गेरुए वस्त्रों में जलती चेतना
*गेरुए वस्त्रों में जलती चेतना*
प्रस्तुति : डॉ धनंजय कुमार मिश्र ,विभागाध्यक्ष संस्कृत ,एस के एम विश्वविद्यालय दुमका झारखंड
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हरिद्वार — गंगातट पर बसा एक नगर, जहाँ नदी नहीं, श्रद्धा बहती है; जहाँ जल में स्नान नहीं, आत्मा का परिष्कार होता है। ऐसे ही एक गंगातट के समीप, एक जीर्ण-शीर्ण आश्रम की परछाईं में, एक संन्यासी मौन तप में रत है। न कोई ताम्रपत्र, न कोई प्रसिद्धि; फिर भी, उसके शिष्यों के हृदयों में वह एक जीवित शास्त्र की तरह प्रतिष्ठित है।
यह कथा उसी की है — एक संवेदनशील बालक से संन्यासी विद्वान बनने तक की, जिसमें भूख, त्याग, विद्या, आत्मसंघर्ष, और ब्रह्मानुभूति के अनेक सोपान हैं।
दक्षिण भारत के एक छोटे गांव में जन्मा वह बालक अपनी माँ के अत्यंत स्नेहिल आँचल में पला। माँ संस्कृत की अनपढ़ उपासिका थीं, पर आत्मा से पूर्ण विदुषी — उनका दिन तुलसी और रामायण के पाठ से आरंभ होता और अंत श्लोकों की गुनगुनाहट में। बालक को वेदपाठ सिखाने की उनकी ललक, जैसे उस बालक के भाग्य का बीज थी।
माँ के असमय निधन ने संसार का मानचित्र ही पलट दिया। पिता, जो स्वयं एक संन्यासभाव से ग्रसित गृहस्थ थे, उसे लेकर उत्तर भारत की ओर निकले। हरिद्वार पहुंचे — एक ऐसा तीर्थ जहाँ गंगा की धारा जितनी बाह्य है, उतनी ही आंतरिक। वहीं, एक पारम्परिक गुरुकुल में बालक का प्रवेश हुआ।
गुरुकुल जीवन एकाकी था — दिनचर्या में तप था, भोजन में मितता थी, और मन में एक अज्ञात पीड़ा। वहाँ भोजन तब मिलता जब अनुष्ठान सफल होता, या कोई यजमान दान करता। कई दिन केवल गंगाजल और तुलसीदल पर काटे। लेकिन इन्हीं भूखों ने उसकी चेतना को परिपक्व किया।
पढ़ाई में वह अलभ्य प्रतिभा था। संस्कृत के व्याकरण, न्याय, मीमांसा, वेदांत और साहित्य में उसकी पकड़ इतनी प्रखर थी कि कई बार आचार्य उसे स्वयं सुनते और उसे ‘बालमुनि’ कहकर पुकारते। पर भीतर वह अब भी एक बच्चे की तरह रोता था — माँ के लिए, और उस पिता के लिए जिन्होंने एक दिन कहा था, “गंगासागर जा रहा हूँ, शायद फिर न मिलूँ।” वे सचमुच फिर कभी नहीं लौटे।
पटना विश्वविद्यालय में नौकरी लगी — सहायक प्राध्यापक के रूप में। वेतन अच्छा था, छात्र प्रशंसा करते थे, और विभागाध्यक्ष उसकी विद्वत्ता पर गर्व करता था। पर मन वहाँ स्थिर नहीं था। आधुनिक शिक्षा की चकाचौंध में उसे आत्मा की शांति नहीं दिखती थी।
धन का आकर्षण क्षणिक था। वेतन के दिन, वह गुरुकुल के दिनों को याद करता — जब एक कटोरी खिचड़ी भी ‘प्रसाद’ थी। अब मिष्ठान भी रूखा लगता। उसे प्रतीत हुआ — भोजन देह को तृप्त करता है, पर तृप्ति आत्मा को चाहिए — और वह केवल ब्रह्म में है।
कुछ ही समय बाद, बिना शोर-शराबे के, उसने नौकरी त्याग दी। कहा, “विद्या ब्रह्म प्राप्ति की साधिका है, नौकरी उसकी जंजीर नहीं बननी चाहिए।”
अब वह हरिद्वार के उसी गुरुकुल के समीप रहता है — जहाँ उसने बाल्यकाल में भूख और ज्ञान का स्वाद चखा था। एक छोटी कुटिया, एक आसन, एक दीपक और एक लेखनी ही उसकी सम्पत्ति है। दिन में विद्यार्थियों को शब्दार्थ, तर्क, वेदवाक्य सिखाता है; रात्रि में आत्मा, निर्वाण और भक्ति पर ग्रंथ रचता है।
उनके ग्रंथों में गूढ़ दर्शन है — पर सरल भाषा में। वह कहते हैं — “ज्ञान वह है, जो भूख को तप में बदल दे; जो मोह को मौन बना दे।
उसकी आत्मकथा कोई लिख नहीं सकता, क्योंकि वह मौन में रची जाती है। फिर भी, जब कभी कोई युवा उससे पूछता — “गुरुदेव, क्या आप कभी दुखी नहीं होते? क्या आपको अपने पिता से कोई क्रोध नहीं?” — तो वह उत्तर देता : “जब मैं तीसरी कक्षा में था, माँ ने कहा था — संस्कृत तुझे खुद से प्रेम करना सिखाएगी।
अब जब मैं वेदांत पढ़ता हूँ, तो माँ की बात का अर्थ समझता हूँ —
स्वात्मा एव मम बन्धुः, अन्यं न पश्यामि।
और जब आत्मा ही बंधु है, तो किसी से कोई क्रोध कैसा?”
आज भी वह संन्यासी हरिद्वार के घाट पर दिखता है। एक हाथ में ताड़पत्र, दूसरे में कम्बल, और मन में शब्दों का समुद्र। वह नहीं चाहता कि लोग उसका नाम जानें। वह केवल चाहता है कि उसकी विद्या किसी बालक के अंतर्मन में संस्कार बनकर बस जाए, जैसे उसकी माँ की वाणी बस गई थी।
गेरुए वस्त्रों में वह एक चलता-फिरता ग्रंथ है — जिसमें भूख, शोक, विद्या, वैराग्य और ब्रह्मानुभूति सब कुछ समाहित है।
यह कहानी नहीं, एक तपस्वी का मौन जयघोष है।
जहाँ संसार छोड़ने का अर्थ भागना नहीं, बल्कि आत्मा की ओर लौटना है।
जहाँ गेरुआ वस्त्र, मन की विरक्ति का प्रतीक हैं — और चेतना की प्रखर ज्वाला हैं।
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