बौद्ध-दर्शन: एक सामान्य अध्ययन




       ‘दर्शन’ शब्द की निष्पत्ति ‘दृश्’ धातु से हुई है। ‘दृश’ का अर्थ है देखना। अतः ‘‘दृश्यते अनेन इति दर्शनम्’’ अर्थात् जिसके द्वारा देखा जाए वही दर्शन है। यहाँ दर्शन से अभिप्राय ‘आत्म-दर्शन’ से ही है। दर्शन सम्पूर्ण विश्व और जीवन की व्याख्या तथा मूल्य निर्धारित करने का प्रयास है।
      भारतीय दर्शन दुःख की आधारशिला पर प्रतिष्ठित है। समस्त दर्शन दुःख निवृति के उपायों की खोज में लगा हुआ है क्योंकि संसार में प्राणी - दैहिक, दैविक और भौतिक -  त्रिविधात्मक दुःखों से ग्रस्त है। मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृति होती है कि वह सुख की प्राप्ति करे। समस्त दर्शनों का लक्ष्य है कि किसी उपाय से सर्वोच्च सुख की प्राप्ति का उपाय बताये जो इस जगत् के दुःखों का आत्यन्तिक निवारण करने में समर्थ हो।
      भारतीय दर्शन के सामान्यतः दो भेद हैं - आस्तिक दर्शन और नास्तिक दर्शन। वेदों की सत्ता को स्वीकार करने वाले तथा ईश्वर को मानने वाले आस्तिक दर्शन की श्रेणी में रखे गये हैं। जैसे - न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त। वेदों को प्रमाण न मानने के कारण, वेद विरोधी होने के कारण तथा ईश्वर को न मानने के कारण या सिद्ध पुरूष को ही ईश्वर मानने वाले दर्शनों को नास्तिक दर्शन कहते हैं। इसके अन्तर्गत विशेषतः तीन दर्शनों को स्वीकार किया गया है - चार्वाकदर्शन, जैनदर्शन और बौद्ध दर्शन। बौद्ध दर्शन एक नास्तिक दर्शन है क्योंकि यह वेदों के प्रामाण्य को नहीं स्वीकारता तथा बुद्ध को अपना ईश्वर मानता है।
      बौद्ध दर्शन भगवान बुद्ध द्वारा उपदिष्ट प्रमुख दार्शनिक सिद्धान्तों पर आधारित है। भगवान् बुद्ध के उपदेश मौखिक थे और उनके शिष्य उन्हें याद रख पाठ किया करते थे। बुद्ध निर्वाण के बाद उनके उपदेशों एवं सिद्धान्तों तथा दार्शनिक विचारों को ग्रन्थों का रूप दिया गया। पालि भाषा में लिखित ‘विनयपिटक’ और ‘सुत्तपिटक’ बौद्ध दर्शन के आधारभूत ग्रन्थ हैं।
           बौद्ध-दर्शन आध्यात्मिक अद्वैतवाद या निरपेक्षतत्त्ववाद है। इनके अनुसार परमतत्त्व निर्वाण है, जो अतीन्द्रिय, बुद्धि-विकल्पातीत एवं अनिर्वचनीय है। बोधि से इस दुःख रूप अविद्याजन्य संसारचक्र की निवृत्ति होती है। बौद्धदर्शन का अद्वैतवाद उपनिषद् पर ही आधारित है। निश्चय ही बुद्ध उपनिषद् के ऋणी हैं। बुद्ध ने माना है कि वे किसी नये धर्म का उपदेश नहीं दे रहे अपितु प्राचीन सम्बुद्धों एवं ऋषियों द्वारा साक्षात्कृत सत्य का उन्होंने साक्षात् अनुभव किया है। वे अपने उन्हीं अनुभव का उपदेश बौद्धदर्शन में करते हैं।
         बुद्ध द्वारा उपदिष्ट दार्शनिक सिद्धान्तों में - चार आर्यसत्य, आर्य अष्टांगिकमार्ग, प्रतीत्यसमुत्पाद, अव्याकृत प्रश्नों पर मौन, अनात्मवाद और निर्वाण प्रमुख हैं।  दुःख, दुःख-समुदय, दुःख निरोध और दुःख-निरोध-मार्ग ये चार बुद्धोपदिष्ट आर्य सत्य हैं। सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाक्, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि - ये आठ आर्य अष्टांगिक मार्ग हैं। प्रतीत्यसमुत्पाद बुद्ध के उपदेशों का आधारभूत सिद्धान्त है। बौद्ध दर्शन का यह केन्द्रिय सिद्धान्त है।
              कारण-कार्य-श्रृंखला रूप प्रतीत्यसमुत्पाद द्वादशाङ्क-चक्र है जिसे भवचक्र, संसारचक्र, जन्ममरणचक्र और धर्मचक्र भी कहा जाता है। प्रथम अंग द्वितीय अंग का कारण है, द्वितीय अंग तृतीय अंग का कारण है और इस प्रकार यह द्वादशांक चक्र चलते रहता है। ये द्वादश अंग हैं - अविद्या, संस्कार, विज्ञान, नामरूप, षडायतन, स्पर्श, वेदना, तृष्णा, उपादान, भव, जाति और जरा-मरण। मरण इस चक्र का अन्त नहीं है। मरण के बाद भी अविद्या और कर्म संस्कार रहते हैं जो नए जन्म का कारण बनते हैं और यह जन्म-मरण-चक्र चलता रहता है।
      बौद्धदर्शन की मुख्य दार्शनिक बातें इस प्रकार कही जा सकती हैं -
1.    पदार्थ विज्ञान - क. आलय विज्ञान ख. प्रकृति विज्ञान।
2.    प्रमाण - प्रत्यक्ष प्रमाण और अनुमान प्रमाण।
3.    प्रमुख सिद्धान्त - असत्कार्यवाद, चारआर्यसत्य, प्रतीत्यसमुत्पादवाद, क्षणिकत्व(अनित्य)वाद, अनात्मवाद और शून्यवाद।
4.    ईश्वर/पुरुष या आत्मा - ईश्वर तथा आत्मा दोनों का अभाव है। विज्ञानमात्र ही आत्मा है - ‘‘नित्यविज्ञानमेवात्मा।’ भगवान् बुद्ध ने ईश्वर का कोई उल्लेख नहीं किया है।
5.    सृष्टि-प्रक्रिया - परमाणुओं में क्रिया के फलस्वरूप समुदायोत्पत्ति से सृष्टि होती है। ये परमाणु पृथिवी, जल, तेज और वायु के भेद से चार हैं।
6.    निर्वाण या मोक्ष - अविद्या, रागादि के निरोध से जन्ममरण के स्रोत का सर्वथा अभाव ही बौद्ध दर्शन में निर्वाण या मोक्ष है।
                     निश्चय ही बौद्ध दर्शन उपर्युक्त विशेषताओं के कारण एक नास्तिक दर्शन है। इसके चार सम्प्रदाय काफी प्रचलित हैं- सौत्रान्तिक, वैभाषिक, योगाचार और माध्यमिक। सौत्रान्तिक वाह्यार्थानुमेयवाद है। वैभाषिक वाह्यार्थ प्रत्यक्षवाद है। योगाचार विज्ञानवाद है। माध्यमिक शून्यवाद पर आधारित है। उपर्युक्त चारों सम्प्रदाय हीनयान और महायान नामक भेदों में बँटा है। हीनयान के अन्तर्गत - वाह्यप्रत्यक्षवाद तथा वाह्यार्थानुमेयवाद आता है। महायान के अन्तर्गत विज्ञानवाद और शून्यवाद का समावेश है।
     बौद्ध धर्म एवं दर्शन का यद्यपि ब्राह्मण धर्म की कुछ संकीर्णताओं के विरोध में भारत में आविर्भाव हुआ फिर भी मूलतः यह हिन्दु धर्म का ही अंश प्रतीत होता है। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, सर्वभूतानुकम्पा आदि विशेषताएँ ब्राह्मण धर्म के धर्म-सूत्रों तथा प्राचीन स्मृतिग्रन्थों से लिया गया है।
            निःसन्देह कहा जा सकता है कि बौद्ध दर्शन अपनी आन्तरिक विशेषताओं के कारण नास्तिक दर्शनों में श्रेष्ठ स्वीकार किया गया है। वेदों की सत्ता को न स्वीकारना, आत्मा को नहीं मानना तथा ईश्वर के प्रति उदासीनता तथा सिद्ध पुरुष गौतम बुद्ध को ही ईश्वर मानने के कारण बौद्ध दर्शन एक नास्तिक दर्शन है।





बौद्ध धर्म के अष्टांगिक मार्ग
         बौद्धधर्म एवं दर्शन भगवान् गौतम बुद्ध के द्वारा दिये गये उपदेशों पर ही आधारित है। गौतम बुद्ध एक सच्चे उपदेशक थे। उनके उपदेशों पर ही सम्पूर्ण बौद्ध दर्शन टिका हुआ है। बुद्ध के उपदेशों में चार आर्य सत्य का काफी महŸव है। इन चार आर्य सत्यों में मूलतः यह कहा गया है कि सांसारिक जीवन दुःखमय है, दुःखों का कारण है, दुःखों का अन्त है और दुःखों के अन्तकारक उपाय भी हैं। भगवान् बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त करने के बाद सारनाथ में अपना यह उपदेश अपने पांच शिष्यों को दिया था। उनके अनुसार चार आर्य सत्य हैं - दुःख, दुःख समुदय, दुःखनिरोध और दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपद अर्थात् दुःख निरोध मार्ग।
            चतुर्थ आर्य सत्य दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपद अर्थात् दुःख निरोध मार्ग वास्तव में नैतिक और आध्यात्मिक साधना के मार्ग हैं। इसी मार्ग को अष्टांगिक मार्ग या आर्य अष्टांगिक मार्ग के नाम से बौद्ध दर्शन में जाना जाता है। अष्टांगिक मार्ग चतुर्थ आर्य सत्य के अन्तर्गत समाहित है। संक्षेप में अष्टांगिक मार्ग इस प्रकार है -
1.    सम्यक् दृष्टि:- सम्यक् दृष्टि से अभिप्राय है बुद्ध वचनों में श्रद्धा और आर्य सत्यों का ज्ञान।
2.    सम्यक् संकल्प:- यह आर्य मार्ग पर चलने का दृढ़ निश्चय है।
3.    सम्यक् वाक्:- यह वाणी की पवित्रता और सत्यता है।
4.    सम्यक् कर्मान्त:- यह हिंसा, द्वेष और दुराचरण का त्याग कर सद्कर्मों का आचरण है।
5.    सम्यक् आजीव:- यह न्यायपूर्ण जीविकोपार्जन है।
6.    सम्यक् व्यायाम:- यह शुभ की उत्पŸिा और अशुभ के निरोध हेतु सतत प्रयत्न है।
7.    सम्यक् स्मृति:- यह शारीरिक तथा मानस भोग्य वस्तुओं एवं काम, मोह, लोभ आदि भावों की अनित्यता और अशुचिता की निरन्तर भावना एवं चिŸा की एकाग्रता है।


8.    सम्यक् समाधि:- यह चिŸा की एकाग्रता द्वारा निर्विकल्प प्रज्ञा की अनुभूति है।
            संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि बुद्ध ने इस दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपद या अष्टांगिक मार्ग को ही मध्यमा प्रतिपद या मध्यममार्ग की संज्ञा दी है। यह भोग विलास और शरीर को अत्यन्त क्षीण करने वाली कठोर तपस्या के बीच का मार्ग है।
      ये अष्टांगिक मार्ग निर्वाण प्राप्ति के मार्ग भी हैं। ये मार्ग बौद्ध धर्म एवं दर्शन में त्रिरत्नसें में भी विभक्त किये गये है। ये त्रिरत्न हैं - प्रज्ञा, शील और समाधि। प्रज्ञा के अन्तर्गत सम्यक् दृष्टि और साम्यक् संकल्प का समावेश है। शील के अन्तर्गत सम्यक् वाक्  सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीव,  सम्यक् व्यायाम रखे गये हैं। समाधि के अन्तर्गत सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि का समावेश कर बौद्ध दर्शन ने स्पष्ट कर दिया है कि ये अष्टांग मार्ग ही श्रेष्ट मार्ग है तथा इसी का अनुसरण करने से निर्वाण लाभ हो सकता है।



बुद्ध के चार आर्य सत्य
               भगवान बुद्ध ने अपने जीवन काल में न तो किसी ग्रन्थ की रचना की और न करायी। वे एक सच्चे धर्मोपदेशक थे। उनके उपदेश ही बौद्ध दर्शन के रूप में जाने जाते हैं। इन उपदेशों का सारांश उनके द्वारा प्रस्थापित ‘चार-आर्य-सत्य’ के सिद्धान्त में निहित है। ये चार आर्य आर्य सत्य ही बौद्ध दर्शन के मूल आधार के रूप में जाने जाते हैं। बोध प्राप्ति के बाद वाराणसी के सारनाथ नामक स्थान में प्रथम उपदेश के रूप में भगवान् गौतम बुद्ध ने पहली बार ‘‘चार आर्य सत्य’’ के सिद्धान्त को उद्घाटित किया। दुःख, दुःख-समुदय, दुःख-निरोध और दुःख-निरोध-मार्ग, ये चार बुद्धोपदिष्ट आर्य सत्य हैं।
         प्रथम आर्य सत्य - प्रथम आर्य सत्य के अनुसार संसार दुःखमय है। भगवान बुद्ध के अनुसार जन्म लेना दुःख है। जरा (बुढ़ापा) दुःख है। मरण दुःख है। शोक करना दुःख है। विलाप करना दुःख है। इच्छा की पूर्ति न होना दुःख है। प्रिय-वियोग दुःख है तथा अप्रिय संयोग भी दुःख है। संक्षेप में ‘‘ पंच उपादान स्कन्ध ’’ ही दुःख है। अर्थात् सम्पूर्ण विश्व दुःखमय है। यह लौकिक अनुभव से सिद्ध है। संसार के सर्व पदार्थ अनित्य और नश्वर होने के कारण दुःख-रूप हैं। लौकिक सुख भी वस्तुतः दुःख से घिरा है। इस सुख को प्राप्त करने के प्रयास में दुःख है, प्राप्त हो जाने पर यह नष्ट न हो जाय यह विचार दुःख देता है और नष्ट होने पर दुःख है ही। काम, क्रोध, लोभ, मोह, रोग, शोक, जन्म, जरा और मरण सब दुःख है। अप्रिय संयोग दुःख है, प्रिय वियोग दुःख है, इच्छा पूर्ण न होना दुःख है, स्वार्थ, हिंसा, संघर्षादि दुःख है। रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान ये पाँच स्कन्ध दुःख हैं। संक्षेप में जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त सारा जीवन ही दुःख है और मृत्यु भी दुःख का अन्त नहीं है क्योंकि मृत्यु के बाद पुनर्जन्म है और जन्म के बाद मृत्यु है। इस प्रकार यह जन्म-मृत्यु-चक्र या भवचक्र चलता रहता है तथा व्यक्ति इसमें फँस कर दुःख भोगता रहता है।
        बौद्धग्रन्थों में इन समस्त दुःखों को तीन वर्गो में रखा गया है -
1.    दुःख-दुःखता
2.    विपरिणाम-दुःख
3.    संसार दुःख।
संयुतनिकाय के अनुसार दुःख का ही भाव तथा दुःख का ही अभाव होता है। अर्थात् जन्म और मरण दोनों दुःख ही है। इस गंभीर तथ्य को समझाने के लिए भगवान् बुद्ध ने अत्यन्त मार्मिक उपदेश दिया है। इससे स्पष्ट होता है कि दुःख के सत्यस्वरूप की शिक्षा ही भगवान् बुद्ध के उपदेश का प्रथम सोपान है। इसको भली-भाँति समझे बिना अन्य आर्य सत्यों का ज्ञान असम्भव है।
         द्वितीय आर्य सत्य - ‘दुःख-समुदय’ द्वितीय आर्य सत्य है। ‘दुःख-समुदय’ का अर्थ है -दुःख उत्पन्न होता है, इसका उदय या समुदय होता है। जो उत्पन्न होता है उसे कार्य कहते हैं और प्रत्येक कार्य का कोई न कोई कारण अवश्य होता है। बिना कारण के कोई कार्य नहीं हो सकता है। कार्य सदा कारण सापेक्ष होता है। कारण के होने पर ही कार्य होता है- यह नियम अटल है। कार्य उत्पत्ति के लिए हेतु-प्रयत्न सामग्री आवश्यक है। कार्य कारण की लम्बी श्रृंखला है जो द्वादशांक-चक्र के रूप में घूमती रहती है। यह प्रतीत्यसमुत्पादचक्र ही दुःख-समुदय का कारण है और अविद्या इसकी जननी है। अविद्याजन्य तृष्णा के कारण संसार में आसक्ति होती है और भवचक्र चलता रहता है। दुःख समुदय को कहीं-कहीं ‘दुःख-समुदाय’ भी कहा गया है। दुःख समुदाय के कुल बारह अंग हैं। अतः इसे द्वादश निदान भी कहते हैं। ये द्वादश-निदान निम्नलिखित हैं - 1. अविद्या 2.संस्कार (भूत जीवन) 3. विज्ञान 4. नामरूप, 5. षडायतन 6. स्पर्श 7. वेदना 8. तृष्णा 9. उपादान (वत्र्तमान जीवन) 10. भव 11. जति 12. जरा-मरण (भविष्य जीवन)।
    तृतीय आर्य सत्य - ‘दुःख-निरोध’ तृतीय आर्यसत्य है। कारण के होने पर ही कार्य उत्पन्न होता है, अतः कारण के न रहने पर कार्य भी नहीं रह सकता और न पुनः उत्पन्न हो सकता। दुःख कार्य है अतः उसके कारण को दूर कर देने पर दुःख का निरोध सम्भव है। अविद्या के नाश से उससे चलने वाला द्वादशांक प्रतीत्यसमुत्पाद-चक्र भी नहीं चलता। यही दुःख निरोध है। तृष्णा के सर्वथा क्षय होने पर अनासक्ति रूप निर्विकल्पावस्था होती है। अविद्या निवृति से अपरोक्षानुभूति द्वारा दुःख का आत्यान्तिक निरोध हो जाता है। यही निर्वाण है। यही अमृत पद है। निर्वाण शब्द की व्युत्पत्ति है निर् $वाण (बुझ जाना)। अर्थात् विज्ञान के निरोध से निर्वाण की अवस्था में सब कुछ शान्त हो जाता है। यह ठीक वैसा ही है जैसा कि दीपक का बुझ जाना। निर्वाण दुःखों के नाश की अवस्था है। निर्वाण से बढ़कर कोई सुख नहीं है। यही परम शान्ति है। इसे ही शान्ति, शिव या क्षेम भी कहा गया है। औपधिक और अनौपधिक भेद से निर्वाण के भी दो प्रकार हैं। तृष्णा के निरोध से साधक को शरीर रहने पर भी निर्वाण लाभ हो जाता है। साधक की इन्द्रियाँ कार्य तो करती हैं परन्तु विषयों के प्रति राग-द्वेष नहीं होता है। अनौपाधिक निर्वाण में साधक के पूर्व कर्मो का संस्कार पूर्णतः नष्ट हो जाता है। यह पाँच स्कन्धों का पूर्ण विनाश है। निर्वाण की ये दोनों अवस्थाएँ अन्य दर्शनों में जीवनमुक्ति तथा चरममुक्ति के रूप में जानी जाती है।
      चतुर्थ आर्य सत्य - ‘दुःख निरोध मार्ग’  को चतुर्थ आर्य सत्य के रूप में जाना जाता है। यह निर्वाण प्राप्ति का मार्ग है। जिन कारणों से दुःखों की उत्पत्ति होती है उन्हीं कारणों के नाश का उपाय हीं निर्वाण मार्ग है। इन मार्गों को अष्टांगिक-मार्ग के नाम से भी जाना जाता है। ये अष्टांगिक मार्ग हैं -  1. सम्यक् दृष्टि 2. सम्यक् संकल्प (प्रज्ञा)  3. सम्यक् वाक् 4. सम्यक् कर्मान्त 5. सम्यक् आजीव 6. सम्यक् व्यायाम (शील) 7. सम्यक् स्मृति और 8. सम्यक् समाधि (समाधि)। ये अष्टांगिक मार्ग  प्रज्ञा, शील और समाधि नामक त्रिरत्नों में विभाजित हैं। यह अष्टांग मार्ग ही श्रेष्ठ है। इसी का अनुसरण करने से निर्वाण-लाभ हो सकता है।
                    निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि चारों आर्य सत्य बौद्ध दर्शन के चार स्तम्भ हैं जिनपर सम्पूर्ण बौद्ध दर्शन टिका है।  

बौद्ध धर्म के अष्टांगिक मार्ग
         बौद्धधर्म एवं दर्शन भगवान् गौतम बुद्ध के द्वारा दिये गये उपदेशों पर ही आधारित है। गौतम बुद्ध एक सच्चे उपदेशक थे। उनके उपदेशों पर ही सम्पूर्ण बौद्ध दर्शन टिका हुआ है। बुद्ध के उपदेशों में चार आर्य सत्य का काफी महŸव है। इन चार आर्य सत्यों में मूलतः यह कहा गया है कि सांसारिक जीवन दुःखमय है, दुःखों का कारण है, दुःखों का अन्त है और दुःखों के अन्तकारक उपाय भी हैं। भगवान् बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त करने के बाद सारनाथ में अपना यह उपदेश अपने पांच शिष्यों को दिया था। उनके अनुसार चार आर्य सत्य हैं - दुःख, दुःख समुदय, दुःखनिरोध और दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपद अर्थात् दुःख निरोध मार्ग।
            चतुर्थ आर्य सत्य दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपद अर्थात् दुःख निरोध मार्ग वास्तव में नैतिक और आध्यात्मिक साधना के मार्ग हैं। इसी मार्ग को अष्टांगिक मार्ग या आर्य अष्टांगिक मार्ग के नाम से बौद्ध दर्शन में जाना जाता है। अष्टांगिक मार्ग चतुर्थ आर्य सत्य के अन्तर्गत समाहित है। संक्षेप में अष्टांगिक मार्ग इस प्रकार है -
1.    सम्यक् दृष्टि:- सम्यक् दृष्टि से अभिप्राय है बुद्ध वचनों में श्रद्धा और आर्य सत्यों का ज्ञान।

2.    सम्यक् संकल्प:- यह आर्य मार्ग पर चलने का दृढ़ निश्चय है।


3.    सम्यक् वाक्:- यह वाणी की पवित्रता और सत्यता है।
4.    सम्यक् कर्मान्त:- यह हिंसा, द्वेष और दुराचरण का त्याग कर सद्कर्मों का आचरण है।

5.    सम्यक् आजीव:- यह न्यायपूर्ण जीविकोपार्जन है।


6.    सम्यक् व्यायाम:- यह शुभ की उत्पŸिा और अशुभ के निरोध हेतु सतत प्रयत्न है।

7.    सम्यक् स्मृति:- यह शारीरिक तथा मानस भोग्य वस्तुओं एवं काम, मोह, लोभ आदि भावों की अनित्यता और अशुचिता की निरन्तर भावना एवं चिŸा की एकाग्रता है।


8.    सम्यक् समाधि:- यह चिŸा की एकाग्रता द्वारा निर्विकल्प प्रज्ञा की अनुभूति है।
            संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि बुद्ध ने इस दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपद या अष्टांगिक मार्ग को ही मध्यमा प्रतिपद या मध्यममार्ग की संज्ञा दी है। यह भोग विलास और शरीर को अत्यन्त क्षीण करने वाली कठोर तपस्या के बीच का मार्ग है।
      ये अष्टांगिक मार्ग निर्वाण प्राप्ति के मार्ग भी हैं। ये मार्ग बौद्ध धर्म एवं दर्शन में त्रिरत्नसें में भी विभक्त किये गये है। ये त्रिरत्न हैं - प्रज्ञा, शील और समाधि। प्रज्ञा के अन्तर्गत सम्यक् दृष्टि और साम्यक् संकल्प का समावेश है। शील के अन्तर्गत सम्यक् वाक्  सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीव,  सम्यक् व्यायाम रखे गये हैं। समाधि के अन्तर्गत सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि का समावेश कर बौद्ध दर्शन ने स्पष्ट कर दिया है कि ये अष्टांग मार्ग ही श्रेष्ट मार्ग है तथा इसी का अनुसरण करने से निर्वाण लाभ हो सकता है।
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