्थ ज्ञान और योग का अर्थ साधना बताया गया है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।
         षड् दर्शनों के अन्तर्गत ‘‘योग-दर्शन’’ का प्रथम ग्रन्थ महर्षि पतंजलि कृत ‘‘योग सूत्र’’ है। इसमें चार पाद और 186 सूत्र हैं। योग सूत्र पर योग भाष्य नामक टीका व्यास ने लिखा है, जो योग दर्शन को समझने के लिए प्रामाणिक मानी जाती है। पतंजलि का समय 200 ई0पू0 माना जाता है। योग दर्शन के प्रसिद्ध ग्रन्थों में वाचस्पति मिश्र की ‘‘तŸव-वैशारदी’’, विज्ञान भिक्षु की ‘‘योग वार्तिक’’, भोज की ‘‘राजमार्तण्ड’’, नागेश की ‘‘छाया’’, नारायण तीर्थ की ‘‘योग सिद्धान्त चन्द्रिका’’ एवं ‘‘सूत्रार्थ बोधिनी’’, रामानन्द सरस्वती की ‘‘योगमणिप्रभा’’ आदि प्रमुख हैं। उपर्युक्त सभी टीका ग्रन्थ हैं। व्यास-भाष्य, तŸव-वैशारदी एवं योग-वार्तिक विशिष्ट महŸव के ग्रन्थ हैं।
  प्तंजलि ने योग का लक्षण बताते हुए कहा है - ‘‘योगश्चिŸावृŸिानिरोधः।’’ चिŸा सŸव-तम-रज की अधिकता के कारण तीन प्रकार का होता है -
1.    प्रख्याशील
2.    प्रवृŸिाशील
3.    स्थितिशील
चिŸा की पाँच अवस्थाएँ हैं -
1.    क्षिप्त
2.    मूढ़
3.    विक्षिप्त
4.    एकाग्र और
5.    निरूद्ध
पुरूष को पदार्थ के स्वरूप का ज्ञान चिŸा के परिवर्तनों के कारण होता है, जिन्हें वृŸिायाँ कहते हैं। चिŸा की वृŸिायाँ प्रधानतया पाँच हैं -
1.    प्रमाण
2.    विपर्यय
3.    विकल्प
4.    निद्रा और
5.    स्मृति।
प्रमाण तीन हैं - प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द। किसी वस्तु के मिथ्या ज्ञान को ‘‘विपर्यय’’ कहते हैं। योग के दो भेद हैं - सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात। किसी भी ध्यान में तीन कोटियाँ होती हैं -
1.    ध्याता (ध्यान करने वाला)
2.    ध्येय (जिस वस्तु पर ध्यान लगाया जाता है ) और
3.    ध्यान (ध्यान करने की क्रिया)
सम्प्रज्ञात समाधि चार प्रकार की होती है -वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत और अस्मितानुगत। असम्प्रज्ञात समाधि की दशा में पहुँचने पर आत्मा अपने विशुद्ध चैतन्य रूप में प्रतिष्ठित होता है। इसी दशा का नाम ‘‘कैवल्य’’ है।
क्लेश पाँच प्रकार के हैं -
1.    अविद्या
2.    अस्मिता
3.    राग
4.    द्वेष और
5.    अभिनिवेश।
योग के आठ अंग हैं -
1.    यम
2.    नियम
3.    आसन
4.    प्रणायाम
5.    प्रत्याहार
6.    धारणा
7.    ध्यान और
8.    समाधि।
विवेक ज्ञान से या अष्टांग योग से कर्मों के क्षय होने के उपरान्त या चिŸावृŸिा के निरोध से कैवल्य की प्राप्ति होती है।

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