कहानी: अंतिम आशा

 कहानी: अंतिम आशा



डॉ. धनंजय कुमार मिश्र

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नेहा की आँखें थकी हुई थीं, चेहरा उदास और कपड़े धुले हुए होकर भी पुराने थे। परंतु इन सबसे अधिक फीका था उसका वह सपना, जो वर्षों से पालती आई थी एक अदद सरकारी नौकरी। यह नौकरी कोई विलास नहीं थी, बल्कि एक तिनके जैसी डूबते घर की नाव के लिए अंतिम सहारा थी। घर की हालत ऐसी थी कि दीवारें तक उधारी में जीती थीं। एक छोटा-सा आँगन, जिसमें एक तरफ टूटी हुई चौकी पड़ी थी, और दूसरी ओर पिता गोविन्द सिन्हा का खाँसता हुआ शरीर। नेहा जब रात में पढ़ती थी, तो उसकी भाभी माया जिसकी विद्या बस चूल्हे तक ही थी - ताने देने लगती, “दिन भर किताबों से चिपकी रहती है। भइया तो छत पर सीमेंट गिन रहे हैं, और मैडम यहाँ अफसर बनने चली हैं!” नेहा चुप रहती। चूल्हा जलाने से पहले वह अपने अन्दर जल चुकी होती थी।

रामू, उसका भाई, जो पिता की उम्मीदों का पहला दीपक था, अब बुझे हुए दीयों में शामिल था। ठेकेदारी में उसका भविष्य ऐसा फँसा कि आज उसने अपना घर तक चौधरी टाइप बना लिया था। मोहल्ले में “रामू भइया” की दहाड़ थी, पर घर में पिता की दवाइयों तक की सुध नहीं थी। नेहा के लिए न उसका भाई ठहरा, न भाभी। केवल बाबूजी की आँखें थीं, जिनमें हर बार पढ़ते समय एक दुआ-सी चमकती थी। गोविन्द बाबू हर शाम खाँसते हुए कहते, “नेहा, तू अगर पास हो गई, तो मेरी आत्मा को शांति मिल जाएगी। अब कोई और सहारा नहीं है बेटी...”

जब इंटरव्यू का पत्र  आया उस समय रामू कहीं ठेके की मीटिंग में था। बाबूजी की तबियत ठीक नहीं। भाभी ने कहा, “अब सरकारी नौकरी तो मिल ही रही है न, अब दवा भी खुद लाओ। हमें तो घर भी चलाना है।” नेहा ने झोले में पिता की दवा, झुके कंधे और बुझे हुए मन को डाला, और अस्पताल पहुँची। बाबूजी की साँसें उखड़ रही थीं। डॉक्टर ने कहा, “अंतिम समय है।” गोविन्द बाबू ने नेहा का हाथ थामा और कहा: “तू पास हो जा बेटी, नहीं तो मेरी चिता भी अधूरी जलेगी।”

चार महीने बाद जब परिणाम आया, तो मोहल्ले में जैसे भूचाल आ गया। “नेहा सिन्हा - प्रथम स्थान, बिहार प्रशासनिक सेवा।” रामू ने सबसे पहले मिठाई बाँटी। भाभी अब “नेहा बहनजी” कहने लगी। पर नेहा ने मिठाई नहीं खाई। वह सीधे उस कमरे में गई, जहाँ बाबूजी की पुरानी खाट अब भी एक कोने में पड़ी थी। चुपचाप उस खाट पर बैठ गई। दीवार से सटी उनकी तस्वीर को देखकर मन ही मन बोली, “आपने कहा था, नौकरी पा जाना, मैंने पा ली बाबूजी। पर अब आप नहीं हैं! न वो छाँव है, न वो साया।”

नेहा अफसर बन गई। अब हर दिन नई फाइलें, योजनाएँ, लोग। पर जब शाम होती, वह ऑफिस के झरोखे से डूबते सूरज को देखती और बुदबुदाती: “मेरे बाबूजी के सपने पूरे हुए, मगर बाबूजी नहीं रहे।”

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