संतप्त सावन की ईशा
*"संतप्त सावन की ईशा"*
प्रस्तुति: डॉ धनंजय कुमार मिश्र ,विभागाध्यक्ष संस्कृत ,एस के एम विश्वविद्यालय दुमका झारखंड
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हर साल सावन जब हरियाली की चादर ओढ़े धरती को शीतल करता, तब साहिबगंज में गंगा किनारे बैठे डॉ. सिन्हा की स्मृतियों की गहराइयों से एक चेहरा उभर आता — वह चेहरा जो कभी ज्ञान की प्यास लिए उनके सामने बैठा करता था… ईशा ।
उस दिन घाट पर बारिश की बूँदें गंगा की सतह पर हल्के-हल्के गिर रही थीं। एक चायवाले की आवाज़, कहीं दूर मंदिर की घंटियों की गूंज, और सामने बहती गंगा… डॉ. सिन्हा ने अपनी पुरानी डायरी खोली और लिखा : “कुछ लोग जीवन में आते हैं जैसे बादल — हल्के, चुपचाप, गहराई छोड़ जाते हैं… ईशा हेम्ब्रम वैसी ही थी।”
ईशा झारखंड के पाकुड़ जिले के एक उपेक्षित आदिवासी गाँव की लड़की थी। जन्म से संताल, धर्म से ईसाई। पिता एलेक्स हेम्ब्रम, एक मेहनतकश साक्षर पुरुष, जो पास की कोयले की खदान में बतौर बाबू काम करते थे। माँ सोनामुनी सोरेन — एक मिट्टी सने हाथों में ममता का दूध समेटे नारी, जो हर रविवार चर्च की प्रार्थना सभा में जाती और फिर जंगल की ओर जलावन बीनने चली जाती।
घर छोटा था, दीवारें मिट्टी की और छत खपड़ैल की। लेकिन भीतर एक लौ जलती थी — उम्मीद की। माँ-बाप ने समय के साथ यह समझ लिया था कि जंगल की बंद दीवारें बेटियों की उड़ान नहीं रोक सकतीं। उन्होंने तय किया — “हमारी बेटी पढ़ेगी, शहर जाएगी, नाम कमाएगी।”
ईशा पढ़ने में तेज न सही, पर जुझारू थी। दसवीं में द्वितीय श्रेणी मिली। पिता ने बकरी बेचकर शहर के महिला कॉलेज में उसका दाखिला कराया। साथ में छोटा भाई मनीष भी आ गया।
किराए का एक छोटा-सा कमरा, दो थालियां, एक स्टोव और माँ के दिए संस्कार — यही संसार था उनका।
ईशा दिन में पढ़ाई करती, शाम को भाई को पढ़ाती, रात में स्कूल ड्रेस सिलती थी गाँव की लड़कियों के लिए — ताकि खर्चा चल सके। चुपचाप संघर्ष करती, पर शिकायत कभी नहीं।
कॉलेज का जीवन अपने साथ कुछ उजाले लाया। लाइब्रेरी में किताबें थीं, मैदान में लड़कियों की हँसी, और हॉल में सांस्कृतिक कार्यक्रम। वहीं एक संताल युवक से परिचय हुआ — राजेन्द्र मुर्मू।
राजेन्द्र मुर्मू पास के कॉलेज का छात्र था — स्नेही, समझदार, और उतना ही गरीब। उसके चेहरे पर सोहराय पर्व की उजास और आंखों में मांदर की थाप थी। बाहा गीतों की गूंज उसकी आवाज़ में थी। वह संताल संस्कृति का प्रतिनिधि था — अपने मूल से जुड़ा, पर अपने भविष्य के लिए लड़ता हुआ।
धीरे-धीरे ईशा और राजेन्द्र के बीच एक मौन संवाद पनपने लगा। दोनों के पास शब्द कम थे, पर आंखें बहुत कहती थीं।
फिर एक रात जब मनीष हेम्ब्रम स्कूल के हॉस्टल के वार्षिक शिविर में गया था, और बाहर बारिश थी, कमरे में एक साथ दो हाथ कांपते हुए जुड़ गए। ईशा ने अपने जीवन का सबसे मूल्यवान विश्वास राजेन्द्र मुर्मु को सौंप दिया — वह प्रेम था, न कि मोह। एक आत्मीय स्वीकृति।
ईशा ने सोचा था अब कुछ अच्छा होगा। पर नियति को दूसरा अध्याय लिखना था। कुछ ही हफ्तों में पिता एलेक्स हेम्ब्रम को कोयले की खदान में गैस रिसाव के कारण जान गंवानी पड़ी।
माँ सोनामुनी सोरेन इस आघात को नहीं सह सकीं। उन्होंने खामोशी से भोजन करना छोड़ दिया। कुछ ही महीनों में वह भी चल बसीं।
अब मनीष और ईशा ही थे। लेकिन भाग्य को यह भी मंजूर न था। मनीष को डेंगू हुआ, और समय पर इलाज न मिलने से वह भी चल बसा। ईशा टूट चुकी थी।
कॉलेज में सब कुछ सामान्य था — बस एक चेहरा अब उदास हो गया था।
हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. रमेश सिन्हा ने उस चुप्पी को देखा, जो चीखों से अधिक तीव्र होती है।
एक दिन कक्षा में कबीर पर चर्चा करते हुए उन्होंने पूछा, “क्या दुख को चुपचाप पी जाना ही साहस है?”
ईशा की आंखें भर आईं। उन्होंने धीरे से कहा, “कभी-कभी शब्द बेमानी हो जाते हैं, सर… और तब आँसू ही भाषा बनते हैं।”
डॉ. सिन्हा समझ गए — यह लड़की केवल एक छात्रा नहीं, एक चलती हुई कविता है।
कॉलेज के अंतिम वर्ष में अचानक खबर आई — ईशा का विवाह हो गया है।
सबने सोचा राजेन्द्र मुर्मू से। लेकिन नहीं। वह विवाह हुआ शहर के एक व्यापारी के बेटे मनोज अग्रवाल से। कम पढ़ा-लिखा, पर पैसे वाला। एक दुकान थी उसकी — इलेक्ट्रॉनिक्स का कारोबार।
ईशा अब एक गृहिणी थी। दो बच्चों की माँ, एक संयुक्त परिवार की बहू।
कुछ समय तक सब ठीक चला। वह बच्चों को पढ़ाती, पारिवारिक मर्यादा को निभाती मंदिर में जाया करती थी।
पर कुछ ही वर्षों में सब बदल गया।
राजेन्द्र मुर्मू की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई।
और मनोज…? वह अब दूसरी स्त्रियों के पीछे भागता। एक को तो शहर में किराए के मकान में रख छोड़ा था — पत्नी जैसा।
ईशा जानती थी, लेकिन कहती नहीं थी। अब वह विरोध नहीं, स्वीकार करना सीख गई थी।
एक दिन सावन की हल्की बारिश में — वह कॉलेज पहुँची। बाल गीले, साड़ी सादी, लेकिन चाल में एक थकान थी जो जीवन के लंबे सफर से आती है।
डॉ. सिन्हा अब भी वहीं थे — वही कमरा, वही किताबें, वही मद्धम मुस्कान।
“ईशा…?” उन्होंने चौंक कर कहा।
“जी, सर… बच्चे स्कूल में हैं। सोचा आपसे मिल लूँ।”
दोनों चुपचाप बैठे रहे।
कुछ देर बाद उन्होंने पूछा, “सब ठीक है?”
ईशा मुस्कराई, पर वो मुस्कान काँच जैसी थी — चमकदार पर नुकीली।
“जीना यहां मरना यहां … इसके सिवा जाना कहाँ, सर…”
उसकी हँसी में करुणा थी, साहस था, और एक स्त्री की परिपक्व स्वीकृति — जिसने जीवन को हर कोण से देखा था।
डॉ. सिन्हा के लिए ईशा अब कोई भूतकाल नहीं, एक जीवंत धुन बन चुकी थी। हर सावन में, जब गंगा अपने किनारे छूती, और मांदर की थाप कहीं दूर बजती, तो उन्हें ईशा की याद आती।
एक लड़की जिसने सब खोया — माँ, पिता, भाई, प्रेम, स्वाभिमान — फिर भी हार नहीं मानी।
जो आज भी बच्चों के लिए जीती थी, दूसरों के लिए मुस्कराती थी, और खुद के लिए चुपचाप सावन की बूंदों में रो लेती थी।
“सिर पर संतापों की वर्षा, हृदय में टूटीं कितनी आशाएँ, फिर भी जो मुस्कराए जीवन से, उसका नाम है — ईशा।
~ समाप्त ~
Bahut acha laga sir apka ye rachna reads krke
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