कहानी: अंतिम आशा

कहानी: अंतिम आशा डॉ. धनंजय कुमार मिश्र ---------------- नेहा की आँखें थकी हुई थीं, चेहरा उदास और कपड़े धुले हुए होकर भी पुराने थे। परंतु इन सबसे अधिक फीका था उसका वह सपना, जो वर्षों से पालती आई थी एक अदद सरकारी नौकरी। यह नौकरी कोई विलास नहीं थी, बल्कि एक तिनके जैसी डूबते घर की नाव के लिए अंतिम सहारा थी। घर की हालत ऐसी थी कि दीवारें तक उधारी में जीती थीं। एक छोटा-सा आँगन, जिसमें एक तरफ टूटी हुई चौकी पड़ी थी, और दूसरी ओर पिता गोविन्द सिन्हा का खाँसता हुआ शरीर। नेहा जब रात में पढ़ती थी, तो उसकी भाभी माया जिसकी विद्या बस चूल्हे तक ही थी - ताने देने लगती, “दिन भर किताबों से चिपकी रहती है। भइया तो छत पर सीमेंट गिन रहे हैं, और मैडम यहाँ अफसर बनने चली हैं!” नेहा चुप रहती। चूल्हा जलाने से पहले वह अपने अन्दर जल चुकी होती थी। रामू, उसका भाई, जो पिता की उम्मीदों का पहला दीपक था, अब बुझे हुए दीयों में शामिल था। ठेकेदारी में उसका भविष्य ऐसा फँसा कि आज उसने अपना घर तक चौधरी टाइप बना लिया था। मोहल्ले में “रामू भइया” की दहाड़ थी, पर घर में पिता की दवाइयों तक की सुध नहीं थी। नेहा के लिए न उसका भाई ठहरा...