हितोपदेशे (मित्रलाभः)



1. विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्।
  पात्रत्वाद्धनमाप्नोति    धनाद्धर्मं ततः सुखम्।।
भाषानुवाद:- विद्या मनुष्य को विनम्रता देती है। वह विनम्रता से योग्यता, योग्यता से धन, धनसे धर्म और धर्म से सुख प्राप्त करता है।
2. विद्या शस्त्र´्च शस्त्रा´्च  द्वे विद्ये प्रतिपत्तये।
   आद्या हास्याय वृद्धत्वे द्वितीयाऽऽद्रियते सदा।।
भाषानुवाद:- संसार में दो प्रकार की विद्याएँ प्रसिद्ध हैं - शस्त्रविद्या और शास्त्रविद्या। प्रथम शस्त्र विद्या बुढ़ापे में (सामथ्र्यहीन होने पर) हँसी कराती है जबकि दूसरी शास्त्र विद्या हमेशा आदर दिलाती है।
3. अजरामरवत्प्राज्ञो विद्यामर्थं च चिन्तयेजत्।
   गृहीत इव केशेषु   मृत्युना धर्ममाचरेत्।।
भाषानुवाद:- विद्वानों को चाहिए कि वह अपने अजर अमर जानकर विद्या और धन की चिन्ता करे एवं मौत ने बाल पकड़ लिया है ऐसा मानते हुए धर्म का आचरण करे। भाव है कि विद्या और धन संचय में यदि विलम्ब होता है तो हो परन्तु धर्माचरण में विलम्ब नहीं करना चाहिए।
4. अनेकसंशयोच्छेदि       परोक्षार्थस्य दर्शकम्।
   सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्त्यन्ध एव सः।।
भाषानुवाद:- अनेक सन्देहों को दूर करने वाला तथा परोक्ष विषय का भी ज्ञान कराने वाला शास्त्र हीं सबका वास्तविक नेत्र है और जिसके पास शास्त्र रूपी आँख नहीं है वही इस संसार में अँधा है।
5. यौवनं धनसम्पत्तिः   प्रभुत्वमविवेकिता।
   एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम्।।
भाषानुवाद:- नई जवानी, धन की अधिकता, प्रभुत्व और अविचार , इनमें एक भी अनर्थ के लिए पर्याप्त है किन्तु जहाँ चारों मौजूद हों वहाँ अनर्थ तो अवश्वम्भावी है।
6. गुणिगणगणारम्भे पतति न कठिनी सुसम्भ्रामाद्यस्य।
   तेनाम्बा यदि सुतिनी  वद वन्ध्या कीदृशी भवति।।
भाषानुवाद:-  गुणवानों की गिनती के समय जिस पुरूष का नाम सर्वप्रथम न लिखा जाय या अनामिका अंगुलि पर न गिना जाय और यदि ऐसे पुत्र की माता पुत्रवती कहलाए तो कहो इस संसार में वन्ध्या(बाँझ) किसे कहेंगे।
7. वरमेको गुणी पुत्रो      न च मूर्खशतान्यपि।
   एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति न च तारागणोऽपि च।।
भाषानुवाद:- सैकड़ों मूर्ख पुत्रों से एक गुणवान् पुत्र अच्छा है क्योंकि एकमात्र चन्द्रमा अंधकार को दूर कर देता है करोड़ों तारे अंधकार को दूर करने में समर्थ नहीं होते।
8. अर्थागमो नित्यमरोगिता च      प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च।
  वश्यश्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या, षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन्।।
भाषानुवाद:- नित्य धनागम, स्वस्थ शरीर,  प्रियतमा तथा प्रिय बोलने वाली पत्नी, आज्ञाकारी पुत्र और अर्थकरी विद्या ये छः वस्तुएँ संसार में प्राणियों को सुख दिलाती हैं।

9. दाने तपसि शौय्र्ये च यस्य न प्रथितं मनः।
  विद्यायामर्थलाभे च   मातुरूच्चार एव सः।।
भाषानुवाद:- जिस पुत्र का मन दान, तपस्या, वीरता, विद्योपार्जन और धनोपार्जन में न लगा, वह पुत्र माता के मल के समान है अर्थात् मूर्ख पुत्र का जन्म लेना व्यर्थ है।
10. यस्य कस्य प्रसूतोऽपि गुणवान् पूज्यते नरः।
   धनुर्वंशविशुद्धोपि   निर्गुगुणः किं करिष्यति।।
भाषानुवाद:- गुणवान् मनुष्य जिस किसी भी कुल में जन्म ले वह संसार में प्रतिष्ठित होता है अच्छे वंश (बाँस) का बना हुआ धनुष भी विना गुण (डोरी) के किसी काम का नहीं होता।
11.आहारनिद्राभयमैथुन´्च      सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम्।
  धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धम्र्मेण हीनाः पशुभिः समाना।।
भाषानुवाद:- भोजन, नींद, भय और मैथुन ये चारों व्यवहार मनुष्य और जानवर में समान रूप से दिखाई देते हैं। केवल धर्म हीं मनुष्य को पशुओं से अलग करता है। इसलिए धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान होते हैं।
12. यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत्।
    एवं पुरूषकारेण विना दैवं न सिध्यति।।
भाषानुवाद:- जिस प्रकार रथ की गति एकमात्र पहिये से नहीं हो सकती उसी प्रकार परिश्रम के विना भाग्य फल नहीं देता।
13. उद्यमेन हि सिध्यन्ति काय्र्याणि न मनोरथैः।
   न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।।
भाषानुवाद:- परिश्रम करने से हीं कार्य सफल होते हैं सिर्फ इच्छा करने से नहीं। जिस प्रकार सोये हुए शेर के मुँह में जानवर प्रवेश नहीं करते।
14. मातृपितृकृताभ्यासो गुणितामेति बालकः।
   न गर्भच्युतिमात्रेण पुत्रो भवति पण्डितः।।
भाषानुवाद:- माता-पिता के अभ्यास कराने पर हीं बालक विद्वान् होता है, गर्भ से निकलते हीं पुत्र विद्वान् नहीं हो जाता।
15. माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः।
   न शोभते सभामध्ये   हंसमध्ये बको यथा।।
भाषानुवाद:- जिन माता-पिता ने अपने बच्चों को नहीं पढ़ाया वे माता-पिता अपने बच्चों के शत्रु कहे जाते हैं और वह बच्चा उसी प्रकार विद्वानों की सभा में आदर नहीं पाता हे जैसे हंसों के बीच बगुला शोभायमान नहीं होता।
16. रूप-यौवनसम्पन्ना   विशाल-कुलसम्भवाः।
   विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः।।
भाषानुवाद:- रूप और जवानी से युक्त, उच्च कुल में उत्पन्न विद्या से विहीन मनुष्य निर्गन्ध पलाश के फूल के समान शोभायमान नहीं होता।
17.कीटोऽपि सुमनः संगादारोहति सतां शिरः।
  अश्माऽपि याति देवत्वं मह˜िः सुप्रतिष्ठितः।।
भाषानुवाद:- फूलों के साथ कीड़ा भी सज्जनों के शिर पर आरूढ़ हो जाता है और महान् लोगों के द्वारा प्रतिष्ठित पत्थर  भी देवत्व का भाव प्राप्त कर लेता है।
18. यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवाणि निषेवते।
  ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवं नष्टमेव च।।
भाषानुवाद:- जो व्यक्ति निश्चित पदार्थ को छोड़कर अनिश्चित की ओर जाता है, उसका निश्चित पदार्थ नष्ट हो जाता है और अनिश्चित तो नष्ट ही है।
19. धनेन किं यो न ददाति नाश्नुते
           बलेन किं यश्च रिपून् न बाधते।
   श्रुतेन किं यो न च धर्ममाचरेत्
          किमात्मना यो न जितेन्द्रियो भवेत्।।
भाषानुवाद:- धनवान् के उस धन का क्या जो न दान देता है और न उपभोग करता है। बलवान् के उस बल का क्या जो शत्रु को परास्त नहीं करता। जो विद्वान् धर्म का आचरण नहीं करता उसकी विद्या का क्या फल? और जो अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं रख सकता उसके जीवन का क्या औचित्य?
20. संसारविषवृक्षस्य   द्वे  एव रसवत्फले।
   काव्यामृतरसास्वादः संगमः सुजनैः सह।।
भाषानुवाद:- इस संसार रूपी वृक्ष के दो ही रसयुक्त फल हैं - प्रथम काव्यरूप अमृतरस का आस्वादन और द्वितीय सदा सज्जनों की संगति।
21. बालो वा यदि वा वृद्धो युवा वा गृहमागतः।
    तस्य पूजा विधातव्या सर्वस्याभ्यागतो गुरुः।।
भाषानुवाद:- बालक, वृद्ध, युवा कोई भी यदि द्वार पर आ जाय तो उसका उचित सत्कार अवश्य करना चाहिए क्योंकि अतिथि सभी के पूजनीय होते हैं।
22. यस्मिन्देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बान्धवः।
  न च विद्यागमः कश्चित् तं देशं परिवर्जयेत्।।
भाषानुवाद:- जिस स्थान पर सम्मान, जीविका, मित्र और किसी तरह की विद्या की प्राप्ति न हो उस स्थान को त्याग देना चाहिए।
23. लोकयात्रा भयं लज्जा दाक्षिण्यं त्यागशीलता।
   पंच यत्र न विद्यन्ते  न कुर्यात्तत्र संस्थितम्।।
भाषानुवाद:- जिस स्थान में जीविका, राजभय, लज्जा, चतुरता और दानशीलता ये पाँच न हो वहाँ निवास नहीं करना चाहिए।
24. तत्र मित्र न वस्तव्यं यत्र नास्ति चतुष्टयम्।
   ऋणदाता च वैद्यश्च श्रोत्रियः सजला नदी।।
भाषानुवाद:- हे मित्र ! जहाँ ऋण देनेवाला, चिकित्सक, वेदज्ञब्राह्मण और सजला नदी ये चार न हों वहाँ वास नहीं करना चाहिए।



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