*"मालती" (भारतीय नारी जीवन यात्रा)

 *"मालती"*

(भारतीय नारी जीवन यात्रा)

प्रस्तुति : डॉ धनंजय कुमार मिश्र, विभागाध्यक्ष संस्कृत ,सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय दुमका झारखंड 

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गोसाईं गांव की मिट्टी में एक सोंधी महक थी। वहीं एक छोटी-सी झोंपड़ी में ब्याह के बाद आई थी मालती। चौदह की उम्र में जब वह तेतरी गांव से ससुराल आई, तो ना साज-श्रृंगार की समझ थी, ना दुनियादारी की। बस थी तो एक अनकही मासूमियत, और भीतर तक समर्पित एक भारतीय स्त्री की छवि। पति राम तपस्वी सिंह—मिट्टी से जुड़ा, सीधा-सादा किसान। खेत में दिन भर हल जोते, शाम को सने हाथों से थाली में दो कौर खाए और चुपचाप सो जाते।

कुछ सालों बाद मालती की गोद भरी—सोनू नाम रखा गया बच्चे का। आंगन में उसकी किलकारियां जब गूंजतीं, तो लगता जैसे घर के सूने कोने भी मुस्कुरा उठे हों। मालती के जीवन में फिर से उजाला आया।

लेकिन गांव की हवा कब कैसी करवट ले ले, कोई नहीं जानता। गांव का ही भीमा—जो हर चौक-चौराहे पर खड़ा होकर सिगरेट फूंकता, लड़कियों पर फब्तियां कसता था—उसकी नजरें अब मालती पर टिकी थीं। वह जब कभी खेत जाती, या कुएं से पानी भरती, उसकी आँखें पीछा करतीं।

एक दिन, सावन की शाम थी। बादलों की गरज में कुछ अनहोनी सी आहट थी। मालती पास के जंगल की ओर शौच के लिए गई थी। तभी झाड़ियों से भीमा निकला और अचानक उसे पकड़ लिया। मालती चीखती रही, संघर्ष करती रही, किसी तरह खुद को छुड़ाकर घर पहुंची। भीगी साड़ी, फटी साँसें, काँपता शरीर—सब कुछ बयां कर रहा था कि कोई अनहोनी हुई है।

पर घर में बात सुनी नहीं गई, जांची गई। "अकेली क्यों गई थी?", "जरूर कोई ढील रही होगी उसके चाल-चलन में!" — सास-ससुर की आँखों में लाचारी नहीं, नफरत झलकने लगी। राम तपस्वी भी चुप थे। वह जानने की बजाय झुंझलाने में लगे थे।

मालती के जीवन का सबसे बड़ा झटका यही था कि उसे ही दोषी ठहराया गया।

सोनू उस समय मुश्किल से डेढ़ साल का था। एक रात, जब सब सो रहे थे, वह अपने बेटे को सीने से लगाकर चुपचाप गंगा की ओर निकल पड़ी। रास्ते भर सिर्फ एक आवाज़ उसके भीतर गूंजती रही—"अब इस दुनिया में हमारे लिए कोई जगह नहीं बची…"

गंगा की लहरें उस रात कुछ अधिक बेचैन थीं। मालती ने अपने आँचल से सोनू को कसकर लपेटा, और जल में उतर गई। एक झोंका आया… संतुलन बिगड़ा… सोनू दूर जा गिरा। चीत्कार हुई… कोई नाविक पास ही मछली पकड़ रहा था… उसने मालती को बाहर खींच लिया। लेकिन जब तक लोग वहाँ पहुँचे, सोनू गंगा की गहराई में खो चुका था।

मालती की आंखों में अब कोई सपना नहीं बचा था। जो कुछ था, वो खो चुका था। उस पर से नाम, लाज, समाज—सबका बोझ। कुछ दिन वह इधर-उधर भटकती रही। भूख से, घुटन से मरती रही। एक सज्जन उसे कहलगांव ले आए और एक छात्रावास में रसोई का काम दिला दिया।

अब वह “माई” नहीं, “माताजी” बन गई थी—छात्रों के लिए एक रसोइया नहीं, एक स्नेहमयी मां। वह अपने हाथों से जब रोटियां सेंकती, तो लगता जैसे ममता को परोस रही हो। बच्चे भी उसे बेहद मानते।

दिन महीनों में बदले, और सालों में। दस-बारह साल ऐसे ही बीत गए। और फिर… एक दिन छात्रावास में एक नया छात्र आया—मनीष। गोरा-चिट्टा, शांत-स्वभाव का, बात कम करता था। लेकिन उसकी आँखें… हां, उसकी आँखें मालती को अतीत की ओर खींच लाती थीं। वो चेहरा, वो मुस्कान—जैसे सोनू लौट आया हो।

जब मनीष खाना लेने आता, मालती उसे निहारती रहती। एक दिन उसने धीरे से कहा—"बेटा, नाम क्या है?"

"मनीष…"

"माँ-बाप कहाँ रहते हैं?"

"कहते हैं गंगा ने मुझे दिया…"

यह सुनकर मालती का मन काँप उठा। अब उसके भीतर फिर से एक उम्मीद जागी।

छात्रों ने मनीष को लेकर मालती के स्नेह को देखना शुरू किया। बातों का बाजार गर्म हुआ—"माताजी बस मनीष को ही देखती हैं!", "उसके लिए खास पकवान बनता है!"

शिकायत वार्डन तक पहुँची। बिना सत्य समझे, बिना आवाज सुने, मालती को सेवा से हटा दिया गया।

जब वह चली गई, छात्रावास की रसोई जैसे बेजान हो गई। नया रसोइया आया—मगर उसके खाने में न स्वाद था, न स्नेह।

मनीष बीमार पड़ गया—बुखार, कमजोरी, उदासी। छात्र भी अब पछताने लगे। "हमने माताजी को क्यों हटवाया?"

फिर एक दिन छात्र मिलकर मालती को ढूंढने गए और माफी मांगकर वापस लाए।

कुछ दिनों बाद मनीष के माता-पिता—गंगाधर मिश्र और उनकी पत्नी वंदना छात्रावास आए। उन्होंने कहा—"मनीष हमें गंगा किनारे मिला था… एक संतान की तरह गंगा का प्रसाद।"

मालती सुनती रही—हृदय की धड़कनें तेज हो गईं।

तारीखें, उम्र, घटनाएं, कपड़े का टुकड़ा… एक-एक बात मिलाई गई। और अंततः यह निश्चित हो गया—मनीष ही सोनू है… मालती का खोया हुआ लाल।

वंदना ने मालती को गले लगाकर कहा—"अब यह केवल हमारा नहीं, आपका भी है… हमारी संतान साझा है।"

अब मालती, गंगाधर और वंदना—तीनों मिलकर मनीष को पाल रहे हैं। मनीष ने कहा—"मुझे अब समझ आया कि मां केवल जनम नहीं देती, वह मरकर भी जीवन देती है।"

मालती मुस्कुरा दी। उसके आंसू अब दुःख के नहीं थे—यह आंसू पुनर्जन्म के थे। वह जानती थी कि गंगा ने उससे लिया भी था, और लौटा भी दिया था।

कभी-कभी गंगा किनारे बैठी मालती कहती है—

"गंगा मइया, तू साक्षात् करुणा है। तूने मेरे बेटे को मुझसे छीना, पर जब ममता चीत्कार करने लगी, तो तूने ही उसे वापस भी किया…"

उसके चेहरे पर अब संतोष है—ममता का एक वलय, जो जन्म से नहीं, त्याग से पूरा होता है।

अब मनीष—जो दरअसल सोनू ही था—रांची के एक बड़े अस्पताल में डॉक्टर बन चुका था। मालती अब उसी के साथ रहती थी—न एकाकी, न उपेक्षित। वही मालती जो कभी समाज से तिरस्कृत हुई थी, अब एक योग्य पुत्र की पूजनीय माँ थी। वंदना और गंगाधर मिश्र भी साथ ही रहते, और सबका घर एक साझा आश्रय बन चुका था—ममता, दया और सम्मान से भरा हुआ।

मालती अब सिर पर आँचल रखती है, लेकिन मांग में सिंदूर नहीं। वह कहती है—"सिन्दूर का अर्थ केवल पति होना नहीं होता… सिन्दूर तब भी व्यर्थ है, जब सम्मान न हो।"

एक दिन अस्पताल में एक रोगी भर्ती कराया गया—गंभीर अवस्था, साँसे धीमी, नाड़ी कमज़ोर। नाम दर्ज हुआ—राम तपस्वी सिंह।

डॉ. मनीष ने चौंक कर फाइल देखी। यह नाम माँ से कभी सुन रखा था—धीमी आवाज़ में, थरथराते होंठों से, कई वर्षों पहले। वह तुरन्त गंभीर हो गया। उपचार में किसी भी प्रकार की चूक न हो—यह कहकर वह लंच के लिए घर गया।

लंच के बाद कार में माँ को बैठाया—बिना कोई प्रश्न किए। जब अस्पताल पहुंचे, तो मनीष माँ का हाथ थामे एक वार्ड में ले गया।

"माँ, एक मरीज है… देखिए ज़रा…"

जैसे ही मालती ने शैय्या पर पड़े व्यक्ति को देखा, उसके होंठ थरथरा उठे, आँखे भर आईं। “राम तपस्वी…!” उसके मुंह से एक सिसकी सी निकली और वह वहीं बैठ गई—सदियों का कोई टूटा हुआ स्तंभ मानो दोबारा खड़ा हो गया हो।

राम तपस्वी की आँखें खुलीं, क्षीण दृष्टि से देखा—एक धुँधली आकृति सामने थी… फिर वो स्वर—"मालती?"

गला रुंध गया। उसने कुछ कहना चाहा, पर आवाज़ नहीं निकली। बस आँखों से दो बूँदें ढुलक पड़ीं।

मालती ने धीरे से उसका हाथ थामा—“मैंने तुम्हें माफ़ कर दिया है… लेकिन समय ने नहीं।”

राम तपस्वी के होंठ काँपे—एक टूटी हुई मुस्कान आई, और अंतिम साँस के साथ वह निःशब्द हो गया।

मालती ने उसकी आँखें बंद कीं। लेकिन न तो कोई शोक हुआ, न कोई क्रोध। वह सिर्फ स्तब्ध थी—एक समय का पूरा अध्याय अब निस्तब्ध हो गया था।

उस रात गंगा किनारे मालती एक बार फिर बैठी थी—अबकी अकेली नहीं, मनीष उसके पास था। वंदना और गंगाधर थोड़ी दूरी पर खड़े थे।

मालती बोली— "गंगा मइया, तू साक्षात करुणा है। तूने मुझे छीना भी, दिया भी। अब जब अतीत ने अंतिम सांस ली है, मैं केवल माँ हूँ—किसी की विधवा नहीं, किसी की अपराधिनी नहीं… सिर्फ़ माँ।"

गंगा की लहरें अब शांत थीं। जैसे वह भी स्वीकार कर चुकी हो कि इस स्त्री ने जीवन को उसकी सबसे गहरी गहराइयों से जिया है—और फिर भी ममता में डूबी रही।


समाप्त




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