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Showing posts from 2025

कहानी: अंतिम आशा

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 कहानी: अंतिम आशा डॉ. धनंजय कुमार मिश्र ---------------- नेहा की आँखें थकी हुई थीं, चेहरा उदास और कपड़े धुले हुए होकर भी पुराने थे। परंतु इन सबसे अधिक फीका था उसका वह सपना, जो वर्षों से पालती आई थी एक अदद सरकारी नौकरी। यह नौकरी कोई विलास नहीं थी, बल्कि एक तिनके जैसी डूबते घर की नाव के लिए अंतिम सहारा थी। घर की हालत ऐसी थी कि दीवारें तक उधारी में जीती थीं। एक छोटा-सा आँगन, जिसमें एक तरफ टूटी हुई चौकी पड़ी थी, और दूसरी ओर पिता गोविन्द सिन्हा का खाँसता हुआ शरीर। नेहा जब रात में पढ़ती थी, तो उसकी भाभी माया जिसकी विद्या बस चूल्हे तक ही थी - ताने देने लगती, “दिन भर किताबों से चिपकी रहती है। भइया तो छत पर सीमेंट गिन रहे हैं, और मैडम यहाँ अफसर बनने चली हैं!” नेहा चुप रहती। चूल्हा जलाने से पहले वह अपने अन्दर जल चुकी होती थी। रामू, उसका भाई, जो पिता की उम्मीदों का पहला दीपक था, अब बुझे हुए दीयों में शामिल था। ठेकेदारी में उसका भविष्य ऐसा फँसा कि आज उसने अपना घर तक चौधरी टाइप बना लिया था। मोहल्ले में “रामू भइया” की दहाड़ थी, पर घर में पिता की दवाइयों तक की सुध नहीं थी। नेहा के लिए न उसका भाई ठहरा...

अनुपेक्षा (एक मौन प्रेम की कहानी)

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 *अनुपेक्षा* (एक मौन प्रेम की कहानी)      -डाॅ धनंजय कुमार मिश्र  पहाड़ी गाँव के उस पूर्वमुखी आँगन में तुलसी के पास जलता दीपक काँप रहा था। शिवानी ने धीरे से हाथ जोड़े — न कोई मंत्र, न कोई माँग। बस एक मौन निवेदन। स्कूल से लौटकर यह उसका दैनिक क्रम था। धीरे-धीरे घर में दाख़िल होती संध्या के साथ वह स्वयं भी किसी गहराते अतीत में उतर जाया करती थी। उसका घर अब शांत है, पिता का देहांत वर्षों पहले हो चुका, माँ अब बोलती नहीं — अधकचरे संवादों में बीते जीवन की जड़ें पकड़ने की चेष्टा करती हैं।शिवानी अविवाहित है। चालीस पार कर चुकी है।अब कोई प्रश्न नहीं करता — क्यों नहीं किया विवाह? गाँव की स्मृति ने भी अब उसके अकेलेपन को जीवन का स्वाभाविक हिस्सा मान लिया है। कोई बीस-बाईस वर्ष पहले की बात थी। गाँव में स्वास्थ्य शिविर लगा था।वहीं पहली बार अनिरुद्ध से भेंट हुई —जिला अस्पताल से आए युवा चिकित्सक। नितांत शालीन, संयमी, शिष्ट। उस दिन उसने एक बच्ची के हाथ में पट्टी बाँधते समय कहा था —“दर्द जब भीतर तक चला जाए, तो बाहर की मरहम देर से काम करती है।”शिवानी वहीं खड़ी थी — पहली बार सुनते हुए किसी ...

गेरुए वस्त्रों में जलती चेतना

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 *गेरुए वस्त्रों में जलती चेतना* प्रस्तुति : डॉ धनंजय कुमार मिश्र ,विभागाध्यक्ष संस्कृत ,एस के एम विश्वविद्यालय दुमका झारखंड  ------------- हरिद्वार — गंगातट पर बसा एक नगर, जहाँ नदी नहीं, श्रद्धा बहती है; जहाँ जल में स्नान नहीं, आत्मा का परिष्कार होता है। ऐसे ही एक गंगातट के समीप, एक जीर्ण-शीर्ण आश्रम की परछाईं में, एक संन्यासी मौन तप में रत है। न कोई ताम्रपत्र, न कोई प्रसिद्धि; फिर भी, उसके शिष्यों के हृदयों में वह एक जीवित शास्त्र की तरह प्रतिष्ठित है। यह कथा उसी की है — एक संवेदनशील बालक से संन्यासी विद्वान बनने तक की, जिसमें भूख, त्याग, विद्या, आत्मसंघर्ष, और ब्रह्मानुभूति के अनेक सोपान हैं। दक्षिण भारत के एक छोटे गांव में जन्मा वह बालक अपनी माँ के अत्यंत स्नेहिल आँचल में पला। माँ संस्कृत की अनपढ़ उपासिका थीं, पर आत्मा से पूर्ण विदुषी — उनका दिन तुलसी और रामायण के पाठ से आरंभ होता और अंत श्लोकों की गुनगुनाहट में। बालक को वेदपाठ सिखाने की उनकी ललक, जैसे उस बालक के भाग्य का बीज थी। माँ के असमय निधन ने संसार का मानचित्र ही पलट दिया। पिता, जो स्वयं एक संन्यासभाव से ग्रसित गृहस...

संतप्त सावन की ईशा

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 *"संतप्त सावन की ईशा"* प्रस्तुति: डॉ धनंजय कुमार मिश्र ,विभागाध्यक्ष संस्कृत ,एस के एम विश्वविद्यालय दुमका झारखंड  __________ हर साल सावन जब हरियाली की चादर ओढ़े धरती को शीतल करता, तब साहिबगंज में गंगा किनारे बैठे डॉ. सिन्हा की स्मृतियों की गहराइयों से एक चेहरा उभर आता — वह चेहरा जो कभी ज्ञान की प्यास लिए उनके सामने बैठा करता था… ईशा । उस दिन घाट पर बारिश की बूँदें गंगा की सतह पर हल्के-हल्के गिर रही थीं। एक चायवाले की आवाज़, कहीं दूर मंदिर की घंटियों की गूंज, और सामने बहती गंगा… डॉ. सिन्हा ने अपनी पुरानी डायरी खोली और लिखा : “कुछ लोग जीवन में आते हैं जैसे बादल — हल्के, चुपचाप, गहराई छोड़ जाते हैं… ईशा हेम्ब्रम वैसी ही थी।” ईशा झारखंड के पाकुड़ जिले के एक उपेक्षित आदिवासी गाँव की लड़की थी। जन्म से संताल, धर्म से ईसाई। पिता एलेक्स हेम्ब्रम, एक मेहनतकश साक्षर पुरुष, जो पास की कोयले की खदान में बतौर बाबू काम करते थे। माँ सोनामुनी सोरेन — एक मिट्टी सने हाथों में ममता का दूध समेटे नारी, जो हर रविवार चर्च की  प्रार्थना सभा में जाती और फिर जंगल की ओर जलावन बीनने चली जाती। घर छोट...

बाबा भोलेनाथ को प्रिय है बेलपत्र

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 *बाबा भोलेनाथ को प्रिय है बेलपत्र* डॉ. धनंजय कुमार मिश्र (विभागाध्यक्ष, संस्कृत, सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय, दुमका) --- श्रावण मास भारतीय जनमानस में आस्था, श्रद्धा और शिवत्व का अनुपम संगम है। वर्षा की पहली बूँदों के साथ ही जब धरती हरियाली से आच्छादित होती है, तब भक्तों का मन बाबा भोलेनाथ की भक्ति में डूब जाता है। जल, वायु, वनस्पति और चेतना — सब कुछ जैसे "हर हर महादेव" की गूंज में एकरूप हो जाता है। इस मास में बेलपत्र का विशेष महत्व है — जो न केवल शिव को प्रिय है, बल्कि भक्त और भगवान के भावनात्मक सेतु का प्रतीक भी। *बेलपत्र का पौराणिक आधार* स्कन्दपुराण में वर्णित कथा के अनुसार, एक बार तपस्यारत माता पार्वती के पसीने की एक बूंद मंदराचल पर्वत पर गिरी। उसी स्थान पर बेलवृक्ष उत्पन्न हुआ। अतः यह वृक्ष न केवल वनस्पति है, बल्कि शिव-पार्वती के दिव्य सान्निध्य का साक्षात प्रतीक है। बेल के जड़ में गिरिजा का वास है,तनों में माहेश्वरी,शाखाओं में दक्षिणायनी और पत्तियों में पार्वती स्वयं विराजती हैं। इसीलिए बेलपत्र केवल पत्ता नहीं, भक्ति का पुष्प है। इसे जब भक्त श्रद्धा से शिवलिंग पर अ...

द्वादश ज्योतिर्लिंग नाम स्मरण मात्र से भी होता है भक्त का कल्याण

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 *द्वादश ज्योतिर्लिंग नाम स्मरण मात्र से भी होता है भक्त का कल्याण* डॉ. धनंजय कुमार मिश्रविभागाध्यक्ष, संस्कृत विभाग,एस के एम विश्वविद्यालय, दुमका, झारखंड ------ --------- "न भूतो न भविष्यति" — यह वाक्य शिवतत्त्व की उस व्यापकता का परिचायक है, जो संपूर्ण सृष्टि के मूल में अंतर्निहित है। त्रिलोक के अधिपति, कालों के नियंता और पंचमहाभूतों के एकमात्र नियामक भगवान शिव अपने बारह दिव्य ज्योतिर्लिंग रूपों में आज भी उसी भव्यता से पूजित हैं, जैसे आदिकाल में थे। श्रद्धा और भक्ति के केन्द्र ये द्वादश ज्योतिर्लिंग, न केवल तीर्थ रूप में बल्कि एक आध्यात्मिक यात्रा के स्तम्भ हैं। इनका स्मरण मात्र प्राणियों के भीतर सुप्त ब्रह्मचेतना को जाग्रत करता है। जीवन की व्याधियों, तापों और विकारों से त्रस्त मनुष्य जब शिव के इन दिव्य रूपों का नामोच्चार करता है, तब वह लौकिकता से पार उतरकर आत्मिक शांति का अनुभव करता है। पुराणों, विशेषतः शिवपुराण और स्कन्दपुराण में द्वादश ज्योतिर्लिंगों की महिमा का विशद उल्लेख मिलता है। शिव का प्रत्येक रूप — चाहे वह सोमनाथ हो, महाकाल हो या विश्वनाथ — किसी न किसी गूढ़ तत्त्व ...

सोमवार को शिव उपासना महत्फलदायी

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 *सोमवार को शिव उपासना महत्फलदायी* डॉ. धनंजय कुमार मिश्र (विभागाध्यक्ष, संस्कृत विभाग, सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय, दुमका) ------------- सावन का महीना भारतीय सनातन परम्परा में शिवभक्ति का परम उत्सव है। यह केवल ऋतुओं का संधिकाल नहीं, बल्कि आत्मा और परमात्मा के मिलन का आध्यात्मिक अवसर है। समस्त सृष्टि जब हरियाली से हर्षित होती है, तब भक्तजन शिवोपासना में लीन हो जाते हैं। विशेष रूप से सोमवार के दिन भगवान शिव की उपासना को अति फलदायक माना गया है।  शिव—आदिदेव हैं , अनादि और अनन्त हैं। भगवान शिव सृष्टि के आरम्भ से पूर्व भी थे और प्रलय के पश्चात् भी विद्यमान रहेंगे। वे 'स्वयंभू', अर्थात् स्वयंसिद्ध सत्ता हैं, जिन्हें किसी ने उत्पन्न नहीं किया। पुराणों में वे आदिदेव माने गए हैं — त्रिदेवों में ‘महादेव’ की उपाधि से विभूषित। उनके अंग-अंग में तत्त्वज्ञान समाहित है —  कंठ में कालकूट विष, मस्तक पर चन्द्रमा, जटाओं में गंगा और नेत्रों में ब्रह्माण्ड की अग्नि। मान्यता है कि समुद्र मंथन के समय निकले विष को जब देवता, दानव और मनुष्य कोई भी स्वीकार न कर सके, तब भगवान शिव ने उसे अपने कंठ ...

शिव-साधना : त्रिविध ताप शमन की आध्यात्मिक शक्ति

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 *शिव-साधना : त्रिविध ताप शमन की आध्यात्मिक शक्ति* डॉ धनंजय कुमार मिश्र  ------------- मनुष्य जीवन मूलतः संघर्ष का दूसरा नाम है। यह संघर्ष केवल बाह्य परिस्थितियों से नहीं, अपितु आंतरिक, आध्यात्मिक और दार्शनिक स्तर पर भी निरंतर चलता रहता है। भारतीय चिंतन में इस जीवन-संघर्ष की पीड़ा को 'त्रिविध ताप' के रूप में जाना गया है— दैहिक, दैविक और भौतिक। इन तापों से ग्रस्त मानवता को मुक्ति देने में जो शक्ति सर्वाधिक सक्षम और करुणामयी मानी गई है, वह है शिव-साधना। शिव न केवल विनाश के देव हैं, वरन् वे कल्याण के प्रतीक, ताप-शमन के अधिष्ठाता और आत्मिक शांति के अव्यय स्रोत भी हैं। त्रिविध ताप जीवन-संघर्ष की त्रिकालबद्ध पीड़ा है। यह दैहिक, दैविक और भौतिक के नाम से भारतीय संस्कृति में विख्यात है। (क) दैहिक ताप : शरीर और मन के स्तर पर उत्पन्न पीड़ाएँ — रोग, शोक, ज्वर, मानसिक तनाव, विकार आदि — दैहिक ताप हैं। ये ताप नित्य मनुष्य को उसकी सीमितता का भान कराते हैं। भगवद्गीता (2.14) में कहा गया है — “मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः। आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥” इन क्षणिक तापों ...

नटराज : शिव का ब्रह्माण्डीय नर्तन*

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 *नटराज : शिव का ब्रह्माण्डीय नर्तन* प्रस्तुति: डॉ धनंजय कुमार मिश्र  विभागाध्यक्ष संस्कृत  सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय दुमका झारखंड  ________ नटराज — यह केवल शिव का एक नाम नहीं, बल्कि ब्रह्माण्डीय चेतना का नाद है। यह वह दिव्य प्रतीक है, जो न केवल नृत्य की पराकाष्ठा को दर्शाता है, बल्कि जीवन के उद्गम, विस्तार और संहार का भी गूढ़ बिम्ब प्रस्तुत करता है। ‘नटराज’ शब्द में समाहित है – ‘नट’, अर्थात् कला का विस्तार, और ‘राज’, अर्थात् उसका अधिपति। जब शिव नटराज रूप में प्रकट होते हैं, तो वे स्वयं ब्रह्माण्ड के विराट रंगमंच पर नृत्य करते हुए समस्त सृष्टि को गति, दिशा और चेतना प्रदान करते हैं। शिव का तांडव नृत्य दो स्वरूपों में प्रतिष्ठित है — रौद्र तांडव और आनन्द तांडव। पहला रूप, रौद्र तांडव, उनके प्रचंड क्रोध का प्रतीक है — जिसमें वे त्रिलोक में कंपन भरते हैं, यह संहार का नृत्य है, जिसमें समस्त जगत का विलय हो जाता है। इस रूप में वे रुद्र कहलाते हैं — वे जो रुला सकते हैं, हिला सकते हैं। दूसरा स्वरूप है आनन्द तांडव — जो शिव का नटराज रूप है। यह नृत्य जीवन के प्रस्फुटन का प...

*"मालती" (भारतीय नारी जीवन यात्रा)

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 *"मालती"* (भारतीय नारी जीवन यात्रा) प्रस्तुति : डॉ धनंजय कुमार मिश्र, विभागाध्यक्ष संस्कृत ,सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय दुमका झारखंड  ------------ गोसाईं गांव की मिट्टी में एक सोंधी महक थी। वहीं एक छोटी-सी झोंपड़ी में ब्याह के बाद आई थी मालती। चौदह की उम्र में जब वह तेतरी गांव से ससुराल आई, तो ना साज-श्रृंगार की समझ थी, ना दुनियादारी की। बस थी तो एक अनकही मासूमियत, और भीतर तक समर्पित एक भारतीय स्त्री की छवि। पति राम तपस्वी सिंह—मिट्टी से जुड़ा, सीधा-सादा किसान। खेत में दिन भर हल जोते, शाम को सने हाथों से थाली में दो कौर खाए और चुपचाप सो जाते। कुछ सालों बाद मालती की गोद भरी—सोनू नाम रखा गया बच्चे का। आंगन में उसकी किलकारियां जब गूंजतीं, तो लगता जैसे घर के सूने कोने भी मुस्कुरा उठे हों। मालती के जीवन में फिर से उजाला आया। लेकिन गांव की हवा कब कैसी करवट ले ले, कोई नहीं जानता। गांव का ही भीमा—जो हर चौक-चौराहे पर खड़ा होकर सिगरेट फूंकता, लड़कियों पर फब्तियां कसता था—उसकी नजरें अब मालती पर टिकी थीं। वह जब कभी खेत जाती, या कुएं से पानी भरती, उसकी आँखें पीछा करतीं। एक दिन, सावन...

सावन में शिव-पूजन का कारण और महत्त्व*

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 *सावन में शिव-पूजन का कारण और महत्त्व* प्रस्तुति: डॉ. धनंजय कुमार मिश्र, विभागाध्यक्ष संस्कृत, सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय दुमका, झारखंड  _______ भारतीय सभ्यता ऋतुओं के संग-संग चलती रही है। प्रत्येक मास, हर दिन, हर पर्व भारतीय जनमानस के लिए केवल तिथियों की गणना-पद्धति मात्र नहीं, बल्कि प्रकृति, परमात्मा और पुरुषार्थ के मध्य सामंजस्य की जीवंत परंपरा है। श्रावण मास, जिसे सावन के नाम से जाना जाता है, इसका सर्वाधिक धार्मिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक महत्त्व है। यह मास विशिष्ट रूप से भगवान शिव की आराधना को समर्पित है। जब आकाश में मेघ उमड़ते-घुमड़ते हैं, धरती भीगती है, वृक्ष पुलकित होते हैं और वातावरण सौंधी मिट्टी की गंध से भर उठता है—तब भीतर की चेतना भी किसी अपरिचित आवेग से भीग जाती है। और तभी, वह महाकाल शिव की ओर आकृष्ट होती है, जिनका स्वरूप स्वयं प्रकृति के पंचतत्त्वों का समाहार है। पौराणिक शास्त्रों के अनुसार, श्रावण मास में ही देवों और दानवों द्वारा क्षीरसागर का मंथन हुआ था। मंथन से पहले कालकूट विष निकला, जो इतना भयानक था कि वह समस्त सृष्टि को नष्ट कर सकता था। तब सृष्टि की र...

एकादश रुद्र : भगवान शिव के ग्यारह अद्भुत रूप

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 *एकादश रुद्र : भगवान शिव के ग्यारह अद्भुत रूप*   प्रस्तुति: डॉ धनंजय कुमार मिश्र  विभागाध्यक्ष संस्कृत  सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय दुमका, झारखंड  "ॐ नमो भगवते रुद्राय" जब वेद की ऋचाओं में ‘रुद्र’ का आह्वान होता है, तब वह केवल किसी एक देवता का नाम नहीं होता, वरन् वह विराट ब्रह्म की उन शक्तियों की पुकार होती है, जो सृष्टि को संचालित करती हैं — आश्रय देती हैं, शुद्ध करती हैं और अज्ञान का संहार कर आत्मबोध की ओर ले जाती हैं। इन्हीं दिव्य शक्तियों का नाम है — एकादश रुद्र। एकादश रुद्र शिव की महाशक्ति के अंश हैं। ‘रुद्र’ नाम का प्रथम उल्लेख वेदों में आता है — वह तेजस्वी, उग्र, किन्तु करुणामय रूप जो चिकित्सा का अधिपति भी है और विध्वंस का कारण भी। पुराणों ने इस रुद्र रूप को विस्तार देते हुए शिव के ग्यारह रूपों की कल्पना की, जो शिव के ही विभिन्न आयाम हैं। ये एक ओर जहाँ संहार के प्रतीक हैं, वहीं दूसरी ओर आध्यात्मिक चेतना और कल्याणकारी ऊर्जा के भी अधिष्ठाता हैं। शिवपुराण में वर्णित एकादश रुद्र निम्नलिखित हैं — 1. कपाली — मुण्डमालाधारी, मृत्यु और मोक्ष के पारदर्शक। 2. ...

सावन शिव

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  जुलाई 21, 2025. प्रभात खबर दुमका 

शिव : शून्य से पूर्णता तक

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 *"शिव  : शून्य से पूर्णता तक"* शुरुआत वहीं से होती है, जहाँ कुछ भी नहीं होता...। जब सृष्टि नहीं थी, जब शब्द भी मौन था, जब काल का चक्र भी स्थिर था — तब भी शिव थे। शिव का अर्थ ही है — कल्याण, शुभता, शांति और अनंत चेतना। वे न आदि हैं, न अंत। वे न केवल एक देवता हैं, बल्कि संपूर्ण भारतीय दर्शन की आत्मा हैं। शैव दर्शन का अर्थ है — शिव के माध्यम से सृष्टि, आत्मा और मोक्ष को समझने की कोशिश। यह दर्शन कहता है — "शिव ही ब्रह्म हैं, और वही आत्मा भी हैं।" शिव न कहीं बाहर हैं, न किसी मंदिर में बंद हैं। वे हर जीव में, हर कण में, हर श्वास में हैं। वे निर्गुण भी हैं, सगुण भी। वे ध्यान में स्थिर हैं — पर नटराज बनकर तांडव भी करते हैं। वे भस्म रमाने वाले वैरागी भी हैं — और पार्वती के साथ गृहस्थ जीवन जीने वाले योगी भी। शिव का रूप एक जीवंत प्रतीक है। शिव का हर रूप एक संदेश है - त्रिनेत्र – ज्ञान, चेतना और भविष्य की दृष्टि। गंगा जटाओं में – जीवन को संतुलित करने की कला। सर्प हार में – भय से परे होने का प्रतीक। चन्द्रमा – सौम्यता और शीतलता। त्रिशूल – इच्छा, क्रिया और ज्ञान की शक्ति। तुलसीद...

"रुद्राष्टकम्” – केवल स्तुति नहीं, एक आत्म-प्रस्फुटन है…

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 *“रुद्राष्टकम्” – केवल स्तुति नहीं, एक आत्म-प्रस्फुटन है…*   डॉ धनंजय कुमार मिश्र*  ___________ श्रीरामचरितमानस के रचयिता महाकवि गोस्वामी तुलसीदास केवल राम के परमभक्त नहीं थे, वे आत्मज्ञानी संत थे, जिनके हृदय में राम और शिव समान भाव से निवास करते थे। "रुद्राष्टकम्" की रचना न केवल एक स्तुति है, यह तुलसीदास के अपने जीवन के एक गहन अनुभव की भावनात्मक परिणति है। मान्यता है कि जब तुलसीदास वाराणसी में श्रीकाशीविश्वनाथ के दर्शन हेतु आए, तो वहाँ उन्होंने भगवान शिव की भव्य स्वरूप को देखकर हृदय से प्रणाम किया। उनके मुख से स्वतः निकला — "नमामीशमीशान निर्वाणरूपं…" और एक के बाद एक श्लोक, जैसे कोई भीतर की नदी उमड़कर बाहर बह निकली हो। वे उस क्षण भाव-विभोर थे। आँखें अश्रुपूरित, स्वर में कम्पन और अंतरात्मा में शिव का साक्षात् अनुभव। शिव के विराट, निर्विकार, दयालु और सबको तारने वाले स्वरूप को जब उन्होंने प्रत्यक्ष अपनी चेतना में अनुभव किया, तब रुद्राष्टकम् का सृजन एक भावावेश बन गया। शिवजी की कृपा से ही तुलसीदास को रामकथा की रचना का आदेश प्राप्त हुआ था। एक प्रसंग के अनुसार, तुलसीदास ज...

विद्यापति और उगना महादेव

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 *विद्यापति और उगना महादेव की कथा : भक्ति, करुणा और कृपा की अमर गाथा* मिथिलांचल की धरती पर अनेक ऋषियों, कवियों और भक्तों ने जन्म लिया, परन्तु विद्यापति जैसा भक्त विरला ही होता है, जिसकी भक्ति ने स्वयं भगवान को अपने पास बुला लिया। यह कथा न केवल भगवान शिव के कृपालु स्वभाव की साक्षी है, अपितु यह दर्शाती है कि सच्ची प्रेमभक्ति के आगे देवताओं की भी वंदनशीलता अनिवार्य हो जाती है। लोकविश्वास में प्रसिद्ध है कि भगवान शिव, विद्यापति की अखंड और आत्मगर्भित भक्ति से इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने स्वयं उनके गृह-भृत्य बनने का संकल्प कर लिया। वे 'उगना' नामक एक साधारण ग्वाले के वेश में उनके घर आ पहुँचे और सेवा का दायित्व ग्रहण किया। कौन जानता था कि यह साक्षात् कैलासपति अपनी जटाओं और त्रिशूल को त्याग कर, भक्त के गृह में अपने को समर्पित कर रहे हैं? एक दिन की बात है। तेज धूप में यात्रा करते हुए विद्यापति को तीव्र प्यास लगी। जल कहीं उपलब्ध न था। उन्होंने उगना से जल माँगा। उगना एक क्षण चुप रहा, फिर अपने केशों को झटकते हुए अपनी जटाओं से निर्मल गंगाजल निकालकर विद्यापति को अर्पित कर दिया। विद्यापति चकि...

बोल बम यात्रा : श्रद्धा, साधना और शिवत्व का सामूहिक उत्सव

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 बोल बम यात्रा : श्रद्धा, साधना और शिवत्व का सामूहिक उत्सव प्रस्तुति : डॉ. धनंजय कुमार मिश्र (अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, सिदो कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय, दुमका) --- श्रावण मास का आगमन मात्र ही प्रकृति में भक्ति की सुवास भर देता है। नदियाँ गुनगुनाने लगती हैं, बादल शिव-ध्वनि में रमने लगते हैं और दिशाएँ “हर-हर महादेव” की प्रतिध्वनि में नत हो जाती हैं। ऐसे ही माह में आरंभ होती है— बोल बम यात्रा— एक तप, त्याग, त्राण और त्रिविध भक्ति का सामूहिक उत्सव, जो भारत की आध्यात्मिक चेतना का जीवंत प्रतीक है। *श्रद्धा की अग्नि-रेखा* झारखंड के देवघर स्थित बाबा बैद्यनाथ धाम तक पहुँचने की यह यात्रा कोई सामान्य तीर्थयात्रा नहीं, यह तो आत्मा की तीव्र पुकार है। श्रद्धालु सुल्तानगंज से गंगा जल लेकर लगभग 105 किलोमीटर की दूरी नंगे पाँव तय करते हैं। शरीर थकता है, पाँव छिलते हैं, पर “बोल बम! हर-हर महादेव!” की दिव्य ध्वनि इस समस्त कष्ट को साधना में बदल देती है। यह यात्रा एकांत नहीं, यह तो सामूहिक साधना है — जहाँ हर कांवड़िया एक चलती-फिरती आरती बन जाता है। *पौराणिक गाथा : जब रावण ने अर्पित किया अपना सिर* बाबा बैद...

पावन सावन और शिव का स्वरूप

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 🔱 पावन सावन और  शिव का स्वरूप 🔱 — डॉ. धनंजय कुमार मिश्र श्रावण मास का आरम्भ होते ही भारतीय जनमानस की आस्था की धारा जैसे गंगोत्री से फूट पड़ती है। यह मास न केवल ऋतु-सौंदर्य का आलंबन है, वरन् परम तपस्वी, भूतभावन, आशुतोष भगवान रुद्र के प्रति समर्पण का चरम अनुष्ठान भी है। वर्षा की हर बूँद में भक्ति की गूंज सुनाई देती है। आकाश में उमड़ते घन, भूमि की शीतलता, वनस्पतियों का हरापन — ये सब प्रकृति की ओर से भोलेनाथ के स्वागत का भावमय अभिनंदन है। शिव को समर्पित यह महीना ऋचाओं, स्तुतियों, अभिषेकों और जलार्पणों से गुंजरित रहता है। विशेष रूप से रुद्राभिषेक और बेलपत्र अर्पण का जो विधान है, वह शिव-भक्ति की शुद्धतम परम्परा का परिचायक है। कहते हैं — "पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति" — जो भक्तिपूर्वक केवल जल ही अर्पित करे, उसे भी प्रभु स्वीकार करते हैं। सावन में रुद्राक्ष का विशेष महत्त्व है। यह केवल एक प्राकृतिक बीज नहीं, वरन् शिव के नेत्रों की अश्रुधारा का प्रतीक है। रुद्राक्ष धारण करना, उसे माला के रूप में जपना, शिव की उपासना का गूढ़ आध्यात्मिक पक्ष है। तांत्रिक परम्पराओं में...

लोक प्रचलन में अशुद्ध प्रयोगों से भाषा की शुद्धता पर प्रभाव: एक भाषिक अनुशीलन

भूमिका भाषा केवल संप्रेषण का साधन नहीं, अपितु एक संस्कृति, परंपरा और चिंतन की वाहिका होती है। किसी भी भाषा की शक्ति उसके व्याकरण और शुद्ध रूपों में निहित होती है। जब शुद्धता को त्याग कर "प्रचलन" को ही आधार मान लिया जाता है, तब भाषा की मूल आत्मा विकृत होने लगती है।  --- 1. भाषा और व्याकरण का संबंध संस्कृत व्याकरण, विशेषतः पाणिनीय प्रणाली, भाषा को न केवल स्वरूप प्रदान करता है, अपितु उसके विकास की दिशा भी तय करता है। शुद्धता, क्रम और नियम ही भाषा की आत्मा हैं। - -- 2. पाणिनीय सूत्रों का संक्षिप्त विवेचन 5.1.117 राष्ट्रापारावारघखौ – राष्ट्र, अपार, पार, आवार, घ, ख – इन शब्दों पर इयङ् प्रत्यय के प्रयोग का विधान। 5.1.120 इयङ् – जहाँ पूर्वपद में घ, ख आदि हो, वहाँ इयङ् प्रत्यय जुड़ता है। जैसे – राष्ट्र + इय → राष्ट्रिय ---  3. भाष्यकारों की दृष्टि काशिका, सिद्धांत कौमुदी, महाभाष्य आदि में 'राष्ट्र + इय = राष्ट्रिय' को शुद्ध रूप में स्वीकार किया गया है। ‘राष्ट्रीय’ उच्चारण और प्रचलन से बना है, जो व्याकरण के नियमों के अनुरूप नहीं है। ---  4. उदाहरणों का संग्रह    शुद्ध -...

आज सीखते हैं षड्यंत्र

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 *आज सीखते हैं षड्यंत्र* षड्यंत्र= षट्+यन्त्र  षड्यंत्र शब्द प्राचीन संस्कृत में नहीं मिलता।माना जाता है कि इसकी उत्पत्ति बौद्धों की तंत्र-मंत्र विधियों से हुई है। षड्यंत्र शब्द का अर्थ है - किसी छिपे हुए या हानिकारक उद्देश्य को पूरा करने के लिए गुप्त योजना बनाना। इसमें अक्सर छल या अवैध गतिविधियां शामिल होती हैं। षड्यंत्र में मूलतः षट् (छ:) यंत्र होते हैं - जारण(जलाना) मारण(मारना)  उच्चाटन, मोहन (वशीकरण), स्तंभन और विध्वंसन । षड्यंत्र दो या दो से ज़्यादा लोगों के बीच तय एक अवैध काम करने के लिए समझौता होता है। षड्यंत्र के दो प्रकार होते हैं - सिविल और आपराधिक। सिविल षड्यंत्र में, लोग दूसरों को धोखा देते हैं या उनके कानूनी अधिकारों के साथ धोखाधड़ी करते हैं। आपराधिक षड्यंत्र में, लोग भविष्य में कानून तोड़ने के लिए समझौता करते हैं। आधुनिक संस्कृत शब्द षड्यंत्र की व्युत्पत्ति क्या है? क्या यह संगठित षड्यंत्र के कुछ प्राचीन 6 उपकरणों की ओर इशारा करता है?  यह शब्द कैसे आया, क्योंकि हमें किसी भी संस्कृत शब्दकोश में इसका सटीक शब्द नहीं मिला। फिर भी, इस शब्द का उपयोग करने वाली...