कालिदास की उदात्त ‘अलका’
अध्यक्ष संस्कृत विभाग
संताल परगना महाविद्यालय
सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय, दुमका (झारखण्ड)
महाकवि कालिदास की गणना न केवल भारत के अपितु विश्व के श्रेष्ठ महाकवियों में की जाती है। इनकी रचनाओं में मेघदूतम् को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। संस्कृत के गीतिकाव्यों में इस रमणीय कृति को जो सम्मान मिला है, वह किसी अन्य को नहीं।
मेघदूतम् कालिदास की एक सशक्त रचना है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि यदि कालिदास की अन्य रचनाएँ न भी होती, केवल अकेला मेघदूतम् हीं होता तो भी उनकी कीत्र्ति में कोई अन्तर न पड़ता। संस्कृत साहित्य के गीतिकाव्यों में सर्वप्रथम इसकी ही गणना होती है। कालिदास की कल्पना की ऊँची उड़ान और परिपक्व कला का यह ऐसा नमूना है जिसकी टक्कर का विश्व में दूसरा नहीं। कल्पना की कमनीयता, भावों की स्पष्टता, व्यंजना की विदग्धता, छन्द की उपयुक्तता, अलंकारों की विविधता, रस की ग्राह्यता, प्रकृति-चित्रण की चारुता, भाषा की प्रांजलता आदि गुणों के कारण ‘‘मेघदूतम्’’ उत्कृष्टतम काव्य बन गया है।
121 श्लोकों में निबद्ध यह लघुकाय ग्रन्थ मन्दाक्रान्ता छन्द में रचित है। इसके दो भाग हैं - पूर्वमेघ और उत्तरमेघ। पूर्वमेघ में रामगिरि से अलकापुरी तक के मार्ग का विशद वर्णन प्रस्तुत कर उत्तरमेघ में अपनी कान्ता का विरह-वर्णन प्रस्तुत कर यक्ष ने अन्त में अपना मर्मविदारक सन्देश भेजा है। नाममात्र की कथावस्तु को लेकर कवि ने अपनी अमृतवाणी को मन्दाक्रान्ता की झूमती चाल प्रदान कर श्रृंगार की वह रस-धारा बहाई है जिसमें काव्य-रसिक आज भी डुबकी लगा रहे हैं। कवि ने विरही यक्ष के मुख से अलकापुरी के मार्ग तथा अलका के वर्णन के द्वारा प्रकृति-चित्रण का सुन्दर और सरस अवसर खोज लिया है। अलका की समृद्धि उसके सौन्दर्य को चार-चाँद लगा देती है। अलकापुरी अलौकिक नगरी है, यह कुबेर की नगरी है, कैलास की गोद में प्रेमिका के समान बैठी है अलका -
‘‘तस्योत्सङ्गे प्रणयिन इव स्रस्तगङ्गादुकूलां
न त्वं दृष्ट्वा पुनरलकां ज्ञास्यसे कामचारिन्।
या वः काले वहति सलिलोद्गारमुच्चैर्विमाना
मुक्ताजालप्रथितमलकं कामिनीवाभ्रवृन्दम्।।’’1
अलकापुरी की थोड़ी-सी झलक कवि ने प्रारम्भ में हीं दे दी है। यह धन के देवता कुबेर की राजधानी मानी गयी है। इसमें बड़े-बड़े धनी यक्षों का निवास है। यह कैलास पर्वत पर स्थित है। राजधानी अलका के बाहर एक उद्यान है जहाँ शिव का निवास है तथा उनके सिर पर स्थित चन्द्रमा की चाँदनी से अलका के महल सदैव प्रकाशित होते रहते हैं -
संतप्तानां त्वमसि शरणं तत्पयोद ! प्रियायाः
सन्देशं मे हर धनपतिक्रोधविश्लेषितस्य।
गन्तव्या ते वसतिरलका नाम यक्षेश्वराणां
वाह्योद्यानस्थितहरशिरश्चन्द्रिकाधौतहम्र्या।। 2
कालिदास सौन्दर्य के चतुर चितेरे हैं। कालिदास ने विश्व की विविध वस्तुओं में सौन्दर्य के दर्शन किये हैं। नदियों की तरंगों ने, लताओं के नर्तन ने, हिरनों की छलाँगों ने, पक्षियों के कलरव ने, वृक्षों के प्रस्फुटन ने और पर्वतों के लुभावने दृश्यों ने कवि को अपनी ओर आकृष्ट किया है। अलका का सौन्दर्य अनुपम है। अलका में गगनचुम्बी महल हैं, जो सुन्दर ललनाओं, विविध वर्णों से बने चित्रों, संगीत में प्रहत मुरजों, मणिजटित फर्शों से युक्त हैं। वे महल मेघ से स्पर्धा करने में समर्थ हैं। कवि के हीं शब्दों में -
‘‘विद्युद्वन्तं ललितवनिताः सेन्द्रचापं सचित्राः
सङ्गीताय प्रहतमुरजाः स्निग्धगम्भीरघोषम्।
अन्तस्तोयं मणिमयभुवस्तुङ्गमभ्रंलिहाग्राः
प्रासादास्त्वां तुलयितुमलं यत्र तैस्तैर्विशेषैः।।’’ 3
अलकापुरी में रहनेवाली सुन्दर कान्तिवाली स्त्रियों की कवि ने विद्युत् से समानता प्रकट की है। महलों की दीवार पर अनेक प्रकार के रंगों के चित्र टँगे हैं इसलिए वह सतरंगी इन्द्रधनुष से युक्त मेघ की समानता कर सकते हैं - ऐसी कवि की कल्पना है।
उत्तरमेघ के 55 श्लोकों में प्रथम 21 श्लोकों तक अलकापुरी का उदात्त वर्णन उपलब्ध है। अलका की स्त्रियाँ आभूणप्रिय हैं। रत्नों का खान होने के वावजूद वहाँ की स्त्रियाँ पुष्पाभूषणों के प्रति अधिक लगाव रखती हैं। विभिन्न ऋतुओं में उत्पन्न पुष्पों का एक साथ मिलना अलका के सौन्दर्य की अभिवृद्धि करता है। कमल, कुन्द, लोघ्र, कुरबक, शिरीष एवं कदम्ब के पुष्प वहाँ की स्त्रियों के आभूषण हैं-
‘‘हस्ते लीलाकमलमलके बालकुन्दानुविद्धं
नीता लोघ्रप्रसवरजसा पाण्डुतामानने श्रीः।
चूडापाशे नवकुरबकं चारूकर्णे शिरीषं
सीमन्ते च त्वदुपगमजं यत्र नीपं वधूनाम्।।’’ 4
ध्यातव्य है कि कमल ग्रीष्म एवं शरद् में खिलता है। कुन्द हेमन्त में, लोघ्र शिशिर में, कुरबक वसन्त में, शिरीष ग्रीष्म में और कदम्ब वर्षा में विकसित होता है परन्तु अलकापुरी में ये पुष्पसमुदाय सदैव प्रस्फुटित होते हैं तभी तो स्त्रियाँ आभूषण के रूप में इसका प्रयोग करती हैं।
कवि ने अलकापुरी के प्राकृतिक सौन्दर्य का विशद् वर्णन किया है। अलकापुरी के वृक्ष सदा पुष्पों से युक्त एवं मतवाले भ्रमरों से गुंजायमान रहते हैं। मोर सदैव कूजते हैं, कमलनियाँ खिली रहती हैं, रत्नजडित बावड़ियाँ हैं, हंसों की पंक्ति शोभायमान रहती हैं, रात्रियाँ नित्य चाँदनी से युक्त हैं। अलका के लोगों की आँखों में हर्ष के आँसू हैं, काम-सन्ताप रूपी ताप हैं, प्रणय-कलह रूपी कलह हैं तथा केवल यौवनावस्था हीं विद्यमान है। यक्ष-यक्षिणी कल्पद्रुम से उत्पन्न रतिफल नामक मदिरा का सेवन करते हैं। वहाँ की कन्याएँ गंगातट पर सैकत में मणियाँ छुपाने का खेल खेलती हैं -
‘‘मन्दाकिन्याः सलिलशिशिरैः सेव्यमाना मरू˜ि
र्मन्दाराणामनुतटरूहां छायया वारितोष्णाः।
अन्वेष्टव्यैः कनकसिकतामुष्टिनिक्षेपगूढै
संक्रीडन्ते मणिभिरमरप्रार्थिता यत्र कन्याः।।’’5
अलका के बाहरी भाग में वैभ्राज नामक उद्यान है जिसमें कामी जन वैश्याओं के साथ संगीत-सुख का आनन्द लेते हैं। काम व्यापार में लज्या से मूढ नायिकाएँ रत्नदीप बुझाने की असमर्थ कोशिश करती हैं। कवि के हीं शब्दों में -
‘‘नीवीबन्धोच्छवसित शिथिलं यत्र बिम्बाधराणां
क्षौमं रागादनिभृतकरेष्वाक्षिपत्सु प्रियेषु।
अर्चिस्तुङ्गानभिमुखमपि प्राप्यरत्नप्रदीपान्
हªीमूढानां भवति विफलप्रेरणा चूर्णमुष्टिः।।’’ 6
अलका ऐश्वर्य की खान है। स्त्रियों की रतिजन्य थकान को वहाँ चन्द्रकान्त मणियाँ दूर करती हैं। कल्पवृक्ष समस्त प्रसाधन सामग्री को उत्पन्न कर देता ळें
वासश्चित्रं मधु नयनयोर्विभ्रमादेशदक्षं
पुष्पो˜ेदं सह किसलयैर्भूषणानां विकल्पम्।
लाक्षारागं चरणकमलन्यासयोग्यं च यस्या
मेकः सूते सकलमबलामण्डनं कल्पवृक्षः।। 7
वहाँ के घोड़े सूर्य के घोड़े से बराबरी करने वाले हैं, हाथी भीमकाय एवं मदवर्षी हैं। वहाँ के योद्धा युद्धघाव के निशान के सामने आभूषण पहनना नहीं चाहते। निश्चित रूप से अलका की सैन्यशक्ति मजबूत है। कवि अलका के वर्णन के प्रसंग में यह कहते हैं कि वहाँ के योद्धा ‘रावण’ से लड़ चुके हैं -
‘‘पत्र श्यामा दिनकरहयस्पर्धिनो यत्र वाहाः
शैलोदग्रास्त्वमिव करिणो वृष्टिमन्तः प्रभेदात्।
योधाग्रण्यः प्रतिदशमुखं संयुगे तस्थिवांसः
प्रत्यादिष्टाभरणरूचयश्चन्द्रहासव्रणाङ्कैः।।’’ 8
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि अलका का सौन्दर्य वर्णन के प्रसंग में कवि ने वहाँ के सात मंजिले महल, वहाँ के निवासियों, वहाँ के खेल, वहाँ की प्रकृति तथा पशु-पक्षी एवं योद्धा का वर्णन अत्यन्त उदात्त एवं उत्तेजक किया है। अलका कुबेर की नगरी है, कुबेर धन के देवता हैं, वहाँ शिव का सान्निध्य है अतएव वहाँ दुःख-दर्द का नाम-ओ-निशान नहीं मिलता। इस काल्पनिक नगरी के विवेचन में महाकवि कालिदास ने प्रेम की दिव्य अभिव्यक्ति की है। यद्यपि यक्षों के उत्तम स्त्रियों के साथ मधुपान और देवांगनाओं के प्रसाधन तथा उपभोग में ऐन्द्रिक वासना की अभिव्यक्ति हुई है तथापि भारतीय शास्त्रानुसार देव, यक्ष, किन्नरादि मानवेतर योनि के लिए यह काव्य में प्रसंगानुकूल है और कालिदास ने यक्ष और यक्ष पत्नी की पारस्परिक निष्ठा में प्रेम की अभिव्यक्ति की है। विरह प्रेम के वासना मल को जलाकर दिव्य कुन्दन बना देता है। परस्पर समर्पण, त्याग एवं कत्र्तव्य की भावना ही प्रेम को अनश्वर दिव्य बनाती है। कालिदास का यही अभीष्ट है। निश्चित रूप से हम कह सकते हैं कि कल्पना की ऊँची उड़ान में कवि को सफलता मिली है।
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सन्दर्भ:-
1. मेघदूतम् (कालिदास कृत) - 1/66
2. तत्रैव 1/7
3. तत्रैव 2/1
4. तत्रैव 2/2
5. तत्रैव 2/6
6. तत्रैव 2/7
7. तत्रैव 2/12
8. तत्रैव 2/13
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