अनुपेक्षा (एक मौन प्रेम की कहानी)
*अनुपेक्षा*
(एक मौन प्रेम की कहानी)
-डाॅ धनंजय कुमार मिश्र
पहाड़ी गाँव के उस पूर्वमुखी आँगन में तुलसी के पास जलता दीपक काँप रहा था।
शिवानी ने धीरे से हाथ जोड़े — न कोई मंत्र, न कोई माँग। बस एक मौन निवेदन।
स्कूल से लौटकर यह उसका दैनिक क्रम था।
धीरे-धीरे घर में दाख़िल होती संध्या के साथ वह स्वयं भी किसी गहराते अतीत में उतर जाया करती थी।
उसका घर अब शांत है, पिता का देहांत वर्षों पहले हो चुका, माँ अब बोलती नहीं — अधकचरे संवादों में बीते जीवन की जड़ें पकड़ने की चेष्टा करती हैं।शिवानी अविवाहित है। चालीस पार कर चुकी है।अब कोई प्रश्न नहीं करता — क्यों नहीं किया विवाह?
गाँव की स्मृति ने भी अब उसके अकेलेपन को जीवन का स्वाभाविक हिस्सा मान लिया है। कोई बीस-बाईस वर्ष पहले की बात थी। गाँव में स्वास्थ्य शिविर लगा था।वहीं पहली बार अनिरुद्ध से भेंट हुई —जिला अस्पताल से आए युवा चिकित्सक। नितांत शालीन, संयमी, शिष्ट। उस दिन उसने एक बच्ची के हाथ में पट्टी बाँधते समय कहा था —“दर्द जब भीतर तक चला जाए, तो बाहर की मरहम देर से काम करती है।”शिवानी वहीं खड़ी थी — पहली बार सुनते हुए किसी पुरुष की भाषा में दर्द की विनम्रता।
उसके बाद कई अवसर आए —अख़बार के पन्ने, शिविर के काग़ज़, गाँव की बैठकें —पर कहीं कोई प्रत्यक्ष आग्रह नहीं। शिवानी को समझ आ गया था कि कुछ प्रेम कहे नहीं जाते।
अनिरुद्ध के पास भी समय सीमित था।चार महीने बाद उसका स्थानांतरण हो गया---
जाते समय उसने कुछ नहीं कहा।
सिर्फ एक पुस्तक लौटाई, जिसके भीतर एक पत्र रखा था:
प्रिय शिवानी,
इस गाँव से जाते हुए मैं कुछ नहीं ले जा रहा, सिवाय उस मौन की, जो तुम्हारी आँखों में ठहरा है। तुम्हारे साथ कुछ नहीं बँधा, फिर भी बहुत कुछ जुड़ गया। मैंने माँगा कुछ नहीं — और यही तुम्हारी सबसे बड़ी उपस्थिति है।
— अनिरुद्ध”*
शिवानी ने पत्र पढ़कर मोड़ा, और फिर कभी नहीं खोला। उत्तर नहीं लिखा। न आग्रह किया, न आक्रोश।
उसने पत्र को अपनी सबसे पुरानी पुस्तक में रख दिया —
उसी में, जहाँ कभी अपने बचपन की कविताएँ लिखी थीं।
आज वह गाँव की उच्च विद्यालय में हिन्दी पढ़ाती है।
कक्षा में जब 'जय शंकर प्रसाद' की कविता पढ़ाती है —
"नारी तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास रजत नगर पग तल में
पीयूष स्रोत सी बहा करो
जीवन के सुन्दर समतल में।
तो छात्राएँ उसकी आँखों में कोई गहराई महसूस करती हैं —
एक अनकहा यश, एक चुप साधना।
उसका दिन पुस्तकों और माँ की दवाइयों में बँटा है। वह स्वयं के लिए कुछ नहीं माँगती। रात को वह एक दीपक जलाती है —तुलसी के पास —क्योंकि कोई तो है जो अब भी स्मृति में साँझ को उजाला माँगता है।
एक संध्या उसकी पुरानी सहेली नीरा मिलने आई।
शहर से आई थी, वर्षों बाद।
"अब भी अकेली हो शिवानी?"
— नीरा ने सहज पूछ लिया।
शिवानी मुस्कुराई,
“अब इसे अकेलापन नहीं लगता। जैसे किसी की प्रतीक्षा पूरी हो चुकी है... बिना आए ही।”
नीरा चुप हुई, फिर धीमे से पूछा:
"उसने... कभी लौटने की बात की थी?"
"नहीं," — शिवानी बोली —
“शायद वह जानता था, प्रेम लौटने के लिए नहीं होता। वह एक बार आता है, और चुपचाप रह जाता है।”
कभी-कभी रात को नींद नहीं आती।
वह उठकर खिड़की के पास बैठती है —
जहाँ चाँद नहीं होता, पर स्मृतियाँ होती हैं।
उस पुस्तक को खोलती है, जिसमें अनिरुद्ध का पत्र रखा है।
पढ़ती नहीं — केवल स्पर्श करती है।
जैसे कोई बीज अब भी भीतर फूट रहा हो — शान्त, गुप्त, गहरा।
"न उसने अपेक्षा की, न शिवानी ने उपेक्षा की।
जो मिला, उसे थामा नहीं;
जो नहीं मिला, उसे कोसा नहीं।
उसने जीवन को सजाया —
जैसे दीपक को हवाओं में जलाया जाता है —
बिना शिकायत, बिना तिरस्कार।"
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