तर्कसंग्रह के नव द्रव्य





1. पृथिवी:- तर्कसंग्रह के अनुसार  नौ द्रव्यों में प्रथम द्रव्य पृथि

2. जल:- तर्कसंग्रह के अनुसार  नौ द्रव्यों में द्वितीय द्रव्य जल है। यह मूर्त द्रव्य है। इसका लक्षण बताते हुए अन्नं भट्ट कहते हैं - ‘शीतस्पर्शवत्य आपः’। अर्थात् शीत स्पर्श का जो  समवायिकारण है, उसे जल कहते हैं। जिसका स्पर्श शीतल है उसे जल (आप) कहते हैं।  यह जल नित्य और अनित्य के भेद से दो प्रकार का होता है। नित्य जल परमाणुरूप होता है जबकि अनित्य जल कार्यरूप। शरीर, इन्द्रिय और विषय के भेद से अनित्य जल पुनः तीन प्रकार का होता है। जल का शरीर वरूणलोक में रहता है। जल का इन्द्रिय रस को ग्रहण करने वाला रसन है, जो जिह्वा के अग्रभाग में रहता है। जल का विषय नदी, समुद्र आदि होते हैं।

3. तेज:- तर्कसंग्रह के अनुसार  नौ द्रव्यों में तृतीय द्रव्य तेज है। यह मूर्त द्रव्य है। इसका लक्षण बताते हुए अन्नं भट्ट कहते हैं - ‘उष्णस्पर्शवतेजः’। अर्थात् जिस द्रव्य में  उष्ण स्पर्श रहता है, उसे तेज कहते हैं। यह तेज नित्य और अनित्य के भेद से दो प्रकार का होता है। नित्य तेज परमाणुरूप होता है जबकि अनित्य तेज कार्यरूप। शरीर, इन्द्रिय और विषय के भेद से अनित्य तेज पुनः तीन प्रकार का होता है। तेज का शरीर सूर्यलोक में प्रसिद्ध है। तेज का इन्द्रिय रूप को ग्रहण करने वाला नेत्र है, जो काली तारा के अग्रभाग में रहता है। तेज का विषय भौम, दिव्य, उदर्य और आकरज चार प्रकार का  होता है। अग्नि आदि भौम तेज है।  जल रूप इन्धन वाले तेज को दिव्य तेज कहते हैं जो बिजली आदि है। खाये गए पदार्थ के परिणाम का कारण जो तेज है उसे उदर्य कहते हैं। आकर अर्थात् खान से उत्पन्न तेज (सुवर्ण) को कहते हैं।

4. वायु:- तर्कसंग्रह के अनुसार  नौ द्रव्यों में चतुर्थ द्रव्य वायु है। यह मूर्त द्रव्य है। इसका लक्षण बताते हुए अन्नं भट्ट कहते हैं - ‘रूपरहितस्पर्शवान्वायुः’। अर्थात् जिस द्रव्य में  रूप नहीं है और स्पर्श रहता है, उसे वायु कहते हैं। यह वायु नित्य और अनित्य के भेद से दो प्रकार का होता है। नित्य वायु परमाणुरूप होता है जबकि अनित्य वायु कार्यरूप। शरीर, इन्द्रिय और विषय के भेद से अनित्य वायु पुनः तीन प्रकार का होता है। वायु का शरीर वायुलोक में रहता है। वायु का इन्द्रिय स्पर्श को ग्रहण करने वाला त्वक् है और वह समस्त शरीर  में रहता है। तेज का विषय वृक्ष आदि के कम्पन का हेतु है। शरीर के भीतर चलने वाले वायु को प्राण कहते हैं। वह एक हीं है। उपाधि भेद से प्राण, अपान, समान, उदान औा व्यान इन नामों को प्राप्त करता है।  प्राणवायु हृदय में, अपानवायु गुदा में, समानवायु नाभिमण्डल में, उदानवायु कण्ठदेश में और व्यानवायु समस्त शरीर में रहता है। कहा भी गया है -
‘‘हृदि प्राणो गुदेऽपानः समानो नाभिमण्डले। उदानः कण्ठदेशस्थो व्यानः सर्वशरीरगः।।’’

5. आकाश:- तर्कसंग्रह के अनुसार  नौ द्रव्यों में पंचम द्रव्य वायु है। यह विभू द्रव्य है। इसका लक्षण बताते हुए अन्नं भट्ट कहते हैं - ‘‘शब्दगुणकमाकाशम्’’। अर्थात् ‘शब्द’ गुण वाले द्रव्य का नाम आकाश है। यह आकाश नामक द्रव्य एक, विभु और नित्य होता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि  जो शब्द का समवायिकारण है, वह आकाश है। जो सम्पूर्ण मूर्तद्रव्यों का संयोगी है, उसे विभू कहते हैं। तर्कसंग्रह के अनुसार आकाश नामक द्रव्य विभु अर्थात् समस्त मूर्तद्रव्यों का संयोगी है।

6. काल:- ‘‘अतीतादिव्यवहारहेतुः कालः। स चैको विभुर्नित्यश्च।’’ अतीत आदि व्यवहार के कारण को काल कहते हैं। तर्कसंग्रह के अनुसार यह छठा द्रव्य है। अतीत आदि से तात्पर्य भूत,वर्तमान और भविष्यत् से है। यह काल नामक द्रव्य एक, विभु और नित्य होता है।

7. दिक्:- ‘‘प्राच्यादिव्यवहारहेतुर्दिक्। सा चैका नित्या विभ्वी च।’’ अर्थात् प्राची आदि व्यवहार के कारण को दिक् कहते हैं। तर्कसंग्रह के अनुसार यह सप्तम द्रव्य है। प्राची आदि से तात्पर्य पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण आदि दश दिशाओं से है। तर्कसंग्रह के अनुसार वह दिक् एक है, नित्य है और विभु है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि  प्राची आदि व्यवहार के असाधारण कारण को दिक् कहते हैं।

8. आत्मा:- ज्ञान के आश्रय को आत्मा कहते हैं। तर्कसंग्रह के अनुसार यह आठवाँ द्रव्य है। जीवात्मा और परमात्मा के भेद से यह दो प्रकार का होता है। उनमें परमात्मा समर्थ और सर्वज्ञ एक हीं है। जीवात्मा प्रत्येक शरीर में भिन्न विभु और नित्य होता है। अन्नं भट्ट अपने ग्रन्थ तर्कसंग्रह में लिखते हैं - ‘‘ज्ञानाऽधिकरणमात्मा। स द्विविधो - जीवात्मा परमात्मा च।’’

9. मन:- सुख-दुःख आदि की प्राप्ति के साधन इन्द्रिय को ‘मन’ कहते हैं। वह प्रत्येक आत्मा में नियत होने से अनन्त, परमाणुरूप और नित्य भी है। यह मूर्त द्रव्य है। तर्कसंग्रहकार श्री अन्नं भट्ट मन नामक नवम एवं अन्तिम द्रव्य का लक्षण इस प्रकार किया है - ‘‘सुखाद्युपलब्धिसाधनमिन्द्रियं मनः।’’

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वी है। यह मूर्त द्रव्य है। इसका लक्षण बताते हुए अन्नं भट्ट कहते हैं - ‘गन्धवती पृथिवी’। अर्थात् गन्ध के समवायिकारण को पृथिवी कहते हैं। पृथिवी गन्धवती होती है। यह पृथिवी नित्या और अनित्या के भेद से दो प्रकार की होती है। नित्या पृथिवी परमाणुरूपा होती है जबकि अनित्या पृथिवी कार्यरूपा। शरीर, इन्द्रिय और विषय के भेद से अनित्या पृथिवी पुनः तीन प्रकार की होती है। हमलोगों का शरीर हीं पृथिवी का शरीर है। पृथिवी का इन्द्रिय गन्ध को ग्रहण करने वाला घ्राण है, जो नासिका के अग्रभाग में रहता है। पृथिवी का विषय मिट्टी,पत्थर आदि होते हैं।

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