सावन में शिव-पूजन का कारण और महत्त्व*
*सावन में शिव-पूजन का कारण और महत्त्व*
प्रस्तुति: डॉ. धनंजय कुमार मिश्र, विभागाध्यक्ष संस्कृत,
सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय दुमका, झारखंड
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भारतीय सभ्यता ऋतुओं के संग-संग चलती रही है। प्रत्येक मास, हर दिन, हर पर्व भारतीय जनमानस के लिए केवल तिथियों की गणना-पद्धति मात्र नहीं, बल्कि प्रकृति, परमात्मा और पुरुषार्थ के मध्य सामंजस्य की जीवंत परंपरा है। श्रावण मास, जिसे सावन के नाम से जाना जाता है, इसका सर्वाधिक धार्मिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक महत्त्व है। यह मास विशिष्ट रूप से भगवान शिव की आराधना को समर्पित है।
जब आकाश में मेघ उमड़ते-घुमड़ते हैं, धरती भीगती है, वृक्ष पुलकित होते हैं और वातावरण सौंधी मिट्टी की गंध से भर उठता है—तब भीतर की चेतना भी किसी अपरिचित आवेग से भीग जाती है। और तभी, वह महाकाल शिव की ओर आकृष्ट होती है, जिनका स्वरूप स्वयं प्रकृति के पंचतत्त्वों का समाहार है।
पौराणिक शास्त्रों के अनुसार, श्रावण मास में ही देवों और दानवों द्वारा क्षीरसागर का मंथन हुआ था। मंथन से पहले कालकूट विष निकला, जो इतना भयानक था कि वह समस्त सृष्टि को नष्ट कर सकता था। तब सृष्टि की रक्षा के लिए भगवान शिव ने उस विष को कंठ में धारण कर लिया, जिससे उनका कंठ नीला हो गया और वे नीलकंठ कहलाए।
यह प्रसंग केवल पौराणिक आख्यान नहीं, बल्कि यह दर्शाता है कि जब सृष्टि संकट में हो, तब एक त्यागी योगी स्वयं को समर्पित करता है। इसीलिए सावन में शिव को जल चढ़ाना, बिल्वपत्र अर्पण करना और उनके त्रिपुंड से तादात्म्य स्थापित करना — सब कुछ हमें स्मरण कराता है कि सहनशीलता, त्याग और करुणा ही मानव धर्म का मूल है।
सावन केवल भक्ति या प्राकृतिक सौंदर्य का ही नहीं, बल्कि भावनाओं की गहराई का भी महीना है।
संस्कृत साहित्य में कालिदास के ऋतुसंहार और मेघदूत में श्रावण मास की वर्षा, कुंजों में प्रेमी युगल, विरही यक्ष की वेदना—यह सब शिव की मौन उपस्थिति में जीवन के विविध रंगों को व्यक्त करता है।
भक्ति काव्य परम्परा में में सावन को "शिवकृपा का अनन्त अवसर" माना गया है - "सावन सिव आराधिए, बारह मास सम जान।
जिन्ह करि कृपा करे त्रिपुरारी, तिनके मिटे क्लेश-संसारि॥"
लोकगीतों में महिलाएं "सावन में झूला पड़ें" की आशा करती हैं, किन्तु मन ही मन वह शिव-पार्वती के प्रेम और तप के समन्वय की कामना करती हैं। सावन के झूले, कजरी और मल्हार—ये सब जीवन के उसी रस की प्रतीक हैं, जिसे शिव अपने मस्तक पर गंगा के प्रवाह की भाँति धारण करते हैं। मिथिला में प्रचलित मधु श्रावणी इसका उदात्त रूप है।
शिव केवल एक देवता नहीं, बल्कि एक समग्र जीवन-दर्शन हैं। वे संहारक होकर भी करुणानिधान हैं। उनका तीसरा नेत्र केवल विनाश का नहीं, अज्ञान का अंत करने वाला ज्ञान का नेत्र है।
श्रावण मास की आराधना, विशेषतः सोमवार के व्रत, वस्तुतः आत्मशक्ति और आत्मसंयम के प्रतीक हैं। जलाभिषेक के माध्यम से हम शिव को नहीं, अपने भीतर की कठोरता को शीतलता प्रदान करते हैं। शिव का रूप ही दार्शनिक संवाद है।
भस्म हमें क्षणभंगुरता की याद दिलाता है,
त्रिशूल हमें दु:ख त्रय (दैहिक, दैविक, भौतिक) से मुक्ति की प्रेरणा देता है, डमरू ब्रह्माण्डीय स्पंदन का प्रतीक है,
शिव के मस्तक से निकली गंगा बुद्धि की निर्मल धारा है।
सावन में शिव की पूजा इसीलिए केवल पौराणिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि बोधि का अभ्यास है।
श्रावण मास के अवसर पर निकलने वाली कांवड़ यात्रा न केवल श्रद्धा की पराकाष्ठा है, बल्कि सहयोग, अनुशासन और आत्मनियंत्रण की पाठशाला भी है। युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरुष—सब मिलकर शिवभक्ति की उस यात्रा में सम्मिलित होते हैं जहाँ जाति, वर्ग, भाषा और क्षेत्रीय भेदभाव तिरोहित हो जाते हैं।
सावन में महिलाएं मंगल गौरी, हरितालिका तीज, सोमवार व्रत आदि करती हैं, जो नारी सशक्तिकरण, पारिवारिक उत्तरदायित्व और आध्यात्मिक प्रगति का लोकानुकूल रूप हैं।
छात्र छात्राएं शिव के पर्यावरणीय तत्त्वों का संरक्षण करें, वृद्ध शिव के ध्यान में मग्न रहें, युवा शिव के चरित्र से संयम और साहस ग्रहण करें—यह सामाजिक रूप से निर्मल और नैतिक जीवन का सूत्रपात है।
शिव स्वयं प्रकृति के संरक्षक हैं। वे वनों के अधिपति पशुपतिनाथ हैं। उनका वाहन वृषभ है, जो कृषि और ग्रामीण संस्कृति का प्रतीक है। उनके मस्तक पर गंगा, गले में सर्प, हाथ में त्रिशूल—ये सब पर्यावरणीय तंत्र के संवाहक हैं।
सावन में जल, वनस्पति, नदियाँ, पर्वत—सब कुछ जागृत हो उठता है। यही वह समय है जब हम प्रकृति के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझें।
बिल्वपत्र, आक, धतूरा आदि औषधीय पौधे, जिन्हें शिव को अर्पित किया जाता है, लोकचिकित्सा और पारंपरिक जैवविविधता का हिस्सा हैं। अतः सावन की शिव-आराधना आध्यात्मिक साधना और पारिस्थितिक चेतना का अद्भुत समन्वय बन जाती है।
आज के युग में जब जीवन तनावग्रस्त, संबंध अस्थिर और प्रकृति विकृत हो रही है, तब शिव हमें चेताते हैं—"शिवत्व केवल पूजन नहीं, बल्कि आत्मसंयम, त्याग और प्रेम का जीवन है।"
श्रावण में शिव का पूजन हमें आंतरिक संतुलन, समाज में समरसता, और प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता का संदेश देता है।
सावन का यह महीना केवल जलवर्षा का नहीं, अंतरात्मा की अमृतवर्षा का महीना है। शिव-पूजन हमें याद दिलाता है कि सृष्टि का सार करुणा में है, न कि शक्ति-प्रदर्शन में। जब हम शिव को जल चढ़ाते हैं, तब वस्तुतः हम अपने भीतर के द्वेष, क्रोध, अहंकार को धोते हैं।
"ॐ नमः शिवाय" केवल एक मंत्र नहीं, बल्कि एक आह्वान है— "हे महादेव! हमारे भीतर के अंधकार को समाप्त कर हमें प्रकाशपथ की ओर ले चलो।"
इस सावन, शिव की पूजा केवल अभिषेक तक सीमित न रहे—बल्कि वह बने एक संकल्प:
सहिष्णुता का, सेवा का, स्वच्छता का और आत्म-साक्षात्कार का।
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