शिव-साधना : त्रिविध ताप शमन की आध्यात्मिक शक्ति
*शिव-साधना : त्रिविध ताप शमन की आध्यात्मिक शक्ति*
डॉ धनंजय कुमार मिश्र
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मनुष्य जीवन मूलतः संघर्ष का दूसरा नाम है। यह संघर्ष केवल बाह्य परिस्थितियों से नहीं, अपितु आंतरिक, आध्यात्मिक और दार्शनिक स्तर पर भी निरंतर चलता रहता है। भारतीय चिंतन में इस जीवन-संघर्ष की पीड़ा को 'त्रिविध ताप' के रूप में जाना गया है— दैहिक, दैविक और भौतिक। इन तापों से ग्रस्त मानवता को मुक्ति देने में जो शक्ति सर्वाधिक सक्षम और करुणामयी मानी गई है, वह है शिव-साधना। शिव न केवल विनाश के देव हैं, वरन् वे कल्याण के प्रतीक, ताप-शमन के अधिष्ठाता और आत्मिक शांति के अव्यय स्रोत भी हैं।
त्रिविध ताप जीवन-संघर्ष की त्रिकालबद्ध पीड़ा है। यह दैहिक, दैविक और भौतिक के नाम से भारतीय संस्कृति में विख्यात है।
(क) दैहिक ताप : शरीर और मन के स्तर पर उत्पन्न पीड़ाएँ — रोग, शोक, ज्वर, मानसिक तनाव, विकार आदि — दैहिक ताप हैं। ये ताप नित्य मनुष्य को उसकी सीमितता का भान कराते हैं।
भगवद्गीता (2.14) में कहा गया है —
“मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥”
इन क्षणिक तापों को सहना ही आध्यात्मिक तप है।
(ख) दैविक ताप : ये वे ताप हैं जो प्राकृतिक या कर्मजन्य हैं — जैसे अकाल, महामारी, भूकम्प, विपत्तियाँ, या प्रारब्ध। मनुष्य की सीमाओं को यह ताप नित्य उद्घाटित करता है, उसे ईश्वर की सत्ता के समक्ष नम्र बनाता है।
मुण्डकोपनिषद् (3.1.3) कहता है —
"यदा पश्यः पश्यते रूक्मवर्णं… तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय..."
जब मनुष्य ईश्वर को देख लेता है, पुण्य-पाप के पार चला जाता है।
(ग) भौतिक ताप : यह ताप सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, पारिवारिक संघर्षों से उपजता है। लालसा, द्वेष, अन्याय, विषमता — यह सब भौतिक तापों का जाल है। यही ताप आधुनिक युग में सर्वाधिक प्रबल प्रतीत होता है।
शिव-साधना केवल उपासना नहीं, अपितु आत्मा की गहन चिकित्सा है। शिव का तत्त्व समस्त तापों को न केवल शमन करता है, बल्कि उन्हें मोक्ष की सीढ़ी बना देता है।
शिव समाधिस्थ हैं — शरीर की सीमाओं से परे। वे विकारों से रहित, इच्छाओं से अलिप्त हैं। जब हम उनकी आराधना करते हैं, तब हम भी इच्छाओं के अतिरेक से मुक्त होने लगते हैं।
"योगिनं ध्याय नित्यं" — शिव योगियों के आदर्श हैं, जिनकी साधना से मन शांत होता है और शरीर तप में रूपांतरित हो जाता है।
शिव की करुणा ही उनके "त्रिनयन" में व्यक्त होती है — एक नेत्र संसार का, दूसरा आत्मा का, और तीसरा काल का द्रष्टा। जब हम शिव को नीलकण्ठ रूप में स्मरण करते हैं, तो यह स्मृति हमें विष को धारण करने की शक्ति देती है।
वह विष जिसे अन्य देवता त्याग गए, शिव ने पी लिया — यही सहनशीलता की पराकाष्ठा है।
शिव विरक्त हैं, कैलासवासी हैं, मसानी हैं — वे सामाजिक बंधनों से परे हैं। यही उनका सन्देश है कि बाह्य भोगों में आसक्त हुए बिना संसार में रहना भी संभव है।
"न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ" — शिव तत्व अद्वैत का स्वरूप है। भौतिक ताप का उत्तर है– त्याग, संतुलन और सेवा।
शिव-साधना का सार है तप। जिसे ताप छू नहीं पाते, वही तपस्वी होता है। त्रिविध ताप हमारे भीतर का अधूरापन दिखाते हैं, और शिव उसकी पूर्णता का प्रतीक हैं।
तैत्तिरीयोपनिषद् (3.1) कहता है —"तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व" — तप से ब्रह्म का अनुभव करो। और शिव स्वयं तप के मूर्तिमान स्वरूप हैं।
आज का मनुष्य तनाव, प्रतिस्पर्धा और असंतोष की अग्नि में झुलस रहा है। ऐसे समय में शिव की साधना एक शीतल छाया की तरह है — वह मन को शान्त करती है, जीवन को स्थिरता देती है और तापों से उपजी विकृति को आध्यात्मिक ऊर्जा में बदल देती है।
शिवरात्रि, सोमवार व्रत, महामृत्युंजय जाप — ये केवल कर्मकाण्ड नहीं, आत्मिक चिकित्सा की विधियाँ हैं।
कहा जा सकता है कि त्रिविध ताप प्रत्येक मनुष्य के जीवन में उपस्थित हैं। उनसे पलायन संभव नहीं, परंतु उनका रूपांतरण सम्भव है — और वह सम्भव है शिव-साधना के द्वारा।
शिव स्वयं तापों को पीकर भी मुस्कुराते हैं।वे हमें सिखाते हैं —"दुख को देवत्व में बदलना ही शिवत्व है।"अतः, जब जीवन तपता हो, जब ताप असह्य हो तब ‘शिव’ को स्मरण करें,क्योंकि वही हैं — तापत्रयनाशनः शम्भुः।*
प्रस्तुति : डॉ. धनंजय कुमार मिश्र,विभागाध्यक्ष संस्कृत,एस के एम विश्वविद्यालय दुमका, झारखंड
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